सुरेन्द्र जैन
सन्त शिरोमणी आचार्यश्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज ने सप्त व्यसनों के त्याग पर अपनी मंगल देशना में कहा कि आचरण ही सुगति ओर आचरण ही दुर्गति का कारण होते हैं।
रहली पटनागंज में विराजमान आचार्यश्री ने कहा कि जैन धर्म चारित्र प्रधान धर्म है जो धर्माराधना के साथ साथ आत्मा को संसार की मोह , माया, के त्याग के साथ साथ आचरण की शुद्धता पर जोर देता है । आचरण ही सुगति का कारण है और आचरण ही दुर्गति का । आचरण में यदि सद् उपसर्ग लगा दें तो सदाचरण बन जाता है और दुः या दूर् उपसर्ग लगा दें तो दुराचरण बन जाता है । सदाचार में सुख , शान्ति और कल्याण निहित है जबकी दुराचार कुगति के साथ साथ असंख्य दुःखों का जन्मदाता पापाचार है इसीलिये जैनाचार्यों ने आचरण की शुद्धता हेतु पुरुषार्थ की प्रेरणा दी। आचरण की पवित्रता के बिना कल्याण संभव नहीं । किसी कवि ने इस संदर्भ में लिखा है – आचरण तुम्हारा शुद्ध नहीं , कल्याण तुम्हारा कैसे हो ?
अर्थात् यदि तुम्हारा आचरण शुद्ध नहीं है तो तुम्हारा कल्याण कैसे हो सकता है ? जिनका जीवन शुद्ध तथा सात्विक विचारों से सम्पन्न है वह सदाचारी कहलाता है जबकी जो बुरा आचरण करता है वह दुराचारी है । दुराचारी के कार्य को व्यसन या बुरी आदत कहा जाता है । ये बुरी आदतें मनुष्य को कल्याण पथ पर अग्रसर होने नहीं देती , धर्मभ्रष्ट करती हैं तथासंसार परिभ्रमण का कारण बनतीं हैं । ऐसी बुरी आदतें प्रमुख रूप से सात बताई गईं हैं , जिन्हें सप्त व्यसन कहा गया है । जुआ खेलना, मांस खाना , मद्द्य सेवन करना, वैश्या सेवन करना , चोरी करना , शिकार खेलना , और परस्त्री की अभिलाशा , ये सात व्यसन हैं ।
ये सात व्यसन जीव के लिये निरंतर दुःखदायी, पाप के कारण तथा कुगति को ले जाने वाले हैं । अतः इन सात व्यसनों का त्याग अवश्य करना चाहिए । इन व्यसनों के त्याग के लिये भावों को भी वैसा बनाना चाहिये । क्योंकि जब किसी व्यक्ति के मन में ऐसे भाव या विचार बनते हैं वैसा ही कर्य करने के लिये वह चल पडता है अतः इन सात व्यसनों को मन में से ही निकाल देना चहिए ।
भावों से ही स्वर्ग लहूं , भावों से नरक लहाये ।
भावों से ही कर्म करें , भावों से शिव पाये ॥