धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा| इसे इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है कि “धर्म की रक्षा करो, तुम स्वतः रक्षित हो जाओगे| इस एक पंक्ति “धर्मो रक्षति रक्षितः” में कितनी बातें कह दी गईं हैं इसे कोई स्वस्थ मष्तिष्क वाला व्यक्ति ही समझ सकता है| धर्म, जिसे लोग समुचित जानकारी के अभाव में अपनी-अपनी परिभाषाएं देकर समझने-समझाने का प्रयास-दुष्प्रयास करते हैं वास्तव में अत्यंत व्यापक और विशाल अर्थ को अपनेआप में समेटे हुए है| धर्म ही इस चराचर जगत एवं सम्पूर्ण जीवों के जीवन का मूल है| धर्म के बिना न इस सृष्टि की कल्पना की जा सकती है और न ही मानव जीवन की| धर्म के बिना ये विश्व श्रीहीन हो जायेगा| जिसमें न किसी प्राणशक्ति का वास होगा न किन्हीं पुण्यविचारों का|
धर्म के बारे में लोगों ने कई तरह की भ्रांतियाँ पाल रखी हैं और दूसरों को भी उसी हिसाब से दिग्भ्रमित करने में लगे रहते हैं| अतः धर्म को सही प्रकार से समझना सर्वप्रथम अतिआवश्यक है| तो चलिए सबसे पहले जानते हैं कि धर्म क्या है| हिन्दू धर्म के अनुसार – (१) परोपकार पुण्य है दूसरों को कष्ट देना पाप है (२) स्त्री आदरणीय है (३) पर्यावरण की रक्षा हमारी उच्च प्राथमिकता है (४) हिन्दू दृष्टि समतावादी एवं समन्वयवादी है (५) जीवमात्र की सेवा ही परमात्मा की सेवा है धर्म एक आधार है जिस पर मनुष्य के नैतिक एवं मानवीय गुण यथा दया, क्षमा, तप, त्याग, मनोबल, सत्यनिष्ठा, सुबुद्धि, शील, पराक्रम, नम्रता, कर्तव्यनिष्ठा, मर्यादा, सेवा, नैतिकता, विवेक, धैर्य इत्यादि पनपते हैं| धर्म की छत्रछाया में इन गुणों का सर्वांगीण विकास होता है| मनुष्य सिर्फ अपनी मानवाकृति के कारण मनुष्य नहीं कहलाता बल्कि अपने उपरोक्त गुणों से वास्तविक मनुष्य बनता है| मनुष्यों और पशुओं में अंतर शारीरिक नहीं है बल्कि पशुओं में ऊपर बताये गए मौलिक मानवीय गुणों में से कुछ का अभाव होता है| हाँ यहाँ ये भी कह देना आवश्यक है की पशुओं में कुछ वो गुण जरूर होते हैं जो आजकल के मनुष्यों में नहीं होते|
मौलिक मानवीय गुणों का सिर्फ होना ही आवश्यक नहीं है बल्कि उनकी निरंतर रक्षा भी होनी चाहिए| ये कार्य भी धर्म के सुरक्षा आवरण में रह के ही हो सकता है क्योंकि अनेक अवसरों पर ये देखा गया है कि परिस्थितियां विपरीत होने पर मनुष्य में मानवता का उत्तरोत्तर ह्रास होने लगता है| ऐसा क्यों होता है क्योंकि मनुष्य में धैर्य का अभाव होता है| काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर नामक षटरिपुओं के अधीन मानव केवल स्वयं के बारे में सोचना शुरू कर देता है| खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने का दर्प, ऊँचाई पर पहुँचने की तीव्र इच्छा मानव को दानव बना देती है| किसी से छीनी हुई वस्तु उसे लज्जित नहीं वरन गौरवान्वित करती है| किसी के आंसुओं का उसके लिए कोई मोल नहीं रह जाता| दया, व्यवसायिकता की आंधी में उड़ जाती है| किसी भी चीज को सही-गलत के हिसाब से देखने के बजाये मनुष्य उसे लाभ-हानि के दृष्टिकोण से देखने और समझने लगता है|
नर-नारी दोनों आज अपनी मर्यादा भूल के शर्मनाक आचरण कर रहे हैं| खुद को फैशनेबल दिखाने की होड़ लगी हुई है| आधुनिकता के नाम पर कैसे-कैसे नंगे नृत्य भारत में हो रहे हैं ये किसी से छिपा नहीं है| घातक नशीली वस्तुएं तो आजकल सर्वसुलभ हो चुकीं हैं| देर रात तक नाईट-क्लबों में बजनेवाले बेहूदा किस्म के घटिया गाने किसकी आनेवाली नस्लों को बर्बाद कर रहे है? किसी विदेशी की? बच्चे अपना बचपना तो कब के भूल चुके| दस से बारह साल तक आते-आते न वो सिर्फ “गर्लफ्रेंड” बनाने लगते हैं बल्कि आधुनिक अलादीन के चिराग “मोबाइल” पर ब्लू फ़िल्में भी देखने में लग जाते है| युवाओं ने तो जैसे कसम खा ली है कि अपनी छोड़ किसी की नहीं सुनेंगे| पैदा ही होते हैं इच्छित लड़की से विवाह करने के लिए| भले इसके लिए अपने माँ-बाप तक छोड़ना पड़े| यही बात युवतियों के साथ भी लागू होती है|