बिहार में जाति गणना: क्या नीतीश के दांव की काट के रूप में इस “प्लान बी” को लागू कर देगी भाजपा?-अजय बोकिल
आलेख
अजय बोकिल
माना जा रहा है कि यह मंडल 2.0 सियासत है। मंडल 1.0 में हिंदू समाज को अगड़े – पिछड़ों में बांटा गया था (दलित और हरिजनो की गिनती तो पहले भी होती थी)। अब पिछड़ों के अंतर्विभाजन का नया नक्शा पेश किया गया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि देश की राजनीति अब मंडल कमंडल से शुरू होकर ओबीसी में ही माइक्रो डिवीजन पॉलिटिक्स का रूख करेगी।
वर्ष 1990 में जब केन्द्र की वीपी सिंह सरकार ने सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण देने वाली मंडल आयोग की रिपोर्ट को मंजूरी दी, उस वक्त एक नारा देश में खूब चर्चित हुआ था-‘जनता दल का कहना साफ, पिछड़ा पावे सौ में साठ।‘
मतलब साफ था कि देश में सरकारी नौकरियों और आर्थिक विकास में भी हर जाति की हिस्सेदारी देश या राज्य में उसकी जनसंख्या के अनुपात में होगी। अब इसमें जाति के अनुपात में जनप्रतिनिधित्व की मांग भी जुड़ गई है।
राजनीतिक शब्दावली में यही ‘सामाजिक न्याय’ है। उसी सियासत की ताजा कड़ी के रूप में 33 बरस बाद बिहार में जातिगणना सर्वे के आंकड़े जारी कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्ष की ओर से अपना राजनीतिक ब्रह्मास्त्र चल दिया है। जाति जनगणना की मांग को अब तक टालती आ रही भाजपा इस नए दांव को लेकर रक्षात्मक मुद्रा में है।
हिंदू समाज को एक इकाई के रूप में मानकर हिंदुत्व की राजनीतिक करने वाली भाजपा और संघ इसकी क्या काट पेश करते हैं, इस पर समूचे देश की नजर रहेगी। इस नई चाल का भारतीय राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य पर कितना दूरगामी असर पड़ेगा, इसका अभी अनुमान ही लगाया जा सकता है।
माना जा रहा है कि यह मंडल 2.0 सियासत है। मंडल 1.0 में हिंदू समाज को अगड़े – पिछड़ों में बांटा गया था (दलित और हरिजनो की गिनती तो पहले भी होती थी)। अब पिछड़ों के अंतर्विभाजन का नया नक्शा पेश किया गया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि देश की राजनीति अब मंडल कमंडल से शुरू होकर ओबीसी में ही माइक्रो डिवीजन पॉलिटिक्स का रुख करेगी।
जाहिर है इस अर्थ में यह चाल गेम चेंजर भी हो सकती है और बूमरेंग भी। इसका कुछ असर हमें देश में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव और बाद में 2024 के लोकसभा चुनाव पर देखने को मिल सकता है, जब टिकट शुद्ध रूप से जातियों की संख्या के अनुपात में बांटे जा सकते हैं। साथ ही सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की सीमा सुप्रीम कोर्ट के 50 फीसदी के कैंप को खत्मकर 70 फीसदी तक करने की मांग जोर पकड़ सकती है। हालांकि यह संविधान में संशोधन से ही संभव है। इसके अलावा चुनाव जीतने के लिए जातियों के ध्रुवीकरण को प्रति जाति ध्रुवीकरण से मात देने की चालें और तेज होंगी।
कभी बिहार के साथ मप्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश भी बीमारू राज्य की श्रेणी में थे। लेकिन 40 सालों में ये तीनो राज्य विकास की दौड़ में बिहार की तुलना में बहुत आगे निकल गए हैं, लेकिन बिहार जातियों की गिनती करके ही खुश है। –
जाति जनगणना अगर देश में सबसे पहले बिहार में हुई तो यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि बिहार शायद अकेला ऐसा राज्य है, जहां जाति ही सर्वोपरि है। विकास जैसे मुद्दे वहां हमेशा गौण रहे हैं। आज भी बिहार मानव विकास सूचकांक में देश में सबसे निचले पायदान पर ही है।
बिहार के लोग रोजगार और अधोसंरचना विकास के अभाव में राज्य छोड़कर जा रहे हैं, यह वहां ज्यादा चिंता का विषय कभी नहीं रहा। वहां किस जाति के कितने लोग हैं यह जानना और उसे जानकर आत्ममुग्ध होना बुद्ध की भूमि बिहार का स्थायी राजनीतिक और सामाजिक शौक है।
दिलचस्प बात यह है कि 80 के दशक में बिहार के साथ मप्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश भी बीमारू राज्य की श्रेणी में थे। लेकिन 40 सालों में ये तीनो राज्य विकास की दौड़ में बिहार की तुलना में बहुत आगे निकल गए हैं, लेकिन बिहार जातियों की गिनती करके ही खुश है। संक्षेप में कहें तो जातिवाद ही बिहार की राजनीति और सामाजिक सच्चाई का परिपाक है।
बहरहाल, जातिगणना बिहार में भले हुई हो, लेकिन इसका असर दूरगामी होगा। मोदी के जादू और हिंदुत्व की राजनीति की कमर तोड़ने के लिए विपक्ष, जिसमें अब कांग्रेस भी शामिल हो गई है, ने जाति जनगणना को ही मुख्य मुद्दा बना लिया है। सोच यही है कि हिंदुत्व के मुद्दे पर काफी हद तक एकजुट हुई हिंदू जातियों को वापस माइक्रो लेवल पर विभाजित करने से नया ध्रुवीकरण होगा और विपक्ष के लिए राजनीतिक स्पेस बनेगा। विपक्ष ने पहले से विधानसभा चुनावो में जाति जनगणना का मुद्दा उठाना शुरू कर दिया है।
यह मुद्दा लोकसभा चुनाव में और मुखर होगा। हो सकता है कि विपक्ष की चाल को भोंथरा करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ही लोकसभा चुनाव के पहले देश में जातिगणना का ऐलान कर दें। अगर ऐसा हुआ तो भी उस पर अमली जामा 2025 से पहले शायद ही पहनाया जा सकेगा। वैसे भी महिला आरक्षण में ओबीसी कोटा तय करने के लिए ओबीसी जाति गणना सरकार को करानी ही पड़ेगी।
लेकिन असली चुनौती जातिगणना के बाद समाज के विभिन्न अनुशासनों में जाति की संख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व के दावों को पूरा करने की होगी। इसका सीधा असर मेरिट पर पड़ेगा। क्योंकि जाति की संख्या ही सभी मामलों में निर्णायक होगी और योग्यता हाशिए पर।
देश में अगड़ी जाति के लोग संख्या में कम होने से ज्यादातर राज्यों में राजनीतिक रूप से पहले ही किनारे किए जा चुके हैं। उनकी संख्या कुल का 15 फीसदी से ज्यादा न होने से नीति निर्धारण में भी उनकी हिस्सेदारी घटती जाएगी।
जाति जनगणना के प्रभाव और सियासत
जाति जनगणना का नुकसान दलित और आदिवासियों को भी होगा, क्योंकि संख्या की दृष्टि से कम होने के कारण उनका राजनीतिक रूप से आगे बढ़ना और कठिन हो जाएगा। दो चार छोटे राज्यों को छोड़ दें तो सभी जगह दबदबा ओबीसी का रहेगा। तर्क वही कि उनकी संख्या सर्वाधिक है।
इससे भी बड़ा खतरा खुद ओबीसी के भीतर अंतर्संघर्ष का है। ओबीसी में अभी यादव और उतनी ही प्रभावी कुछ दूसरी जातियों के हिस्से में विकास की ज्यादा मलाई आई है। लेकिन बिहार के आंकड़ों को ही माने तो अति पिछड़ी जातियों (ईबीसी) की संख्या उनसे कहीं ज्यादा है। ऐसे में ईबीसी जातियां उसी तरह ओबीसी को किनारे लगाने की राजनीति कर सकती हैं, जैसे कि ओबीसी ने अगड़ो को निपटाने के लिए की। इससे देश में नई जातीय गोलबंदी देखने को मिलेगी। हमें जातियों के समूह वर्चस्व की लड़ाई में एक दूसरे को मात देते दिख सकते हैं।
अब सवाल यह है कि ऐसी स्थिति में भाजपा और संघ क्या करेंगे? क्या उनके पास ‘प्लान बी’ तैयार है? जानकारों का मानना है कि भाजपा ने कई राज्यों में ईबीसी पर काम करना काफी पहले शुरू कर दिया था। उसकी फसल काटने का वक्त आ गया है। इसमें कितनी सच्चाई है, यह जल्द पता चलेगा। उधर विपक्ष के ओबीसी नेता कुछ भी कहें, लेकिन नरेन्द्र मोदी के रूप में आज देश की सत्ता ओबीसी के हाथ में है और मोदी की अगड़ो में भी लोकप्रियता है, यह संदेश समूचे पिछड़े वर्ग में है।
इसके विपरीत विपक्ष के पास कोई भी दमदार और देशभर में लोकप्रिय ओबीसी चेहरा नहीं है। अलबत्ता जाति जनगणना के दांव की काट के रूप में मोदी सरकार जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक कर उसे लागू कर सकती है, जिसमें ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में वर्तमान 27 फीसदी आरक्षण को ओबीसी की 4 उपश्रेणियों में बांटने की अनुशंसा है। लेकिन यह उपाय भी अस्थायी होगा, क्योंकि जातिगणना का असल लक्ष्य तो ओबीसी आरक्षण को 27 फीसदी से बढ़वाकर 50 फीसदी तक करना है। न केवल नौकरी और शैक्षणिक बल्कि राजनीतिक भी। जाहिर है यह करना आसान नहीं होगा।
दूसरे, अगर ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ी तो बाकी बची 15 फीसदी अनारक्षित जातियां भी किसी न किसी कारण से आरक्षित श्रेणी में आने की मांग कर सकती हैं, जैसा कि हम महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग के रूप में देख रहे हैं। जबकि मराठा मूलत: शासक जाति रही है। अगर कमोबेश सभी जातियां पिछ़डी कहलाने लगीं तो सामाजिक समता की लड़ाई तेवर ही बदल जाएगा।
जातियों का यह अंतर्संघर्ष हिंदू धर्म के साथ- साथ इस्लाम और सिख धर्म में भी दिख सकता है। वहां धर्म बदलने के बाद भी सामाजिक पिछड़ेपन के कारण आरक्षण की मांग उठने लगी है। हो सकता है कि हम और किसी मामले में हों न हों, जातिवाद के मामले में ‘विश्व गुरु’ बन जाएं।
-लेखक मप्र के वरिष्ठ पत्रकार हें।