आलेख
अजय बोकिल
इस चुनाव का अर्थ कांग्रेस अगर यह लगाने लगे कि देश में मोदी का जादू अब उतार पर है तो यह भी गलत होगा। इतना सच है कि पीएम मोदी का देश को ‘कांग्रेसमुक्त’ करने का नारा अब पलटवार करने लगा है। लोकतंत्र में कम से कम दो राष्ट्रीय पार्टियों, जिनमें बुनियादी वैचारिक भेद हों, का होना अनिवार्य है। इस दृष्टि से कर्नाटक की जीत को कांग्रेस के पुनरुज्जीवन के रूप में सकारात्मक अर्थ में लिया जाना चाहिए।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बंपर जीत और सत्तारूढ़ भाजपा की करारी हार इस बात का सबक है कि दल-बदल कर सरकार गिराने के खेल को जनता अब ज्यादा झेलना नहीं चाहती। इस दृष्टि से ये नतीजे मप्र में भी भाजपा के लिए खतरे की घंटी हैं, क्योंकि जो खेल खेलकर 2019 में भाजपा ने कर्नाटक में सत्ता पाई थी, वही खेल सफलतापूर्वक 2020 में मध्यप्रदेश में भी दोहराया गया था और शिवराज सरकार चौथी बार अस्तित्व में आई थी। लेकिन लगता है विधानसभा चुनाव में यही खेल कर्नाटक में भाजपा की गले ही हड्डी बन गया।
‘आयाराम -गयाराम संस्कृति’
यूं जनप्रतिनिधियों के दलबदल का इतिहास आजाद भारत में 56 साल पहले हरियाणा से शुरू हुआ था, जहां एक निर्दलीय विधायक गयालाल चुनाव जीतकर सत्तारूढ़ कांग्रेस में शामिल हो गए। बाद में उन्होंने 15 दिनों में तीन बार पार्टियां बदली। परिणामस्वरूप इस तरह राजनीतिक दल और निष्ठाएं बदलने के लिए नया मुहावरा चलन में आया ‘आयाराम -गयाराम संस्कृति।‘
इस आयाराम गयाराम संस्कृति से भारत में शायद ही कोई दल अछूता हो। यह दल-बदल अमूमन सत्ता में भागीदारी के लिए किया जाता है और चुनाव के पहले इसमें खास उफान आ जाता है। यह हकीकत है कि आज अधिकांश सांसद-विधायक, पार्षद सत्ता का मतलब कुर्सी, रुतबा और पैसा ही समझते हैं। यह न मिले तो जनप्रतिनिधि बनना बेकार है। ‘जनसेवा’ जैसे शब्द केवल राजनीतिक ड्राइंग रूम की डिक्शनरी में हैं। इन नेताओं को इस बात से खास मतलब नहीं होता कि जिस चुनाव चिन्ह, विचारधारा अथवा घोषणा पत्र के आधार पर मतदाताओं ने उन्हें चुनकर भेजा है, उसे झटक कर किसी दूसरी पार्टी, विरोधी विचारधारा अथवा सत्तारूढ़ दल में शामिल हो जाना मतदाताओं द्वारा उस पर किए गए लोकतांत्रिक विश्वास की भी हत्या है।
यह उस नाटक की तरह है, जहां एक ही पात्र भेस बदलकर नए संवादों के साथ अपना किरदार निभाना शुरू कर देता है।
दल-बदल विरोधी कानून
इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए देश में 1985 में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने दल-बदल विरोधी कानून बनाया। इस कानून के तहत उस निर्वाचित जनप्रतिनिधि की शेष कार्यकाल के लिए सदस्यता जा सकती थी, यदि वो पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर सदन में वोट करता है अथवा किसी महत्वपूर्ण विधेयक पर मतदान के समय अनुपस्थित रहता है। लेकिन यदि किसी पार्टी के कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हैं तो इस प्रकार के विलय के मामले में कानून एक पार्टी को किसी अन्य पार्टी में विलय करने की अनुमति देता है।
ऐसी स्थिति में न तो करने वाले सदस्य की और न ही मूल पार्टी में बने रहने वाले सदस्य की सदस्यता जाएगी। यानी अगर किसी एक पार्टी के सदन में दो तिहाई सांसद/विधायक एक साथ किसी दूसरे राजनीतिक दल में विलय करना चाहें तो यह गैरकानूनी नहीं होगा। उनकी सदन की सदस्यता नहीं जाएगी, यानी परोक्ष रूप में रूप में यह कानून सामूहिक दलबदल को मान्यता देता है।
लेकिन दुर्भाग्य से सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों ने इसमें भी पतली गलियां ढूंढ लीं। भारतीय जनता पार्टी ने दल-बदल का नवाचार करते हुए नया फार्मूला खोजा। उन्होंने पहले सत्तारूढ़ अथवा सत्ता की भागीदार पार्टी के असंतुष्ट विधायकों से विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफे दिलवाए। वो सीट खाली घोषित करवाई और उसी सीट पर पूर्व में इस्तीफा दे चुके जनप्रतिनिधि को अपने चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़वा दिया। इसमें कई जीत भी गए। यानी कल तक जो ‘गद्दार’ थे, वो रातों-रात ‘विभीषण’ हो गए।
भाजपा ने ऐसा पहला प्रयोग बड़े पैमाने पर कर्नाटक में ही किया। जहां 2018 के विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद भी वह सत्ता से दूर रही थी, क्योंकि कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर सरकार बना ली थी। उसे गिराने के लिए भाजपा ने जोड़-तोड़ कर 2019 में कांग्रेस के 10 और जेडीएस के 3 असंतुष्ट विधायकों के विधानसभा और पार्टी से इस्तीफे दिलवा दिए।
इससे किनारे पर बहुमत से बनी जेडीएस-कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गई। इन रिक्त सीटों पर उपचुनाव हुए तो इन 13 में से 11 भाजपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव जीत गए और कर्नाटक में येदियुरप्पा के नेतृत्व में दूसरी बार सत्ता में आ गई। यह खेल कानूनी दृष्टि से गैर भले न था, लेकिन राजनीतिक अनैतिकता और मतदाताओं को भरमाने बनाने की सुविचारित चाल जरूर थी।
मध्य प्रदेश में दल-बदल पटकथा पार्ट 2
कर्नाटक में सत्ता मिलते ही मध्यप्रदेश में तत्कालीन कमलनाथ सरकार को गिराने के लिए दलबदल पटकथा का पार्ट-टू सफलता से लिखा गया। 2018 के विस चुनाव में पूर्ण बहुमत न मिलने के बाद भी कांग्रेस ने जोड़-तोड़ से सरकार बनाई और जैसे कि होता आया है, कांग्रेस में सत्ता मिलते ही आपसी झगड़े और गुटबाजी कई गुना बढ़ जाती है, मप्र में भी हुआ। भाजपा ने इस फटे में टांग अड़ाई और कांग्रेस के तत्कालीन वरिष्ठ नेता और सीएम पद के दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया के 19 समर्थकों व अन्य 3 कांग्रेस विधायकों के सदन से इस्तीफे दिलवाकर कुल 28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव करवा दिए। इनमें से बगावत करके भाजपा में आए 19 में से 13 विधायक ‘पंजे’ की जगह पर ‘कमल’ निशान पर चुनाव जीत गए। राज्य में पिछले दरवाजे से तख्त पर बैठी शिवराज सरकार पूर्ण बहुमत में आ गई। कमलनाथ के पास दूसरी बार फिर सीएम बनने का सपना देखते रहने के अलावा कुछ नहीं बचा।
इस बार फेल हो गया ये फार्मूला
लेकिन जिस रास्ते से भाजपा की तत्कालीन येदियुरप्पा और बाद में बसवराज बोम्मई सरकार चली और ताजा विधानसभा चुनाव में चारों खाने चित हुई, उसका एक संदेश यह भी है कि तात्कालिक रूप से मतदाता भले ही इस तरह के अनैतिक दलबदल को स्वीकृति दे देता हो, लेकिन दीर्घकालीन संदर्भ में वह उसे ठुकरा देता है। क्योंकि महज सत्ता और सुविधा की खातिर किया गया यह राजनीतिक मतांतरण व्यक्तिगत आकांक्षा पूर्ति की दृष्टि से भले ठीक हो, लेकिन नैतिक दृष्टि से राजनीति अनाचार ही है।
हैरानी की बात यह है कि सामाजिक दृष्टि से कोई अपनी सौतेली मां को भी आसानी से मां मानने के लिए तैयार नहीं होता, लेकिन जनप्रतिनिधियों को अपनी मां या राजनीतिक वल्दियत बदलने में तिल मात्र भी संकोच नहीं होेता।उल्टे इसे जायज ठहराने के लिए वो कुतर्कों का सहारा लेते हैं। यानी कल तक जिसे ‘चोर’ कहने में संकोच नहीं था, दल बदलते ही वह ‘मोर’ दिखने लगता है, और ऐसा चश्मा सिर्फ राजनीतिक दुकान में ही मिलता है।
भाजपा ने इस राजनीतिक मतांतरण को यह कहकर वैध सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि अगर सम्बन्धित व्यक्ति उसकी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर जीत कर आता है तो उसे मतदाताओं की स्वीकृति मिल गई और उसका ‘राजनीतिक शुद्धिकरण’ भी हो गया। यहां गलती मतदाताओं की भी है, जो इस तरह की अनैतिक राजनीतिक बाजीगरी पर अपनी मुहर लगाते हैं।
दरअसल मध्यप्रदेश में सिंधिया की बगावत के बाद सत्ता खोने वाले कमलनाथ को सत्ता में वापसी की उम्मीद इसी बुनियाद पर थी कि उपचुनाव में मतदाता अपने दल-बदलू जनप्रतिनिधियों को सबक सिखाएंगे, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। उल्टे पीछे से सत्ता के प्रवेशद्वार को लोकतांत्रिक अभिस्वीकृति मिल गई। लेकिन जब पूरे राज्य के विधानसभा चुनाव हुए तो लगता है मतदाता ने वो भूल सुधार ली।
इसका अर्थ यह नहीं कि कर्नाटक में भाजपा की हार का यही एकमात्र कारण है। हार के कारण कई हैं, जिनमें भारी अंतर्कलह, धार्मिक विभाजन कार्ड को उकसाने की हद तक इस्तेमाल, स्थानीय मुद्दों को दरकिनार करना और एक राज्य के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को आश्चर्य की हद तक दांव पर लगाना शामिल है। और तो और मतदान के एक दिन पहले कर्नाटक में जबरदस्ती हनुमान चालीसा का पाठ करने का मतदाताओं में कोई सकारात्मक संदेश नहीं गया।
लेकिन इस चुनाव का अर्थ कांग्रेस अगर यह लगाने लगे कि देश में मोदी का जादू अब उतार पर है तो यह भी गलत होगा। इतना सच है कि पीएम मोदी का देश को ‘कांग्रेसमुक्त’ करने का नारा अब पलटवार करने लगा है। लोकतंत्र में कम से कम दो राष्ट्रीय पार्टियां जिनमें बुनियादी वैचारिक भेद हों, का होना अनिवार्य है। इस दृष्टि से कर्नाटक की जीत के रूप में कांग्रेस के पुनरुज्जीवन को सकारात्मक अर्थ में लिया जाना चाहिए।
रहा सवाल मध्यप्रदेश का तो यहां की राजनीतिक स्थितियां कर्नाटक से अलग हैं। अंतर्कलह दोनों पार्टियों में है। लेकिन चुनाव नतीजों पर यह कितना असर दिखाएगी, यह देखने की बात होगी। कर्नाटक में मतदाताओं ने अनैतिक तरीके से कानूनी दल-बदल करवा कर सत्ता हासिल करने का भाजपाई फार्मूला खारिज कर दिया है। मध्यप्रदेश में मतदाता इसे कायम रखते हैं या नहीं, यह देखना लोकतांत्रिक इतिहास में खास तौर पर दर्ज होगा।
लेखक-राजधानी भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार है।