एनडीटीवी के बारे में कल मैने जो टिप्पणी की ,उस पर अनेक मित्रों ने कहा कि इसमें रवीश कुमार का ज़िक्र होना चाहिए था । वे सच हो सकते हैं ,लेकिन मेरा मानना है कि किसी व्यक्ति का निर्माण करने वाली संस्था बड़ी होती है ।इसलिए चिंता इन संस्थाओं के क्षीण और दुर्बल होते जाने पर करनी चाहिए । कुछ संस्थान ऐसे भी हैं ,जो सत्ता समर्थक मीडिया की फसल उगा रहे हैं । अर्थ यह कि यदि कोई संस्था चाह ले तो वह लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का प्रतीक बन सकती है और ढेर सारे गिरि लाल जैन, राजेंद्र माथुर ,रघुवीर सहाय,धर्मवीर भारती, एसपी सिंह, विनोद दुआ,प्रभाष जोशी,अरुण शौरी से लेकर रवीश कुमार तक को रच सकती है । मैने स्वयं भी कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।मेरे पत्रकारिता संस्कारों की जब नींव पड़ रही थी तो उसमें राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, एसपी सिंह, प्रभाष जोशी ,रघुवीरसहाय और धर्मवीर भारती का बड़ा योगदान रहा । दूसरी ओर हम कुछ संस्थानों के प्रतीक पुरुषों को सत्ता प्रतिष्ठानों की जी हुजूरी करते पाते हैं ।वे अपने मातहत ऐसे ही पत्रकारों की पौध विकसित करते हैं ।यह दुर्भाग्यपूर्ण है।ऐसे तथाकथित पत्रकार पीआर या लाइजनिंग तो कर सकते हैं,लेकिन पत्रकारिता का कर्तव्य अलग है।
आपातकाल के बाद राजेंद्र माथुर के लिखे सात गंभीर मुद्दे याद आ रहे हैं ।भारतीय हिंदी पत्रकारिता का यह अदभुत दस्तावेज़ है और भारत में अधिनायकवाद पर अंकुश लगाता है ।माथुर जी तब नई दुनिया में संपादक थे और उनके प्रधान संपादक राहुल बारपुते थे । करोड़ों नागरिकों के दिलो दिमाग़ को मथने वाले सवाल राजेंद्र माथुर को भी झिंझोड़ते थे । उन दिनों बड़े नामी गिरामी पत्रकार व्यवस्था के आगे घुटने टेक चुके थे।लेकिन नई दुनिया ने ऐसा नहीं किया।उसके विज्ञापन बंद करने की नौबत आ गई ।लेकिन उस समय के प्रबंधन और प्रधान संपादक ने पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने का फ़ैसला किया।इस तरह राजेंद्र माथुर का वह अनमोल दस्तावेज़ सामने आया ।मैं अपनी पत्रकारिता के सफ़र में उस पड़ाव का साक्षी हूं ।
आगे बढ़ते हैं ।उन्नीस सौ तिरासी में बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र प्रेस बिल लाए ।एक बार फिर अभिव्यक्ति के प्रतीकों पर हमला हमने देखा । देश भर में हम लोग सड़कों पर आए ।तब टीवी से अधिक अख़बार प्रभावी थे । इंदिरागांधी जैसी ताकतवर नेत्री प्रधानमंत्री थीं। आपातकाल में सेंसरशिप के लिए खेद प्रकट कर चुकी थीं । उन्होंने सबक सीखा था। फिर इस देश के लोकतंत्र ने बिहार सरकार को निर्देश दिया कि प्रेस बिल वापस लिया जाए ।ऐसा ही हुआ ।संस्था ने पत्रकारिता को संरक्षण दिया था।इसके बाद उन्नीस सौ सतासी आया।तब तक देश में दूरदर्शन ज़ोरदार दस्तक दे चुका था । राजीव गांधी सरकार मानहानि विधेयक लाई ।एक बार फिर हम लोगों ने मोर्चा संभाला ।राजीव गांधी की सरकार को झुकना पड़ा ।विधेयक रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया ।आज तो संपादक प्रधानमंत्री के कदमों में बिछ बिछ जाते हैं ।उस समय पूरा पीएमओ राजेंद्र माथुर से विराट बहुमत वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी का साक्षात्कार लेने का आग्रह करता रहा ।लेकिन राजेंद्र माथुर नहीं गए ।उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को बता दिया कि पेशेवर कर्तव्य कहता है कि साक्षात्कार कोई संवाददाता लेगा अथवा संवाददाताओं की टीम का प्रमुख ।यह संपादक का काम नहीं है । ऐसा ही हुआ ।
इन्हीं दिनों दूरदर्शन अपनी निष्पक्षता की छटा बिखेर रहा था । एक उदाहरण उसका भी । विनोद दुआ तब एक कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे ।उसमें महत्वपूर्ण लोगों के साक्षात्कार दिखाए जाते थे । अशोक गहलोत नए नए केंद्रीय मंत्री बने थे । विनोद जी ने उन्हें बुलाया ।अशोक जी को अपने मंत्रालय के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं थी न ही उन्होंने तैयारी की थी ।परिणाम यह कि वे अधिकतर सवालों का उत्तर ही न दे सके ।रुआंसे हो गए । दूरदर्शन पर वैसा ही प्रसारण हुआ । अशोक जी की छबि पर प्रतिकूल असर पड़ा । कुछ राजनेता, मंत्री और सरकार के शुभचिंतक प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पास गए ।उनसे कहा कि एक बाहरी प्रस्तोता पत्रकार विनोद दुआ हमारे मंच, संसाधन और पैसे का उपयोग करता है और हमारे ही मंत्री का उपहास होता है । राजीव गांधी ने कहा, सवाल उपहास का नहीं है । मंत्री की काबिलियत का है । अगर किसी मंत्री को अपने मंत्रालय की जानकारी नहीं है तो वह कैसे देश भर का प्रशासन करेगा । अगले दिन अशोक गहलोत का इस्तीफ़ा हो गया । तो यहां संस्था दूरदर्शन और सरकार ,दोनों ही पत्रकारिता के अधिकार को संरक्षण दे रही थीं । क्या आज आप कल्पना कर सकते हैं ? इसी दौर में चुनाव परिणाम तीन चार दिन तक आते थे और दूरदर्शन उनका सजीव प्रसारण करता था । प्रणॉय रॉय और विनोद दुआ की जोड़ी सरकार के कामकाज और मंत्रियों पर ऐसी तीखी टिप्पणियां करती थी कि सत्ताधीश बिलबिला कर रह जाते थे । लेकिन कुछ नही करते थे ।स्वतंत्र पत्रकारिता का अर्थ यही था।
कितने उदाहरण गिनाऊं । भारत की पहली साप्ताहिक समाचार पत्रिका परख हम लोगों ने 1992 में शुरू की । विनोद दुआ ही उसके प्रस्तोता थे।मैं इस पत्रिका में विशेष संवाद दाता था । दूरदर्शन पर हर सप्ताह प्रसारित होने वाली यह पत्रिका करीब साढ़े तीन साल चली । मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से मेरी कम से कम पचास रिपोर्टें ऐसी थीं ,जिनसे केंद्र और राज्य सरकारें हिल जाती थीं । परंतु कोई रिपोर्ट न रोकी गई और न सेंसर हुई । हां पत्रकारिता की निष्पक्षता और संतुलन के धर्म का हमने हरदम पालन किया । तो संस्था और सरकार की ओर से कभी दिक्कत नहीं आई ।
इसके बाद सुरेंद्र प्रताप सिंह के नेतृत्व में आजतक शुरू हुआ । दूरदर्शन के मेट्रो चैनल पर । दूरदर्शन का नियम था कि प्रसारण से पूर्व एक बार आजतक का टेप देखा जाना चाहिए था । मगर एस पी की इतनी धमाकेदार प्रतिष्ठा थी कि कभी कोई अंक रोका नहीं गया और सरकार के साथ साथ समूचे तंत्र की विसंगतियों और खामियों पर हम लोग करारे हमले करते थे । हमारी नीयत में खोट नहीं था इसलिए सरकार और ब्यूरोक्रेसी ने कभी अड़ंगा नही लगाया । आज तो चुनाव आयोग ही कटघरे में है । हमने टी एन शेषन का दौर देखा है, जब प्रधानमंत्री से लेकर सारे मंत्री, मुख्यमंत्री और नौकरशाह थर थर कांपते थे । ऐसा तब होता है, जब हुकूमतें भी लोकतांत्रिक परंपराओं और सिद्धांतों का आदर करती हैं ।पर जब बागड़ ही खेत को खाने लग जाए तो कोई क्या करे ?
एक अंतिम उदाहरण । भारत का पहला स्वदेशी चैनल आजतक हम लोगों ने शुरू किया । तब एनडीए सरकार थी । चूंकि उपग्रह प्रसारण की अनुमति उस समय की सूचना प्रसारण मंत्री सुषमा स्वराज ने दी थी इसलिए कभी कभी सरकार की अपेक्षा होती थी कि संवेदनशील मामलों में हम सरकार का समर्थन करें ।पर ऐसा कभी नहीं हुआ । हमारी स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकारिता पर एस पी सिंह का प्रभाव बना रहा । जब भारत के पहले टीवी ट्रेवलॉग के तहत मैने अरुणाचल से लेकर कन्याकुमारी तक यात्रा की तो एनडीए के पक्ष में कोई फील गुड नहीं पाया ।मैने प्रसारण में साफ़ ऐलान कर दिया था कि सरकार जा रही है । उस समय सारे अख़बार और चैनल एन डी ए की वापसी करा रहे थे । आशय यह कि सच कहने, बोलने और लिखने की आज़ादी का स्वर्णकाल हमने देख लिया है। आज का दौर भी देख रहे हैं और यह भी गुजर जाएगा ।
–लेखक देश के ख्यात और वरिष्ठ पत्रकार है।