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अयोध्या में राम मंदिर वहीं बनना जरूरी था, जहां पहले था

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इंदौर। श्रीरामोत्सव सबके राम के पंचम सत्र में आधुनिक संदर्भ में रामराज्य विषय पर पैनल चर्चा हुई। इसमें पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, पत्रिका वीणा के संपादक राकेश शर्मा, आइएमएस के पूर्व निदेशक डा. पीएन मिश्रा और श्रीरामचरित के जानकार आचार्य पिंगलेश कचौले ने अपने-अपने ढंग से श्रीराम को समझाया। वक्ताओं ने कहा श्रीराम के गुणों को व्यवहार में लाने की जरूरत है। सभी विद्वानों से नईदुनिया के ईश्वर शर्मा ने प्रश्नोत्तर किए।

यह पूछने पर कि भारत को स्वतंत्रता मिलने के बावजूद श्रीराम का मंदिर बनने में 75 वर्ष की देरी हो गई, इसके लिए कौन दोषी हैं? इस पर पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने कहा- प्रजातंत्र में कई बार देर से निर्णय होते हैं। सबको मनाना पड़ता है। सब जानते हैं कि राम के लिए आंदोलन में देशभर के लोग खड़े हुए थे। रामराज सिर्फ कानून बनाने से नहीं आता, जन-जन को नियमों का पालन करना होता है।

श्रीराम जन-जन के मन में हैं। उन्हें किसी की मान्यता की आवश्यकता नहीं। कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव में न जाने के प्रश्न के उत्तर में वे बोलीं- प्राण प्रतिष्ठा में दो-चार लोग न जाएं, यह कोई विशेष बात नहीं है। एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि भगवान राम को भारत से अलग के प्रयास हुए, लेकिन ऐसा कोई नहीं कर सकता।

साहित्यिक पत्रिका वीणा के संपादक राकेश शर्मा ने कहा कि बीते 60-70 वर्ष में सत्ता के षड्यंत्रकारी समर्थन से साहित्य में राम को भुलाने की कोशिश की गई। राम पर लिखने वालों को दरकिनार किया और राम के विरुद्ध लिखने वालों को पद व प्रतिष्ठा दी गई। किंतु अब समय बदल रहा है। इस प्रश्न के उत्तर में कि क्या हमारा पुरातन विज्ञान आज से ज्यादा उन्नत था, उन्होंने कहा- जब हमारे पूर्वजों के गले पर खंजर रखा था और वे प्राण बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब अनुसंधान और शोध कैसे करते?

यही कारण है कि ज्ञान होने के बावजूद हम पिछड़ गए और हमारी अनेक विद्याएं विलुप्त हो गईं। यह कहना गलत है कि सनातन संस्कृति केवल 5000 वर्ष पुरानी है। पांच हजार वर्ष पहले तो श्री राम वेदों का अध्ययन कर रहे थे अर्थात वेद तो उससे भी पहले से हैं।

संस्कृतज्ञ व रामचरित के जानकार आचार्य पिंगलेश कचौले ने कहा कि संस्कृत को देवभाषा कहा जाता है, इसलिए यह सारगर्भित भाषा बनी। इसमें विस्तृत बातें भी संक्षिप्त में समग्रता के साथ कही जा सकती हैं। ऐसे श्लोक भी हैं, जिनमें एक श्लोक में संपूर्ण रामायण आ जाती है। संस्कृत साहित्य में पग-पग पर राम की चर्चा है।

आज श्रीराम के चरित्र को 200 देश गा रहे हैं व उनके चरित से प्रेरित हैं। आज जो लोग उत्तर व दक्षिण भारत को तोड़ने की बात कहते हैं, वे क्या यह नहीं जानते कि राम ने पूरे भारत को ही नहीं बल्कि अन्य देशों को भी आपस में जोड़ रखा है। वस्तुत: श्रीराम सार्वभौमिक हैं। वे किसी देश, प्रदेश या क्षेत्र विशेष के नहीं।

विषय प्रवर्तन करते हुए साहित्यिक पत्रिका वीणा के संपादक राकेश शर्मा ने कहा- यदि आज भारतवर्ष है, तो रामजी की कृपा से ही है। राम के चरित व लीला की व्याख्या कहां से आरंभ करें और कहां उसे विश्राम दें, यह सहज संभव नहीं। रामजी का तो चरित्र ही अपने आप में काव्य है। जब कैकेयी ने राजा दशरथ से दो वर में भरत को राज व राम को वनवास मांगा, तो श्रीराम ने भी यही कहा कि मेरे प्राणप्रिय भरत को राज मिले, यह मेरी भी इच्छा है।

श्रीराम जैसा आदर्श आज तक धरा पर अवतरित नहीं हुआ। जो राम का हो जाता है, राम भी उसके हो जाते हैं। राम सबके ही नहीं हैं बल्कि राम सबमें भी हैं। भजन गंगा में लगाई डुबकी पंचम निषाद संगीत संस्थान के गायक कलाकारों ने पंच तत्व की भांति पांच भजन का पंच पल्लव श्रीराम के चरणों में अर्पित किया। लगा कि यह सभागृह नहीं बल्कि अवधपुरी की गलियां हैं।

भारत के प्राणों में बसा श्रीराम का चरित विषय पर भारतीय संस्कृति के अध्येता व वेदों के विद्वान डा. मुरलीधर चांदनीवाला ने कहा- भारत में साहित्य, संगीत, कला है और इन सबमें राम हैं। जो राम को नहीं जानता, वह निरा पशु ही है। जब रामरक्षा स्रोत पढ़ा जाता है, तो उसमें अखंड भारत का नक्शा नजर आता है। भारत का यदि सीना चीरा जाए, तो उसमें श्रीराम ही नजर आएंगे। श्रीराम किसी एक संप्रदाय के नहीं बल्कि सब संप्रदाय के हैं। श्रीराम शबरी के भी हैं, केवट के भी।

राम की व्याख्या के लिए किसी शास्त्र की आवश्यकता नहीं क्योंकि वे तो सरल, सहज हैं। श्रीराम का अपना कोई नीति शास्त्र नहीं, बल्कि श्रीराम का चरित अपने आप में नीति है। श्रीराम ने अपने नियम स्वयं बनाए और उनमें बंधे भी रहे। उन्होंने उपदेश नहीं दिया बल्कि चरित्र दिया है। किसी राजा ने संवत चलाया, किसी ने अपना धर्म, लेकिन राजा राम ने तो केवल अपना चरित्र ही चलाया। इसलिए आज जो मंदिर अयोध्या में बना है वह ईंट, पत्थर, गारे का नहीं बल्कि जन-जन की आस्था व आकांक्षाओं का मंदिर है।

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