दमोह से धीरज जॉनसन की रिपोर्ट
जिला मुख्यालय से करीब 54 किमी दूर पन्ना जिले की ओर जाने वाले मार्ग पर दिखाई देने वाला ग्राम सकौर तत्कालीन राजाओं की गाथा के साथ प्राचीन समय की कलाकृति,नक्काशीदार पत्थर और सपाट छत वाले मंदिर से परिचय देता है।।
कहते है कि यहां जमीन खोदने पर ईट और पत्थर निकलते है प्राचीन इमारतों का विध्वंस हो गया है एक मंदिर की कुछ टूटी फूटी मूर्तियां और एक वृहदाकार शिवलिंग के सिवाय और कुछ नहीं बचा, परन्तु ये थोड़े से चिन्ह भी सकौर का प्राचीन गौरव और महत्व प्रकाशित करते हैं।
पुस्तकों में वर्णन के अनुसार मंदिर जिसको सकौर में मढ़ा कहते हैं गुप्तकालीन ज्ञात होता है। गर्भगृह इसका प्रायः १० फुट लम्बा और ठीक उतना ही चौड़ा है। मंदिर की उंचाई भी लंबाई या चौड़ाई से कुछ कम है।
मंदिर की छत चपटी और दीवारें चित्र रहित हैं, परन्तु सफाई से कटे हुए पत्थरों की बनी हैं। थोड़ी सी कारीगरी जो पाई जाती है वह गर्भ के द्वार पर है।चौखट के मध्यभाग में एक अष्टभुजी देवी की मूर्ति है। उसके एक हाथ में डमरू है। देवी के दोनों ओर तीन-तीन स्त्रियों की मूरतें हैं । इस पंक्ति के ऊपर कुछ बेल- बूटे बने हैं, तिनके ऊपर सिंहमुखों की पंक्ति है। ये तीनों पंक्तियां चौखट की सीमा को लांघ कर दीवाल के अंतिम छोर तक चली गई हैं। देवी पंक्ति के नीचे कमलों के नक्शे बने हैं। चौखट के उभय पार्श्वो में तले ऊपर छह- छह स्त्रियों के चित्र बने हैं। तल स्थान में देहरी के पास उभय और एक- एक स्त्री की कुछ बड़ी मूर्ति बनी है। गर्भगृह के सामने एक छोटा सा मण्डप है। इन चिन्हों से ज्ञात होता है कि यह मंदिर खीष्टीय पांचवी शताब्दी के लगभग बना होगा।
कहते है कि इस गाँव के एक खेत की मिट्टी खोदने के समय सन् १९५४ मे २४ सुवर्ण मुद्राएं मिली थीं, जिनसे इस मंदिर का गुप्तकालीन होना और भी पुष्ट होता है। क्योंकि ८ मुहरों पर महाराजा समुद्रगुप्त और १५ पर द्वितीय चन्द्रगुप्त और एक में स्कन्दगुप्त का नाम ख़ुदा है। हर एक में देवी की वैसी ही मूर्ति है जैसी की मंदिर की चौखट पर हैं।
कदाचित सकौर भी उनके किसी वंशज का आनंद स्थान रहा हो और उन्होंने इस जगह अपनी इष्टदेवी का मढ़ा बनवाया हो । महाराज समुद्रगुप्त का राज्य चतुर्थ शताब्दी के अन्तिम अर्धभाग में रहा। द्वितीय चन्द्रगुप्त उनके पुत्र थे और स्कन्दगुप्त चन्द्रगुप्त के नाती थे। स्कन्द का समय ४५५ ई. में स्थिर किया गया है। यदि सकौर का मढ़ा सबसे पिछले राजा स्कन्दगुप्त के समय का ही समझा जाय तब भी वह १४५० बरस पुराना ठहरता है।
इस मढ़े में कोई लेख नहीं है केवल उसकी छत पर एक यात्री ने चौदहवीं शताब्दी में निम्नलिखित खोद दिया है। “संवत १३६१ समये सकैर ग्रमे पनमें कीतीते पसैड़ी”, इसका अर्थ स्पष्ट नहीं निकलता,परंतु ज्ञात होता है कि कोई पसैड़ी नामक अधपढ़ यात्री संस्कृत में ऐसा कुछ लिखना चाहता था कि-“संवत् १३६१ समये सकौर ग्रामे प्रणामं क्रियते” ।
न्यूज स्रोत:धीरज जॉनसन