-बस एक बार हर कोई बनना चाहता है सरपंच
सुरेंद्र जैन धरसीवां
छत्तीसगढ़ में बैंसे तो धरसीवा विधानसभा ही अपने आप में बहुत खास है क्योंकि यहां की जो खासियत है वो कहीं ओर नहीं लेकिन अभी बात कर रहे हम ग्राम पंचायतों के चुनावों की तो धरसीवा विधानसभा में औद्योगिक क्षेत्र से लगी करीब दर्जनभर ग्राम पंचायतों को सोने की खान माना जाता है और मानें भी क्यों नहीं इन पंचायतों में अब तक जो भी सरपंच बने उनके दिन फिर गए यह बात अलग है कि गांव आज भी अपने दिन फिरने के इंतजार में हैं।
धरसीवा विधानसभा में औद्योगिक क्षेत्र सिलतरा देश के सबसे बड़ी स्पंज आयरन उधोग मंडी में शुमार रखती है इस औद्योगिक क्षेत्र की ग्राम पंचायत सांकरा सिलतरा मांढर मेरठी चरोदा धरसीवां टाडा बहेसर सोडरा गिरौद धनेली आदि ग्राम पंचायतों के आसपास बड़ी संख्या में छोटी बड़ी औद्योगिक इकाइयां मौजूद हैं जिनमें आसपास के ग्रामीणों के अलावा प्रदेश के दूरस्थ अंचलों और पड़ोसी राज्यों के हजारों लोग काम करते हैं इनमें कुछ पड़ोसी राज्यों के लोग अब यहां के मतदाता भी हैं लिहाजा औद्योगिक क्षेत्र की एक दो पंचायतों में उनकी निर्णायक भूमिका रहती है।
*सरपंचों के दिन फिरे लेकिन गांवों के नहीं*
औद्योगिक क्षेत्र से लगी ग्राम पंचायतों में कुछ पंचायतें ऐसी हैं जिनके अंतर्गत बड़ी बड़ी औद्योगिक इकाइयां आती हैं इन औद्योगिक इकाइयों से गांवों के विकास को आज तक कोई खास नहीं मिला यही कारण है कि गांवों की हालत खस्ता है जिन गांवों के किसानों की जमीन को अधिग्रहण कर करीब तीन दशक पहले औद्योगिक क्षेत्र की स्थापना हुई उन गांवों ओर उन गांवों के ग्रामीणों का भले ही कोई विकास न हुआ हो लेकिन जो भी सरपंच बने उनका समुचित विकास देखने को मिला है।
*धूल धुंआ ग्रामीणों के हिस्से में सीएसआर किनके हिस्से में*
औद्योगिक इकाइयों को अपने क्षेत्र के सामुदायिक विकास में भूमिका निभानी होती है लेकिन विकास के नाम पर यदि इस क्षेत्र के ग्रामीणों को कुछ मिला है तो वह है धूल धुंआ ओर तरह तरह की बीमारियां अब सवाल यह है कि ग्रामीणों के हिस्से में तो धूल धुंआ बीमारियां आ गई तो फिर सीएसआर किनके हिस्से में गया यह समझ से परे है
यहां यह जानना लाजमी होगा कि औद्योगिक इकाइयों को अपने सीएसआर फंड से क्षेत्र के गांवों का ग्रामीणों का विकास करना चाहिए जो औद्योगिकीकरण के तीन दशक बाद भी नहीं हुआ लेकिन औद्योगिक इकाइयों के कभी ग्राम पंचायतों से कोई काम हों तो वह रुकते नहीं हैं फटाफट होते हैं
औद्योगिक इकाइयों को क्षेत्र में अपनी आय की एक निश्चित राशि लगानी होती है लेकिन औद्योगिकीकरण के करीब डेढ़ दशक तक तो यूं माने कि किसी भी औद्योगिक इकाई ने इस क्षेत्र के गांवों ओर ग्रामीणों के सामुदायिक विकास की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया लेकिन डेढ़ दशक बाद जब समझदार ग्रामीणों की समझदारी का एहसास औद्योगिक इकाइयों को होने लगा तब से बीते कुछ सालों में कुछ औद्योगिक इकाइयों ने क्षेत्र के गांवों की सुध लेना शुरू किया है
क्षेत्र में स्थित हीरा ग्रुप की फेक्ट्रियों ने आसपास की पंचायतों में कुछ अच्छे कार्य कराए जो अनुकरणीय हैं हीरा ग्रुप की तरह महेंद्रा स्पंज ने भी गांवों की ओर ध्यान दिया है और जिस पंचायत क्षेत्र में उनकी फेक्ट्री है वहां कुछ अच्छे कार्य किए हैं यदि सभी औद्योगिक इकाइयों ने गांवों में हीरा ग्रुप की तरह स्वयं की टीम से विकास कार्य करवाए होते तो आज गांवों की तस्वीर ओर तकदीर बदल चुकी होती लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ
*विधानसभा चुनाव भी पीछे रहता है सरपंची के चुनाव में*
औद्योगिक क्षेत्र से लगी कुछ पंचायतों में जिस तरह प्रचार प्रसार मुर्गा मटन दारू नगदी का खेल गुप्त रूप से चलता हैं वह विधानसभा चुनाव को भी एक तरह से पीछे छोड़ देता है
बस एक बार किसी भी तरह औद्योगिक क्षेत्र से लगी ग्राम पंचायत का सरपंच बन जाऊं उसके बाद तो सारे दुख दर्द दूर हो जायेगे यह सपना अधिकांश ग्रामीण नेताओं का रहता है और वह पंचायत के चुनावी मैदान में कूदकर अपनी पूरी ताकत झोंक देते अब सरपंच तो एक ही बनेगा भले पानी की तरह पैसा दस बीस उम्मीदवारों ने ही क्यों न खर्च किया हो लेकिन खुशी एक ही चेहरे को नसीब होती है शेष हारकर मायूष होकर रह जाते हैं
*बड़ी औद्योगिक इकाइयों की महत्वपूर्ण भूमिका*
औद्योगिक क्षेत्र से लगी कुछ पंचायतों में सरपंच के चुनाव में पर्दे के पीछे कुछ औद्योगिक इकाइयों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि आसपास के गांवों की अधिकांश महिलाएं और पुरुष वर्ग फेक्ट्रियों में ही काम करते हैं सूत्रों की मानें तो कुछ औद्योगिबिकसोईयअब तक आसपास की पंचायतों में जो भी जीते हैं उनके संबंधी