हरीश मिश्र
म्यांमार की धरती कांप उठी… विध्वंस की आहट से हवा तक सिहर उठी… हर ओर अफरा-तफरी मच गई… भयभीत लोग चीखते-चिल्लाते हुए सुरक्षित स्थानों की ओर भागने लगे… भवन हिलने लगे… सड़कों पर बस चीखें गूंज रही थीं… जैसे मौत हर तरफ़ मंडरा रही हो… और इस बवंडर के बीच, एक शिशु अस्पताल में दो नर्सें अपने कर्तव्य निभा रही थीं।
वहां भर्ती नवजात शिशु अपनी नन्हीं-नन्हीं सांसों के सहारे जीवन से जूझ रहे थे। जैसे ही भूकंप आया, पालने बेतहाशा हिलने लगीं… कांच खड़खड़ाने लगे… छत से मिट्टी झरने लगी… दीवारें कांप उठीं… बाहर भगदड़ मची थी, लेकिन अंदर… वहां ममता का एक अनकहा संकल्प आकार ले रहा था।
डर और मौत के बीच, उन दोनों नर्सों को एक फैसला लेना था—अपने जीवन की सुरक्षा करें या इन मासूमों को बचाने के लिए खड़ी रहें ?
और फिर, जो हुआ, वह ममता की सबसे खूबसूरत तस्वीर बन गया।
दोनों नर्सें अपनी जान की परवाह किए बिना बच्चों को सुरक्षित करने में जुट गईं… उन्होंने हिलते हुए पालनों को थाम लिया… नन्हें शिशुओं को अपनी बाहों में भर लिया… कंपन तेज़ था, दीवारें चरमराने लगी थीं, लेकिन उनका संकल्प, उनकी संवेदना, उनका प्यार… इन सबसे कहीं अधिक मज़बूत था।
वे खुद कांप रही थीं, मगर बच्चों को थामे हुए स्थिर खड़ी थीं… जैसे कोई मां अपने बच्चे को बाहों में समेटकर आंधी-तूफान से बचाती है, वैसे ही वे अपनी ममता से इन मासूमों की ढाल बन गईं।
हर क्षण, हर झटके के साथ मौत और जिंदगी की जंग चल रही थी… लेकिन उन दोनों नर्सों के चेहरे पर डर की जगह एक अद्भुत स्नेह झलक रहा था—मानो वे खुद को नहीं, अपने आंचल में सहेजी गई उन नन्ही जान को जी रही हों।
कैसा भी मंजर आए, मां की शक्ति के सामने सब कुछ कमजोर पड़ जाता है… भूचाल से भी मां टकरा जाती है… झूले में लाल किसी का भी हो, मां की ममता का आशीर्वाद उसे अवश्य मिलता है।
भूकंप थमा, सब कुछ शांत हो गया, लेकिन इन दो नर्सों ने दुनिया को सिखा दिया कि “मां तो मां होती है, तेरी-मेरी कहां होती है।”
ये नर्सें पेशे से भले ही कर्मचारी थीं, लेकिन उस क्षण वे सिर्फ़ नर्स नहीं, मां थीं—हर उस बच्चे की, जो उनके सामने था। उनका धर्म, उनकी जाति, उनकी पहचान—सब मिट गईं। बचा तो सिर्फ़ ममत्व। मां जीती , मौत हार गई।