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स्व सहायता समूह महिलाओं को स्वावलंबी बनाने की दिशा में एक सार्थक पहल है – माधुरी कुमावत बैंक सखी

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सुनील सोन्हिया द्वारा लिया गया साक्षात्कार
पाचोरा (जलगांव)।विगत कुछ वर्षों में देखा जाए तो स्व सहायता समूह बनाने में महिलाएँ बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं जिससे समाज में उनकी स्थिति में सकारात्मक बदलाव देखने को मिल रहा है।
स्वयं सहायता समूहों के सदस्य अपने नियमित बचत से एक कोष बना लेते हैं और उस कोष का उपयोग आपातकालीन स्थिति में अपने सामूहिक उद्देश्य के कार्य हेतु करते हैं।
स्वयं सहायता समूह अपने कोष के पैसे से ग्रामीण आधारित सूक्ष्म या लघु उद्योग की शुरूआत भी करते हैं जिससे रोजगार के नये अवसर सृजित होते हैं। यह कहना है बैंक सखी माधुरी कुमावत का जो वर्तमान में सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया शाखा पाचोरा में ग्रामीण जीवन उन्नति अभियान उमेद योजना के तहत स्व सहायता समूह को बैंकिंग क्षेत्र में खाता खुलवाने, ऋण दिलवाने में सहयोग प्रदान करती हैं वहीं बैंक को स्व सहायता समूह से वसूली में भी मदद प्रदान करती हैं माधुरी बताती हैं कि भारत में लगभग एक करोड़ स्व सहायता समूह सक्रिय हैं जिनसे लगभग 10करोड़ लोग जुड़े हुए हैं इन समूहों में 90प्रतिशत स्व सहायता समूह महिलाओं के हैं
माधुरी ने स्व सहायता समूह की शुरुआत के बारे में बताया कि
बांग्लादेश में 1970 के दशक के दौरान गरीब और समाज के निम्न तबके के लोगों के जीवन में आर्थिक समस्याओं के समाधान हेतु ‘स्वयं सहायता समूह’ की अवधारणा को ‘बांग्लादेश ग्रामीण बैंक’ के रूप में जीवंत रूप प्रदान करने वाले नोबल पुरस्कार विजेता प्रो. मोहम्मद यूनुस का योगदान अविस्मरणीय है। आज भी ‘स्वयं सहायता समूह’ बहुत प्रासंगिक है। इन समूहों के माध्यम से सभी सदस्य अपनी सामूहिक बचत निधि से जरूरतमंद सदस्य को न्यूनतम ब्याज दर पर ऋण प्रदान करते हैं जिससे वह सदस्य स्थानीय आर्थिक गतिविधियों के माध्यम से आजीविका उपार्जन हेतु अपनी उद्यमशीलता को आकार प्रदान करता है।
विकासशील देशों के लिए स्वयं सहायता समूह जमीनी-स्तर पर जनसामान्य के आर्थिक सशक्तिकरण का एक प्रमुख माध्यम है। वहीं दूसरी ओर इस अवधारणा को न केवल सामान्य लोगों द्वारा अपनाया जाता है बल्कि दुनिया भर की सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएँ भी स्वयं सहायता समूह के महत्त्व को बखूबी समझती हैं।
स्वयं सहायता समूह का लक्ष्य गरीब लोगों के बीच नेतृत्व क्षमता का विकास करना स्कूली शिक्षा में योगदान करना।पोषण में सुधार करना तथा जन्म द र में नियंत्रण करनाहै।


कई स्वयं सहायता समूह नाबार्ड की सेल्फ हेल्प ग्रुप्स बैंक लिंकेज कार्यक्रम की तरह बैंकों से उधार लेते हैं, इस मॉडल ने सेवाओं को गरीब जनसंख्या तक पहुँचाने का कार्य किया है।
नाबार्ड का अनुमान है कि भारत में 2.2 मिलियन स्वयं सहायता समूह है, जो 33 मिलियन सदस्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
महिला स्वयं सहायता समूहों द्वारा उत्पादित विभिन्न खाद्य पदार्थों जैसे अचार, पापड़, बड़ी, दलिया, आटा, अगरबत्ती, मुरब्बा इत्यादि की सुगम उपलब्धता से महिलाओं व बच्चों के पोषण तथा विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है
भारत के विभिन्न राज्यों जैसे- छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना इत्यादि में महिला स्वयं सहायता समूह विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं
ग्रामीण स्तर पर देखें तो लोगों में स्व सहायता के प्रति जागरूकता की कमी है क्योंकि स्वयं सहायता समूहों में काम करने वाले लोग अधिकतर अशिक्षित होते हैं।
स्वयं सहायता समूह के कार्य
ग्रामीण क्षेत्रों में योग्य लोगों की कमी है। योग्यता की कमी होने के कारण इन स्वयं सहायता समूहों के सदस्यों को प्रशिक्षण ठीक से नहीं मिल पाता, इसके अलावा क्षमता निर्माण और कौशल प्रशिक्षण के लिए संस्थागत तंत्र का अभाव है।
स्वयं सहायता समूह, गैर सरकारी संस्थाओं और सरकारी एजेंसियों पर बहुत अधिक निर्भर है, जैसे ही इन संस्थाओं द्वारा अपना समर्थन वापस लिया जाता है वैसे ही इनका पतन हो जाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों की कमी होने के कारण, स्वयं सहायता समूहों के द्वारा तैयार माल को बाजार तक पहुँचाने में कठिनाई होती है।फिर भी शासन द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों के तहत स्व सहायता समूह प्रगति के पथ पर निरंतर अग्रसर हैं

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