भगवान बुद्ध के परम शिष्यों की पावन अस्थियों की होगी पुजा अर्चना
देवेंद्र तिवारी सांची रायसेन
प्रतिवर्ष होने वाले बौद्ध वार्षिकोत्सव की तैयारियां जोर शोर से शुरू हो गई है इस वर्ष वार्षिकोत्सव धूमधाम से मनाया जाएगा । इसमें देश विदेश की लोगों के भाग लेने की संभावना बन रही है । बौद्ध वार्षिकोत्सव इस वर्ष 26-27 नवम्बर को आयोजित किया जाएगा ।
जानकारी के अनुसार नगर में प्रतिवर्ष आयोजित किए जाने वाले चेत्यगिरि बिहार सांची के 70 वा वार्षिकोत्सव 26-27 नव को आयोजित होने वाले आयोजन की तैयारी जोरशोर से शुरू कर दी गई है यह वार्षिकोत्सव हर वर्ष आयोजित किया जाता रहा है परन्तु कोरोना काल की भयावहता को ध्यान में रखकर इस कार्यक्रम को स्थगित करना पड़ा था । अब कार्यक्रम की तैयारी जोरों पर चल रही है।यह कार्यक्रम वर्ष के अंतिम रविवार को आयोजित किया जाता है।
जानकारी के अनुसार भगवान बुद्ध के परम शिष्यों सारिपुत्र एवं महामोदग्लाइन की पवित्र अस्थियों को विदेश से लाया गया था । इन पवित्र अस्थियों को स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के अथक प्रयास से स्वदेश लाकर इन अस्थियों को सुरक्षित रखने के लिए विश्व ऐतिहासिक स्मारकों से कुछ ही गज की दूरी पर बौद्ध मंदिर निर्मित किया जाकर उसमें सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई थी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने वर्ष के नव माह के अंतिम रविवार को पूजा अर्चना कर जनता के दर्शनार्थ रखा था तब से ही इन पावन धातुओं की पूजा अर्चना कर माह नव के अंतिम रविवार जनता के दर्शनार्थ रखा जाता है । तथा इसके पूर्व इन पावन धातुओं को प्रमुख स्मारकों की भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच परिक्रमा की जाती है इसमें भगवान बुद्ध के देश विदेश से आए बौद्ध अनुयायियी भाग लेते हैं । कालांतर में सांची को काकणाय के नाम से जाना जाता था।
कालांतर में सांची को काकणाय के नाम से जाना जाता था यह स्थल बौद्ध मूर्ति व स्थापित्य कला के लिए प्रसिद्ध रहा है यहां स्थित बौद्ध स्मारकों का निर्माण तीसरी सदी ई से बारहवीं सदी ई के मध्य कराया गया था इन स्मारकों का निर्माण 25 सौ वर्ष पूर्व सम्राट अशोक द्वारा कराया गया था। धीरे धीरे यह स्मारक लुप्त होते चले गए।
अंग्रेजी अफसरों ने की स्मारकों की पुनः खोज
अंग्रेजी शासन के दौरान वर्ष 1712 से 1919 के बीच जनरल जानसन वह जनरल कनिघम कैप्टन मैसी भण्डार कोल तथा सर जान मार्शल ने कर सुरक्षित व संरक्षित कर इन्हें मूर्त रुप देने का कार्य शुरू किया था ।
खोज के दौरान कलाकृतियां व पावन धातुओं को विदेश ले जाने की बनी योजना
1922 में अंग्रेजी अफसरों ने खोज करने के उपरांत स्मारक न एक में दो पत्थर की पेटी पाई गई थी तब उन्हें खोलने पर भगवान बुद्ध के परम शिष्यों सारिपुत्र महामोदग्लाइन की पावन आस्तियां निकली तब उन अफसरों ने अनेक कलाकृतियां व पावन धातुओं को विदेश लेजाकर अलवर्ड विक्टोरिया अजायबघर में सुरक्षित रख लिया था ।तब स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रयास से इन अस्थियों को वापस स्वदेश लाया गया ।
पवित्र अस्थियों को सुरक्षित रखने नवाब भोपाल ने कराई जमीन उपलब्ध।
जब पवित्र अस्थियों को भारत लाया गया तब इन्हें रखने की योजनाएं तैयार की जाने लगी तब सांची नवाब भोपाल की रियासत में हुआ करता था नेहरू जी के अनुरोध पर तथा भंते प्रज्ञा तिस्सा थैरो के अनुरोध पर भोपाल नवाब ने स्मारकों के समीप ही बौद्ध मंदिर के निर्माण के लिए भूमि उपलब्ध कराई तथा मंदिर निर्माण के लिए 25 हजार रुपए की राशि भी उपलब्ध कराई गई तथा बौद्ध निर्माण की आधारशिला रखी गई ।जब बौद्ध मंदिर बनकर तैयार हो गया तब पंडित नेहरू स्वयं विशेष रूप से पावन धातुओं को 1952 में लेकर सांची पहुंचे ।तब पावन धातुओं की अगुवाई में सांची रेलवे स्टेशन पर तब भारत के उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन डॉ शंकर दयाल शर्मा तथा सिक्किम के महाराज कुमार एवं अनेक देशों के राजदूत मौजूद थे ।तब पवित्र अस्थियों को सुरक्षा व्यवस्था के बीच नवनिर्मित बौद्ध मंदिर ले जाया गया तथा पवित्र अस्थियों की पूजा अर्चना कर जनता के दर्शनार्थ रखा गया तब से ही इन पावन धातुओं को नवं माह के अंतिम रविवार को जनता के दर्शनार्थ रखा जाता है तथा तब से ही यह वार्षिकोत्सव के रूप में मनाया जाता है। अब 70 वें वार्षिकोत्सव की तैयारियां महाबोधि सोसायटी आफ श्रीलंका द्वारा शुरू कर दी गई है इस वार्षिकोत्सव में विशेष रूप से पूज्य संघनायक वानगल उपतिस्स नायक थैरो अध्यक्ष श्रीलंका महाबोधि सोसायटी बिहाराधिपति चैत्यगिरि सांची मुख्य संघनायक लंका जी मंदिर जापान विशेष रूप से उपस्थित रहते हैं तथा इस वार्षिकोत्सव की सभी व्यवस्थाएं वह तैयारी सांची महाबोधि सोसायटी आफ श्रीलंका के प्रमुख भंते वानगल विमलतिस्स थैरो द्वारा की जाती है ।