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राइट क्लिक’-यह कैसा समाज गढ़ रहे हैं सोशल मीडिया के रणवीर ? -अजय बोकिल

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आलेख
अजय बोकिल

जाने-माने यू ट्यूबर और सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर रणवीर इलाहाबादिया तथा एक और इंफ्लूएएंसर समय रैना को उनके विवादित शो ‘इंडिया गाॅट लेटेंट’ में अश्लील टिप्पणी के लिए व्यापक आलोचना और कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है। शो में अश्लील और अभद्र भाषा व भाव के चलते मचे देशव्यापी बवाल के बाद रणवीर ने अपने किए पर माफी मांग ली है, लेकिन उसमें भी पश्चाताप के भाव से ज्यादा सोशल मीडिया पर फाॅलोअर घटने का भय ज्यादा है। रणवीर का यह एपीसोड भारत सरकार द्वारा यू ट्यूब को की गई शिकायत के बाद हटा लिया गया है, लेकिन मामला यहीं खत्म नहीं होता बल्कि शुरू होता है। चाहे रणवीर अहलाबादिया हो, समय रैना हो या फिर उनकी सहयोगी अपूर्वा माखीजा हो, ये सभी उस आयु वर्ग के हैं, जो अंगरेजी में ‘जनरेशन जेड’ कहलाती है। यह पीढ़ी इंटरनेट के साथ जन्मी और सोशल मीडिया के साथ जवान हुई। इस पीढ़ी के सामाजिक और नैतिक मूल्य तथा सामाजिक संस्कार वो नहीं हैं, जिसे बीसवीं सदी के आखिरी चौथाई की शुरूआत तक जन्मी पीढ़ी स्वीकार करती आई है। रणवीर का एक विवादित एपीसोड भले ही यू ट्यूब से हटा लिया गया हो, लेकिन ऐसे और कई शो और चैनल धड़ल्ले से प्रसारित किए और लाखों की संख्या में देखे जा रहे हैं, जो परंपरावादी भारतीयों को शर्मसार करने और आत्मग्लानि का कारण हो सकते हैं। मां बाप के अंतरंग सम्बन्धों को लेकर शो में रणवीर ने जो अश्लील टिप्पणी जिस सहजता और मजाकिया अंदाज में की और जिसे सुनकर वहां बैठे युवा जज जिस तरह खी खी कर हंसते रहे, वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत की युवा पीढ़ी के लिए सामाजिक मर्यादा, शालीनता और संस्कारों का अर्थ क्या है? शील और अश्लील की उनकी परिभाषा क्या है? खुलेपन और नंगई के बीच सूक्ष्म भेद के मानी क्या हैं? वो आने वाले दशको के लिए कैसा समाज गढ़ रहे हैं? जिनके लिए शिष्टता, सार्वजनिक मर्यादा और भाषा की लक्ष्मण रेखा का कोई अर्थ नहीं है बशर्ते की वह मनोरंजन करे। उससे व्यूज और लाइक्स मिलें। इंफ्लूएंसर्स की जेब भरे। आज चालीस से ऊपर आयु वालों के लिए यह वाकई ‘न्यू नाॅर्मल’ हैं, जो भारतीय संस्कृति में माता-पिता देवो भव का पाठ पढ़ते और इस संस्कार को निभाते आए हैं। इसमे अति आदर्शवाद हो सकता है, लेकिन वो हमारे जीवन मूल्यों का सार भी है।


आज सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों पर अपवादस्वरूप कुछ काम की सामग्री छोड़ दें तो ऐसे कंटेंट की भरमार है, जो कब आदमी को शैतान बना दे, कब उसे उसके पारंपरिक मूल्यों से डिगा दे, कब सामाजिक शिष्टाचार को धता बता कर मनमर्जी से एंज्वाॅय करने दे, कहा नहीं जा सकता। आज के युवा आपस में जिस भाषा, संकेतों और मुद्राअों में बात करते हैं, वह हमारी पारंपरिक मान्यताअोंसे काफी अलग और हैरान करने वाला है। इसका अर्थ यह नहीं कि भाषा के स्तर पर अवभाषा या बाजारू तथा अश्लील शब्दों से भरी अभिव्यक्ति कोई नई चीज है। लेकिन समाज ने अपने विवेक से शिष्टता और शालीनता की भी एक सफेद लक्ष्मण रेखा खींची हुई है, जो देश काल की सीमाअों से परे समूचे मानव समाज में मान्य रही है। इसीलिए गालियां भाषा का सहज हिस्सा होते हुए भी संस्कारित संभाषण का भाग कभी नहीं होतीं। कोई ऐसा करता भी है तो उसे सम्मान के भाव नहीं देखा जाता। लेकिन अब जिस तरह काॅमेडी शो व्यूअर्स बटोरने के लिए सोशल मीडिया पर अपलोड हो रहे हैं, वो गालियों को ही सभ्य समाज की मान्य और व्यवहार भाषा में बदलने का अट्टहास लिए हुए हैं। ज्यादातर युवा इसमें कुछ भी गैर नहीं देखते। यह अपने आप में खतरनाक सिग्नल है।


अगर ‘इंडिया गाॅट लेटेंट’ शो की ही बात करें तो इसका नाम ही बहुत चालाक अश्लीलता से भरा है। हिंदी में जाहिरा तौर पर इसका अर्थ ‘भारत को ‍िमला अव्यक्त’ होगा, लेकिन यहां अव्यक्त से तात्पर्य केवल भाव से नहीं बल्कि उस ‘गुप्त’ से है, जिसका इशारा उन मानव अंगो से है, जिनका सार्वजनिक उच्चारण और उनसे जुड़ी गालियों का प्रयोग भी बेहद निजी संवाद या समवयस्क मित्र मंडली के बीच ही किया जाता है। जब शो का अव्यक्त भाव ही अश्लील है तो उसमें शील और शालीन की अपेक्षा करना बेमानी है। लेकिन आश्चर्य कि सोशल मीडिया पर ऐसे शो देखने और उसे भरपूर एंज्वाॅय करने वालों की तादाद लाखों में है। इसमें ज्यादा युवा पीढ़ी के वो लोग हैं, जिन पर भावी भारत का समाज गढ़ने की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है। यह हकीकत है कि स्त्री-पुरूष के संसर्ग से ही संतान का जन्म होता है। लेकिन यह एक भौतिक सचाई है। सामाजिक मर्यादा में वो स्त्री-पुरूष मां-बाप होते हैं, जो प्रजनन के नैसर्गिक दायित्व के साथ साथ सामाजिक और नैतिक दायित्वों को भी निष्ठा के साथ निभाते हैं। ‍मानव सभ्यता और संस्कृति का अवदान अगली पीढ़ी को सौंपते हैं। परिवार संस्था को जिंदा रखते हैं। मां-बाप का यह शारीरिक सम्बन्ध केवल किसी जोक के लिए अथवा अपने इस अंतरंग रिश्ते को संतान के समक्ष अनावृत्त करने के लिए नहीं होता। वास्तव में यह ऐसा नैसर्गिक सत्य है, जो माता-पिता के रूप में मनुष्य के जन्मदाता के पवित्र आवरण में छिपा रहता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में माता-पिता को ईश्वर के समकक्ष माना गया है। रणवीर की मां-बाप के अंतरंग रिश्तों पर की गई अत्यंत अभद्र और आपबराधिक टिप्पणी पर उनके माता-पिता की प्रतिक्रिया अभी सामने नहीं आई है, लेकिन तय है कि कम से कम एक बार उन्होंने अपने बेटे में डाले संस्कारों पर पुनर्विचार तो किया ही होगा या कि उन्हें करना चाहिए।
इसे दुर्भाग्य कहें या नियति का चक्र कि आज समाज उस दिशा में जा रहा है, जहां पारंपरिक मूल्यों की परिभाषा बदली जा रही है। इसका अर्थ यह नहीं कि सामाजिक मूल्य सदा एक से रहते हैं या रहने ही चाहिए, लेकिन ‍शील-अश्लील, शिष्टता-अशिष्टता, हास्य और अभद्रता, नग्नता और आंख के पर्दे का झीना अंतर भी मनमर्जी से जीने के दुराग्रह से खत्म करने का सुनियोजित वैश्विक षड्यंत्र किया जा रहा है। सोशल मीडिया उसीका कारगर हथियार है। कुछ भाषा विज्ञानियों का मानना है कि गालियां अथवा बाजारू भाषा मानवीय अभिव्यक्ति का सहज रूप है। बावजूद इसके उसे उस सभ्य समाज का ‍हिस्सा कैसे बनाया जा सकता है, जिसने खुद सभ्यता और शालीनता के कुछ पैमाने तय किए हैं? और यही गालियोंयुक्त भाषा, तेवर और देहबोली अगर सभ्यता का परिचायक बन गई तो सभ्य समाज की परिभाषा क्या होगी? क्या आने वाला वक्त केवल उपभोक्ताअोंऔर वर्जनाअों को भंग करने में आनंद मानने वाले लोगों का होगा? जिनके लिए जितनी ज्यादा गालियां, उतने ज्यादा व्यूज और लाइक्स ही जीवन का अंतिम सत्य है और होगा। उनकी चिंता यह नहीं है कि वो किस तरह के अराजक और वर्जनाविहीन उन्मुक्त समाज को बढ़ावा दे रहे हैं, बल्कि यह है कि वो ऐसा कुछ भी दिखाने से बचें जिससे उनकी कमाई घटे। कुछ समय पहले देश के काॅमेडियन अपनी विवादित राजनीतिक टिप्पण्णियों के कारण परंपरावादियों के निशाने पर थे, लेकिन अब बात उससे कहीं आगे बढ़ चुकी है। सामाजिक बुराइयां टूटें यह तो समझ आता है, क्योंकि उसके पीछे एक निश्चित तर्क और विवेक का आग्रह होता है, लेकिन जननांगों पर बेहूदा सार्वजनिक जोक, साॅफ्ट पोर्न पर अभिजात्य चर्चा (जैसे कि गहना वशिष्ठ के ‘ गहना शो’ में होता है) या फिर चाइल्ड पोर्न को वर्जनाअो को तोड़ना और समाज को ऐसे खुले आसमान में बदलने की ‍िजद पूरे समाज को रसातल में ही ले जाएगी, ले जा रही है। सामाजिक वर्जनाअों को तोड़ने का अर्थ संस्कारों से मुक्ति पाना नहीं है। चिंता की बात यह है कि आने वाली युवा पीढ़ी रसातल के रास्ते को ही उन्मुक्त आंनद के स्वर्ग में जाने की सीढ़ी मानकर मदहोश है। इसका क्या इलाज है, जरा सोचिए।

– लेखक ‘सुबह सवेरे’ के कार्यकारी प्रधान संपादक हे।

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