1977 में सत्ता के मद में लिप्त कांग्रेस ने लोकतंत्र को कुचलने के लिए आपातकाल घोषित किया था। तब के विपक्ष ( जनसंघ कायाकल्प कर बनी भाजपा ) ने सौगंध खाई थी… सत्ता मिलने पर पत्रकारों की आवाज़ दबाने की कोशिश नहीं करेंगे, लेकिन पिछले कुछ सालों में भाजपा के मंत्री, विधायक, सांसदों, सरकार से उपकृत आयोग अध्यक्ष, संगठन पदाधिकारियों की पत्रकार वार्ताओं में अघोषित आपातकाल की आहट सुनाई देती है।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो पत्रकारों के सवालों से भय-भीत हो जाते हैं । वे बच्चों के मुद्दों पर क्रोधित हो जाते हैं। प्रश्न टाल जाते हैं या प्रश्न करने पर प्रतिबंध लगाते हैं। मेरा मानना है, जब प्रश्न पूछने पर प्रतिबंध लगे तब तो जरूर पूछना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र के लिए अघोषित आपातकाल नहीं, प्रश्नकाल जरुरी है।
मैंने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो से कानून के दायरे में सवाल पूछा आप स्कूल, आंगनबाड़ी, ईंट भट्टों का औचक निरीक्षण क्यों नहीं करते ?
सवाल सहज था, लेकिन कठोर था । कठोर सवाल पूछे जाने पर तीखी बहस, जिम्मेदार की चुप्पी यह बताती है कि नैतिक मापदंडों का कितना पतन हुआ है।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष अपनी आंखों से यदि कानून की पट्टी उतारकर, व्ही आई पी सुविधा त्यागकर, कभी औचक निरीक्षण करें तो उन्हें चाचा नेहरु के आंगनबाड़ी के आंगन में बच्चों की किलकारियां सुनाई नहीं देंगी । स्कूलों में शिक्षक नदारद मिलेंगे और ईंट भट्टों, ढाबों पर बाल श्रमिक कार्य करते दिखाई देंगे।
जिम्मेदार से ही जवाबदेही की उम्मीद होती है। लेकिन इस युग में जिम्मेदार से जवाबदेही की उम्मीद नहीं की जा सकती । हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहां बैठकों में कठिन हालात में रहने वाले बच्चों की मैपिंग हो रही है, परिचर्चा में बचपन बचाने की चिंता है और लच्छेदार भाषण से बच्चे शोषण मुक्त हो रहे हैं।
जब सवाल बच्चों के भविष्य का हो , चुप रहने का सवाल ही नहीं उठता ? पत्रकार की चुप्पी,
लोकतंत्र की मौत है।
इसलिये लोकतंत्र बचाने के लिए पत्रकारों को प्रश्नकाल
स्थगित नहीं करना चाहिए।
पूछते रहिए निरंतर
सहज और कठोर सवाल।
यह जानते हुए भी
कि पूछना हो सकता है
संकट जनक । फिर भी पूछना चाहिए सवाल। क्योंकि सत्ता के मठों में विराजमान महामंडलेश्वर के पास जवाब नहीं है । प्रत्युत्तर में प्रति प्रश्न
उछाले जाते है कि तुम होते कौन हो पूछने वाले ? जी हां हम देश के वो पतंगें हैं जो ज़िम्मेदार से ज़िम्मेदारी से सवाल पूछते हैं और पूछते रहेंगे।
सवाल अधेड़ हो चुके भारत का नहीं बल्कि भारत के बचपन, किलकारियां और खुशियों का है, जो इस देश की धड़कन हैं। श्रीमान हम भारत के लोग सवाल करते हैं और करते रहेंगे, क्योंकि हम लोकतंत्र के मालिक हैं और सवाल करने की शक्ति हम भारत के लोगों को संविधान से मिली है।
लेखक- दैनिक दिव्य घोष
मासिक मूक माटी के संपादक है।