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राज्यपालों की अदला बदली से समीकरण साधने का प्रयास-अरुण पटेल

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आलेख
अरुण पटेल

नौ राज्यों में बढ़ती चुनावी गतिविधियों के बीच राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने 13 राजभवनों में नये चेहरों को बतौर राज्यपाल नियुक्त किया है। राज्यपालों के इस फेरबदल में दो राज्यपालों महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी और लद्दाख के उपराज्यपाल आर.के. माथुर के इस्तीफे हुए हैं। भले ही भगत सिंह कोश्यारी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पदमुक्ति का अनुरोध किया था लेकिन उनके हटाये जाने पर विपक्षी दलों ने खुशी का इजहार किया है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके कोश्यारी को महाराष्ट्र में राजनीतिक उठापटक के बीच सितम्बर 2019 में राज्यपाल बनाया गया था लेकिन वे लगातार अपने कुछ बयानों व कुछ फैसलों के कारण विवादों से घिरे रहे। जल्दबाजी में सुबह तड़के देवेन्द्र फड़नवीस व अजीत पवार को मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री को शपथ दिलाने को लेकर वे चर्चा में आये थे। यह सरकार मात्र तीन दिन तक चली और उसके बाद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में बनी शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस गठबंधन की महाविकास अघाड़ी सरकार से राज्यपाल का निरन्तर टकराव चलता रहा। हाल ही में छत्रपति शिवाजी महाराज पर की गई टिप्पणी को लेकर वह महाविकास अघाड़ी के नेताओं के निशाने पर थे। उनके स्थान पर छत्तीसगढ़ के पिछड़े वर्ग के एक बड़े नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रमेश बैस को झारखंड के राजभवन से स्थानान्तरित कर महाराष्ट्र के राजभवन में भेज दिया गया।
रमेश बैस को अचानक बड़े राज्य में राज्यपाल बनाकर मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ की राजनीति में भाजपा ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह पिछड़े वर्ग के नेताओं को पदों से नवाजने में प्राथमिकता देती है। दोनों ही राज्यों में इस वर्ष के अन्त में विधानसभा चुनाव होना हैं। इसके साथ ही राजस्थान में भी चुनाव होना हैं, वहां की भाजपा की राजनीति को साधने के उद्देश्य से 78 वर्षीय राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया को असम का राज्यपाल बनाया गया है। कटारिया की गिनती राजस्थान के वरिष्ठ भाजपा नेताओं में होती है तथा उन्हें राज्यभवन में भेजकर राजस्थान में नये नेतृत्व को आगे करने का रास्ता साफ कर लिया गया है। अब भाजपा वहां की जमीनी हकीकत व जातिगत समीकरणों को देखते हुए नये चेहरे को नेता प्रतिपक्ष बना सकती है।
जहां तक अनुसुइया उइके का सवाल है वे भी हाल ही में उस समय चर्चा में आईं जब आरक्षण संबंधी राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर न तो उन्होंने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक हस्ताक्षर किए और न ही उसे वापस किया बल्कि 10 बिंदुओं पर सरकार से स्पष्टीकरण मांग लिया था। आरक्षण संबंधी एक प्रश्न के उत्तर में सुश्री उइके ने पूर्व में कहा था कि यदि इस मुद्दे पर राज्य सरकार कोई विधेयक लाती है तो वह तत्काल उस पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा देगी। एक चतुरसुजान और अनुभवी राजनेता होने के नाते भूपेश बघेल ने बिना कोई देरी किए तत्काल विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर आदिवासी वर्ग के आरक्षण के उस प्रतिशत को फिर से बढ़ा दिया जिसे डाॅ. रमन सिंह सरकार ने कम कर दिया था। विधानसभा में यह विधेयक सर्वानुमति से पारित हो गया और वहां भाजपा ने इसका समर्थन किया था लेकिन राजभवन जाकर भाजपा नेताओं ने इसके कुछ बिन्दुओं पर आपत्ति जताई और फिर यह विधेयक राजभवन में ही उलझ कर रह गया। मुख्यमंत्री बघेल और कुछ आदिवासी संगठन इस पर यह कहने लगे कि भाजपा आदिवासियों के आरक्षण की विरोधी है इसलिए इसे राजभवन में लटकाया जा रहा है। यहां तक कि यह मामला अदालत में भी जा पहुंचा। इस बीच भले ही उइके के स्थानान्तरण के कोई अन्य कारण रहे हों लेकिन इसे इस घटनाक्रम से जोड़कर राजनीतिक गलियारों में देखा जा रहा है। अब सुश्री उईके मणिपुर की राज्यपाल होंगी तथा छत्तीसगढ़ के राज्यपाल विस्वभूषण हरिचंदन बनाये गये हैं।
अयोध्या के रामजन्मभूमि- बाबरी मसजिद विवाद व तत्काल तीन तलाक को वैध ठहराने वाली संविधान पीठ में जस्टिस रहे एस अब्दुल नजीर को आंध्रप्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है। नजीर दो जनवरी को सेवानिवृत्त हुए थे। जस्टिस नजीर व गुलाबचंद कटारिया के राज्यपाल नियुक्त होने के साथ ही चार राज्यपाल अल्पसंख्यक समुदाय से हो गये हैं इनमें केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान और उत्तराखंड के राज्यपाल गुरमीत सिंह भी इसी समुदाय से हैं। इस प्रकार राज्यपालों की अदला-बदली से भी राजनीतिक व सामाजिक समीकरण साधने की कोशिश की गयी है, इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता।

-लेखक सुबह सवेरे के प्रबंध संपादक हैं
-सम्पर्क: 9425010804, 7999673990

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