आलेख
अजय बोकिल
वर्ष 2025 अपने अलग तरह के आगाज के लिए याद रखा जाएगा। पहला तो ज्यादा काम करने की नसीहत और दूसरा महाकुंभ जैसे धार्मिक आयोजन में रीलबाजो की धूम।
हफ्ते में 90 घंटे यानी हर रोज औसतन 13 घंटे काम करने के एलएंडटी चेयरमैन एस.एन. सुब्रह्मण्यन के ‘नेक’ सुझाव पर सार्वजनिक बवाल की लपटें अब आरएसएस और भाजपा तक जा पहुंची हैं। ज्यादातर लोगों और यहां तक कि अधिकांश उद्योगपतियों ने भी सुब्रह्मण्यन के सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया है। जबकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में इसको लेकर अलग-अलग राय है। गौरतलब है कि सुब्रह्मण्यन ने जो कहा था, वो मुख्य रूप से निजी और कॉरपोरेट क्षेत्र के संदर्भ में था।
यह बात अलग है कि लोगों से विकसित भारत बनाने के लिए ‘वर्कहॉलिक’ बनने के नसीहत के बावजूद खुद सुब्रह्मण्यन की कंपनी 70 हजार करोड के पनडुब्बी बनाने के भारतीय नौसेना के बड़े ठेके से हाथ धो बैठी है। अलबत्ता सुब्रह्मण्यन उस संगठित सरकारी क्षेत्र के बारे में कुछ नहीं बोले, जहां समस्या 13 घंटे काम तो दूर 8 घंटे भी ईमानदारी के काम न करने की है। भारत में सरकारी तंत्र की अपनी एक कार्य संस्कृति है और जो अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाई है।
ये वो सेक्टर है, जिसमे देश भर में दो करोड़ से ज्यादा लोग काम करते हैं और अन्य क्षेत्रों की तुलना में औसतन बेहतर वेतन, भत्ते पाते हैं। इस सेक्टर के पास सारे संवैधानिक और कानूनी अधिकार है और जिनकी नौकरी की सुरक्षा लगभग अभेद्य है। यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर सरकारी क्षेत्र में 8 घंटे भी वास्तविक काम होने लगे तो देश खुद ब खुद तेजी आगे बढ़ जाएगा।
वर्ष 2025 अपने अलग तरह के आगाज के लिए याद रखा जाएगा। पहला तो ज्यादा काम करने की नसीहत और दूसरा महाकुंभ जैसे धार्मिक आयोजन में रीलबाजो की धूम। हालांकि, वो अलग विषय है। भारत जैसे हाथी की चाल चलने वाले देश में न सिर्फ डटकर बल्कि तयशुदा समय से ज्यादा काम करने की सलाह देना या अपेक्षा रखना भी जोखिम भरा है।
लगता है एलएंडटी चेयरमैन ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। इस साल के आरंभ में उन्होंने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डालकर सभी को चौंका दिया था कि भारतीयों को सप्ताह में 90 घंटे और रविवार को भी काम करना चाहिए।
सुब्रह्मण्यन ने इसी के साथ एक व्यंग्यात्मक सवाल भी किया कि आखिर आप पत्नी को घर में कितनी देर तक निहार सकते हैं? इसका भावार्थ यही था कि अपनी (सुंदर) पत्नी को निहारने में वक्त जाया करने के बजाए आप कुछ रचनात्मक काम करें। हो सकता है कि कुछ पत्नीप्रेमी प्राणि पत्नी को निहारने को भी रचनात्मक कर्म ही मानें।
बहरहाल सुब्रह्मण्यन इस पोस्ट के जरिए शायद यह जताना चाहते थे कि वो आज जिस मुकाम पर हैं, उसके पीछे घंटों काम करते रहने की तपस्या है। इसे नजरअंदाज कर आलोचको ने सवाल किया कि जो व्यक्ति आपके (सुब्रह्मण्यन) अधीन 8 घंटे काम करता है, उसकी तनख्वाह और आपकी तनख्वाह में 500 गुने का अंतर है।
अगर इतनी मोटी तनख्वाह मिलेगी तो कोई भी 90 तो क्या 100 घंटे काम के लिए भी तैयार हो जाएगा। आखिर एक हफ्ते में कुल 168 घंटे होते हैं। सुब्रह्मण्यन के पहले इंफोसिस केमालिक नारायणमूर्ति भी लोगों से कह चुके थे कि अगर भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है तो हमे सप्ताह में 70 घंटे काम करने की आदत डालनी चाहिए। सुब्रह्मण्यन ने इसमें 20 घंटे और जोड़ दिए। उनकी पोस्ट पर एक उद्योगपति ने अदार पूनावाला ने जवाब दिया कि मुझे तो अपनी सुंदर पत्नी को रविवार को भी घूरना पसंद है।
लोगों ने सुब्रह्मण्यन को इस बात के लिए ट्रोल किया कि वो इंसान को समझते क्या हैं? आखिर कोल्हू के बैल को भी कुछ समय विश्राम देना पड़ता है। मानवीय गरिमा तथा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का कोई मतलब है या नहीं? यूं कुछ लोगों के लिए काम ही तंदुरूस्ती की खुराक होती है, लेकिन ज्यादातर के लिए 8 घंटे से ज्यादा काम शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता का कारण भी बन सकता है। इसी मुद्दे पर संघ में भी दोमत हैं। ‘वर्क लाइफ बैलेंस’ को ध्यान में रखते हुए आरएसएस से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) और दत्तोपंत ठेंगड़ी फाउंडेशन (डीटीएफ) ने सुब्रह्मण्यन की पोस्ट को ‘श्रमिकों की कब्रगाह पर औद्योगिक किस्मत बनाने’ की कोशिश बताते हुए इसकी निंदा की है। जबकि भाजपा में ही कई लोग ‘काम के प्रति जुनून’ और स्टेमिना के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का उदाहरण देते हैं, जिनके लिए काम को घंटो में नापना बेमानी है।
कहा जाता है कि मोदी सिर्फ चार घंटे सोते’हैं। लेकिन यह एक अपवाद है। सभी के लिए और खासकर आम आदमी के लिए यह संभव नहीं है। आरएसएस से जुड़े पत्र ‘ऑर्गनाइज़र में एक लेख में सी.के. साजी नारायणन ने लिखा कि 90 घंटे का वर्किंग वीक “लाइफ की क्वालिटी और मानवीय गरिमा के सिद्धांत का खंडन करता है। ‘वर्कहॉलिक’ की कैटेगरी में अत्यधिक काम करने को आदर्श बनाना एक “अस्वस्थ मानसिक जुनून है जिसे ओसीडी (ऑब्सेसिव-कंपल्सिव डिसऑर्डर) कहा जाता है।‘
वैसे अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और विश्व स्वास्थ्य संगठन भी ‘आठ घंटे श्रम’ को ही सही मानता है। इससे ऊपर काम लेना या करना ओवरटाइम हो सकता है। यूं दुनिया में 20 सदी के पहले तक काम करने या काम लेने की कोई स्पष्ट समय सीमा नहीं थी।
खासकर मजदूरो से जानवरों की तरह काम लिया जाता है। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप मजदूर संगठनों में भी श्रम अवधि को लेकर चेतना आई और बड़े आंदोलन हुए। सबसे पहले उरूग्वे में 1915 में श्रमिकों से आठ घंटे काम लेने का कानून बना। भारत में भी सप्ताह में 48 घंटे काम और एक दिन साप्ताहिक अवकाश का नियम लागू है। कई लोगो का तर्क है कि काम के घंटे से ज्यादा काम की गुणवत्ता ज्यादा मायने रखती है।
भारत में काम के मुख्य रूप से दो क्षेत्र ही हैं। सरकारी और निजी। लेकिन काम के मामले में दोनो के चरित्र और आग्रह अलग-अलग हैं। सरकारी तंत्र नियंता की भूमिका, तमाम छुट्टियों, अन्य सुविधाओं, नौकरी की गारंटी के बावजूद आठ घंटे भी ठीक से काम नहीं होता। कुछ अपवाद छोड़ दें तो कर्तव्य बोध का अभाव, काम समय पर न करना, होते काम में अड़ंगे लगाना, समय पर निर्णय न लेना, कछुए की चाल से काम करना, नागरिकों को सरकार का गुलाम समझना, लोक सेवा की जगह अपने हितो को सर्वोपरि मानना, गलतियों पर अमूमन कोई कार्रवाई न होना आदि इस सेक्टर की ऐसी ‘विशेषताएं’ हैं, जो सुब्रह्मण्यन साहब को उनकी पूर्ववर्ती रेलवे की नौकरी लंबे समय तक करने के कारण याद ही होंगी। निजी क्षेत्र में कुछेक अपवाद छोड़ दें तो आदमी काम की चक्की में पिसता ज्यादा है। वहां अमानवीयता की हद तक शोषण है। ऐसे में आदमी काम के घंटे गिनना भी भूल जाता है और इसके बदले जो मेहनताना मिलता है, वह तुलनात्मक रूप से काफी कम होता है।
जहां तक भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने की बात है तो केवल निजी क्षेत्र में 90 घंटे की बात करने से बात नहीं बनेगी। सरकारी क्षेत्र का वर्क कल्चर जब तक नहीं बदलता प्रगति की गाड़ी एक पहिए पर नहीं दौड़ सकती।
-लेखक मप्र के वरिष्ठ पत्रकार हे।