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मध्यप्रदेश चुनाव: शिवराज को टिकट देने से ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ रेस में नया ट्विस्ट-अजय बोकिल

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आलेख
अजय बोकिल

शिवराज के विधानसभा चुनाव जीतने पर कोई संदेह नहीं है। असल चिंता उनके और भाजपा, दोनों के चुनाव जीतने के बाद के परिदृश्य को लेकर है। इसकी एक वजह यह है कि शिवराज ने अपने और अपनी सरकार के प्रति नाराजगी के परसेप्शन को पोंछने के लिए जी तोड़ मेहनत की है।

मध्यप्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की औपचािरक घोषणा के कुछ ही घंटों बाद मप्र में भाजपा द्वारा जारी प्रत्याशियों की चौथी सूची में वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को टिकट देने से राज्य में ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ की अघोषित रेस में नया ट्विस्ट आ गया है। यानी भाजपा जीती तो शिवराज पांचवी बार सीएम बनने के प्रबल दावेदार होंगे और दूसरी सूची में शामिल कई सांसदों को विधानसभा चुनाव में उतारने के बाद संभावित नए मुख्यमंत्री को लेकर जारी अटकलों पर खुद ब खुद विराम लग जाएगा।

दरअसल भाजपा की चौथी सूची इस मायने में दिलचस्प है, क्योंकि इसमें भाजपा आलाकमान ने रत्तीभर भी रिस्क नहीं ली है, न ही कोई प्रयोग किया है। संकेत साफ है कि पार्टी अब और ज्यादा जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है। इसका कारण संभवत: उसे मिला जमीनी फीड बैक है कि यदि और ज्यादा रिस्की प्रयोग किए तो बाजी पूरी तरह हाथ से निकल सकती है।

यही कारण है कि जिस भाजपा आलाकमान ने गुजरात में ‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ तर्ज पर काम करके विधानसभा चुनाव में बम्पर जीत हासिल की थी, वही अब मप्र में बैक फुट पा आती दिख रही है।

दरअसल शिवराज को उनके निर्वाचन क्षेत्र बुधनी से फिर टिकट देने के कई राजनीतिक मायने हैं। यूं बतौर मुख्यमंत्री और बरसों से मप्र में भाजपा का चेहरा रहे शिवराज को टिकट देना जायज ही था, लेकिन इस बार उनके टिकट पर भी संशय के बादल इसलिए मंडराने लगे थे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से उनकी उपेक्षा शुरू कर दी थी। मुख्यमंत्री पद के फिर से दावेदार तो दूर मंच से उनका नाम तक लेना बंद कर दिया था। इससे यह संदेश जाने लगा था कि पार्टी शिवराज को किनारे करना चाहती है।


प्रदेश में सीएम पद को लेकर कई सारे नाम
इस अटकल को बल तब और मिला जब राज्य में मुख्यमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय जैसे नामों को भी विधानसभा चुनाव संग्राम में उतार दिया गया। इनमें कुछ ने तो सरेआम कह दिया कि पार्टी उन्हें ‘महज विधायक बनाने के लिए’ नहीं लड़वा रही है, तो दूसरे ने कहा कि चुनाव लड़ने का आदेश तो उनके ‘गुरू’ ने दिया है, जो कुछ ‘बड़ा’ करने के लिए है। आशय साफ था कि ऐसे चेहरों को टिकट यकीनन किसी भावी ‘बड़ी जिम्मेदारी’ के लिए दिया गया है, जो मंत्री पद तक ही महदूद नहीं है।

जहां तक भाजपा में मुख्यमंत्री बनने का अरमान पालने वालों का सवाल है तो चौथी सूची में भी डाॅ. नरोत्तम मिश्रा, गोपाल भार्गव और विजय शाह जैसे नाम हैं, जो बरसों से सीएम बनने की तमन्ना पाले हुए हैं और मंत्री रहकर ही संतोष का घूंट पी रहे हैं। लेकिन अब शिवराज सिंह चौहान के फिर चुनावी अखाड़े में उतरने से पहला ब्रेक तो तमाम ऐसे सीएम पदेच्छुक नेताओं के मन में लड्डू फूटने पर लग गया है।

शिवराज के विधानसभा चुनाव जीतने पर कोई संदेह ही नहीं है। असल चिंता उनके और भाजपा, दोनों के चुनाव जीतने के बाद के परिदृश्य को लेकर है। इसकी एक वजह यह है कि शिवराज ने अपने और अपनी सरकार के प्रति नाराजगी के परसेप्शन को पोंछने के लिए जी तोड़ मेहनत की है। बीते तीन माह में उन्होंने बेशुमार घोषणाओं, रेवड़ियों, उद्घाटनों, शिलान्यासों, सपने दिखाने और पब्लिक कनेक्ट के सभी पुराने रिकाॅर्ड ब्रेक कर दिए हैं। ‘जो मांगोगे, वही मिलेगा’ की तर्ज पर सरकारी खजाना लुटाने में भी उन्होंने कोई कोताही नहीं की।

मैं चुनाव लड़ूं कि नहीं?
यहां तक कि जनता से ही पूछ लिया कि ‘मैं चुनाव लड़ूं कि नहीं,’ यह जानते हुए भी कि जनता वोट भले देती हो, चुनाव का टिकट नहीं देती। अपने पुराने आजमाए हुए पब्लिक कनेक्ट फार्मूले में शिवराज ने अब रेवड़ियों का च्यवनप्राश भी मिला दिया है। यह नुस्खा मप्र. विधानसभा चुनाव में नई राजनीतिक टेस्टिंग है। अब इसका नतीजा जो भी हो, लेकिन शिवराज ने संकल्प और सहानुभूति का ऐसा राजनीतिक ब्लेंड तैयार कर दिया है कि लगता है मोदी- शाह शिवराज को कम से कम टिकट पाने से तो नहीं ही रोक सके।

मप्र में विधानसभा चुनाव में जनादेश क्या आता है, इसका ठीक-ठीक अंदाजा राजनीतिक धुरंधर भी नहीं लगा पा रहे हैं। अलबत्ता इतना तो मानना ही पड़ेगा कि इस हर्डल रेस में शुरू में पिछड़ने के बाद भाजपा वापस मुकाबले में तो लौट आई है। स्थिति और न बिगड़े शायद इसीलिए चौथी सूची में वही नाम हैं, जो 2018 के चुनाव में जीतकर आए थे

उधर कांग्रेस अभी भी यही मानकर आश्वस्त है कि जनता उसे जिताने के लिए तैयार बैठी है। रेवड़ियों का प्रसाद उसने भी रिजर्व में रखा हुआ है। कांग्रेस के प्रत्याशियों की सूची को लेकर अभी भी बैचेनी भरी उत्सुकता है। जिन्हें टिकट मिलने का कथित रूप से इशारा कर दिया गया है, वो इशारे के भरोसे ही प्रचार में लग गए हैं।
अब फिर सीएम रेस की बात

मान लीजिए कि यदि किसी तरह भाजपा फिर सत्ता में लौटी तो लाख टके का सवाल होगा कि ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री?‘चूंकि पार्टी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर चुनाव में उतर रही है, इसलिए जीत का पहला श्रेय उन्हीं को जाएगा। चूंकि वो प्रधानमंत्री हैं और साथ में मुख्यमंत्री बनने से रहे तो संभव है कि राज्य में उन्हीं की पसंद का कोई चेहरा सरकार की कमान संभाले। यहां पेंच यह है कि अगर भाजपा जीती तो वो सकारात्मक जनादेश तो शिवराज सरकार के काम पर ही होगा। ऐसे में शिवराज फिर सीएम पद के स्वाभाविक उम्मीदवार होंगे।
उत्तराखंड का उदाहरण
हम उत्तराखंड का उदाहरण लें तो वहां मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अपना चुनाव हार गए थे, लेकिन पार्टी जीत गई थी, लिहाजा जीत का श्रेय धामी और उनकी सरकार के काम को ही दिया गया। काम और जाति समीकरण के हिसाब से धामी को हार के बाद भी फिर से सीएम बना दिया गया। मप्र में भाजपा आला कमान अगर शिवराज का टिकट काटने की हिम्मत नहीं कर पाया तो इसका मुख्य कारण यह है कि वो प्रदेश में ओबीसी का सबसे प्रभावशाली चेहरा भी हैं।

भाजपा मप्र में दो दशकों से ओबीसी की राजनीति कर रही है, जिसमें कांग्रेस अब ओबीसी जनगणना की मांग उठाकर सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। यह सेंध न लगे, इसलिए भी शिवराज को टिकट देना जरूरी था। वरना ओबीसी में गलत संदेश जाता। हालांकि जाति जनगणना का मुद्दा उठाने वाली कांग्रेस राज्य में ओबीसी मुख्यमंत्री बनाने की बात से पूरी तरह किनारा कर रही है। इस मुद्दे का लाभ उसे तब और ज्यादा मिलता, अगर वो किसी ओबीसी चेहरे को सीएम के रूप में प्रोजेक्ट करने की बात भी करती।

बहरहाल यदि भाजपा जीती तो उसके सामने सीएम का नया चेहरा चुनना टेढ़ी खीर होगी, क्योंकि राज्य में कम से कम आधा दर्जन सीएम पद के दावेदार हैं। एक पर हाथ रखा जाएगा तो दूसरा नाराज होगा और इसमें जातीय समीकरण तो अंतर्निहित हैं हीं। उस परिस्थिति में शिवराज फिर ‘कम्प्रोमाइजिंग कैंडीडेट’ हो सकते हैं। दूसरा, भाजपा आलाकमान के लिए आज मप्र जीतने से भी ज्यादा अहम दिल्ली के तख्त पर काबिज रहने के लिए लोकसभा चुनाव जीतना है।

हिंदी राज्यों में भाजपा की परीक्षा
वर्तमान हालात में बिहार, महाराष्ट्र, दक्षिण व पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा की स्थिति अच्छी न होने से हिंदी प्रदेशों से ही उसे अधिकतम सीटें निकालनी होंगी। तब शिवराज ही सक्षम चेहरा दिखाई दे सकते हैं। भाजपा की सारी कोशिश यही है कि मप्र में विपक्ष का जाति जनगणना का दांव उसके ओबीसी वोटों में ज्यादा सेंध न लगा पाए। इसलिए यहां गैर ओबीसी चेहरे अगर सीएम पद का ख्वाब देख भी रहे हैं तो इसके साकार होने की संभावना बहुत कम है। जातीय गणित इसकी इजाजत शायद ही दे।

हालांकि ये सारी बातें तभी संभव हैं, जब भाजपा विधानसभा चुनाव जीते। जीती तो मानकर चलिए कि पार्टी को शिवराज की जरूरत कम से कम अगले लोकसभा चुनाव तक तो पड़ेगी ही। उसी के बाद भाजपा में सीएम की रेस का दूसरा ट्विस्ट आएगा, जो राज्य में भाजपा की भविष्य की सियासत की नई दिशा भी तय करेगा।


लेखक मप्र के वरिष्ठ पत्रकार हें।

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