इंदौर । हिंदी को बेशक भारत में अभी तक राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला, लेकिन उसकी पहचान वैश्विक पटल पर है। हिंदी के सेवा करने वाले केवल हिंदी भाषी क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि गैर हिंदी भाषी क्षेत्र और यहां तक की विदेश में भी हैं। इनके प्रयास विश्व के माथे पर हिंदी की बिंदी सजाकर उसे और भी खास दर्जा दिलाने की है। पाश्चात्य में जहां हिंदी को लेकर उदासीनता है, वहां उसे ही हथियार बनाकर उसकी अहमियत और लोकप्रियता बढ़ाने का प्रयास हिंदी सेवक कर रहे हैं। इन दिनों शहर में भी हिंदी के सेवक आए हैं और विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में उन्होंने अपने अनुभव साझा किए। एक अमेरिका में हिंदी की अलख जगा रहा है तो दूसरा मारिशस में हिंदी को आधार बनाकर ज्ञान फैला रहा है।
108 हिंदी सेवकों को किया शामिल
2008 से अमेरिका में रह रही साहित्यकार डा. मीरा सिंह बताती हैं कि जब वे अमेरिका पहुंची तो वहां उन्हें यह महसूस हुआ कि हिंदी के विकास के लिए कार्य करना चाहिए। शुरुआत लेखन से की और वहां अपनी किताबें हिंदी में प्रकाशित कराई। 2018 में अंतरराष्ट्रीय हिंदी साहित्य प्रवाह संस्था की शुरुआत की, जिसमें 108 हिंदी सेवकों को शामिल किया। इसमें रचनाकार, प्राध्यापक और हिंदी शैक्षणिक संस्थानों के प्राचार्य भी शामिल हैं। संस्था द्वारा बच्चों और युवाओं को हिंदी के प्रति जागरूक बनाने के लिए सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं, जिसमें कहानियां, कविताएं, अभिनय आदि का समावेश होता है। हिंदी सिखाने के लिए उनके लिए कार्यशालाएं भी आयोजित की जाती हैं, ताकि वे भाषा के आधारभूत ज्ञान को जान सकें। मेरा मानना है कि हिंदी को बढ़ावा देने के लिए केवल बड़ों का हिंदी के विकास के लिए बात करना ही पर्याप्त नहीं।
स्वास्थ्य का ज्ञान हिंदी के द्वारा
2014 में मारीशस गए डा. ज्ञानेश्वर सिंह गुड्डोये हिंदी को ही हथियार बनाकर लोगों को स्वस्थ रहना सिखा रहे हैं। वे बताते हैं कि जब वे वहां गए तो उन्होंने यह पाया कि वहां की 85 प्रतिशत आबादी पूरी तरह स्वस्थ नहीं है। इसकी वजह लोगों का स्वास्थ्य के प्रति अल्पज्ञान है। उसे दूर करने के लिए हिंदी में ही समझाना शुरू किया, ताकि लोग हिंदी और शरीर दोनों को महत्व दें। मेरा मानना है कि हिंदी के बीजारोपण के लिए उसे रुचिकर और उपयोगी बनाना होगा। केवल किताबों तक ही हम हिंदी को सीमित नहीं रख सकते। जब उसे व्यवहारिक रूप में लाया जाता है तो उसके प्रति रुचि, उपयोगिता और सार्थकता तीनों ही बढ़ती है। व्यक्ति जब हिंदी को इस पहलू से अपनाता है, तो उसे सतत साथ रखता है। आरोग्यवान रहने की कार्यशालाएं भी हिंदी में ही आयोजित होती है और उससे संबंधित पोस्टर भी हिंदी में ही बनाकर जगह-जगह चस्पा किए जाते हैं और अब कई लोग हिंदी इसलिए सीख रहे हैं, ताकि वे स्वस्थ रहने की ओर कदम बढ़ा सकें।
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