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“राइट क्लिक”- सड़कों पर क्यों ठोकरें खाता है सरकारी नौकरी का ख्‍वाब ?-अजय बोकिल

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आलेख
अजय बोकिल

बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) के परीक्षार्थियों का प्रारंभिक परीक्षा रद्द करने का आंदोलन तीन हफ्‍ते भी बाद भी समाप्त नहीं हो रहा है तो इसको लेकर कई सवाल उठने लगे हैं। पहला तो यह राज्यों में सरकारी नौकरी पाने का युवाअों का ख्वाब अमूमन इस तरह सड़को पर दर दर की ठोकरें खाने पर क्यों मजबूर है? दूसरे, देश के अधिकांश राज्य लोक सेवा आयोग अक्षमता के शिकार हैं, ऐसा क्यों? उनके द्वारा भर्ती किए जाने वाले कल के अफसरों और अन्य कर्मचारियों के चयन की शुचिता क्यों नहीं रह पाती है? ऐेसा होने के लिए जिम्मेदार कौन है, सरकारी नौकरी का सपना देखने वाले या फिर इन रूआबदार नौकरियों के लिए परीक्षा आयोजित करने वाले? तीसरे, इन धांधलियों पर लगाम कब लगेगी और कौन लगाएगा?


बीपीएससी की 70 वीं संयुक्त प्रारंभिक परीक्षा (सीपीई) के पेपर लीक होने की खबर के बाद से गुस्साए परीक्षार्थी सड़कों पर उतरे हुए हैं और पटना के गर्दनीबाग में धरना दे रहे हैं। गड़बडी की ‍गंभीर शिकायतों के बीच बीपीएससी ने 4 जनवरी को री-एग्जाम ( पुनर्परीक्षा) भी आयोजित की, लेकिन समस्या का समाधान नहीं हुआ। क्योंकि परीक्षार्थियों को बीपीएससी पर ही भरोसा नहीं है। (हालांकि किसी संस्था पर से भरोसा उठ जाना भी समस्या के समाधान में मददगार नहीं होता)। व्यवस्था और तंत्र पर आपको कुछ तो यकीन रखना ही होगा। बीपीएससी ने इतना जरूर माना कि बापू परिसर परीक्षा केन्द्र पर पेपर लीक हुआ। लेकिन उसने समूची परीक्षा रद्द करने से इंकार कर ‍िदया। शक यह भी है कि परीक्षार्थियों के सड़कों पर उतरने के पीछे कोचिंग क्लास माफिया का हाथ है। क्योंकि वो सभी प्रतियोगी परीक्षाएं अपनी सुविधा और स्वार्थ के हिसाब से करवाना चाहते हैं। न होने पर आंदोलन करवा देते हैं। उधर यह राजनीतिक मुद्दा भी बन गया है। शुरू में कुछ विपक्षी दलों ने आंदोलनकारी परीक्षार्थियों के साथ खड़ा दिखने की

कोशिश की, लेकिन बाद में जन सुराज पार्टी के प्रशांत किशोर द्वारा आंदोलन को हाईजैक करता देख, दूसरे दलों ने इससे दूरी बना ली। सत्तारूढ़ एनडीए के घटक दल तो इस आंदोलन को शुरू से प्रायोजित और नीतीश सरकार को बदनाम करने वाला बता रहे हैं। हालांकि कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर मामला नहीं सुलझा तो परीक्षार्थियों का यह आंदोलन मिनी अन्ना आंदोलन में भी तब्दील हो सकता है, जो सत्तारूढ़ एनडीए के लिए खतरे की घंटी है। क्योंकि बिहारी छात्रों में राजनीतिक चेतना वैसे भी दूसरों से ज्यादा है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा होगा या फिर राज्य की नीतीश सरकार इसे जितना लटकाएगी, उतना ही आंदोलन स्वत: कमजोर होता जाएगा, इसका उत्तर मिलना अभी बाकी है। वैसे आंदोलनकारी परीक्षार्थियों का मानना है कि असल में खतरे की घंटी तो नीतीश सरकार के लिए है, क्योंकि राज्य में इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। हालांकि मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार इस आंदोलन को लेकर ‍बेफिक्र दिखते हैं। उन्हें नहीं लगता कि प्रदेश के हजारों प्रतियोगी परीक्षार्थियों की नाराजगी आगामी विधानसभा चुनाव में उनके लिए पानीपत साबित हो सकती है। उनकी निगाह में यह आंदोलन भी बुलबुला है, जो फूट जाएगा। क्योंकि इस आंदोलन की हवा को चुनाव तक खींचना टेढ़ी खीर है।


प्रतियोगी परीक्षाअों में गड़बडि़यों को लेकर देश में अलग-अलग राज्यों में होने वाले विभिन्न आंदोलनों में बीपीएससी अभ्यर्थियों का आंदोलन अब तक का सबसे लंबा आंदोलन है। इसके पहले हमने उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में भी सरकारी नौकरियों के लिए आयोजित राज्य लोक सेवा आयोगों की परीक्षाअों में गड़बड़ी और मनमाने फैसलों के खिलाफ परीक्षार्थियों को सड़कों पर उतरते देखा है। इससे एक बात साफ है कि आजकल अपवादस्वरूप ही कोई प्रतियोगी परीक्षा पूरी तरह निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से होती है। कहीं नीयत में खोट है तो कहीं व्यवस्था में जबर्दस्त खामियां हैं। परीक्षा आयोजन में प्रौद्योगिकी का बढ़ता इस्तेमाल उसकी शुचिता, पारदर्शिता और त्वरितता के लिए कम, हेराफेरी के लिए ज्यादा होता‍ दिख रहा है। अव्वल तो राज्यों में सरकारी भर्ती के विज्ञापन ही कम निकलते हैं। निकले भी तो उसमें दस गलतियां होती है या जानबूझकर की जाती हैं। मान लीजिए कि विज्ञापन के बाद प्रतियोगी परीक्षा की तारीखें घोषित हो भी गईं तो तय तिथि को परीक्षा हो जाए तो खुद को किस्मत वाला समझिए। अगर परीक्षा भी समय पर हो गई तो परीक्षा के पेपर लीक होना, पर्चे बिकना, फिर रिजल्ट बरसों लटके रहना, रिजल्ट भी आ जाए तो नियुक्ति पत्र मिलने के लिए बरसों इंतजार करने की मजबूरी अब आम बात हो गई है। केवल यूपीएससी की परीक्षाएं काफी हद तक बेहतर ढंग से हो रही हैं। वरना अन्य प्रतियोगी परीक्षा के अभ्यर्थियों को हर बात में इंसाफ के लिए या तो सड़कों पर आना पड़ता है या फिर कोर्ट की शरण लेनी पड़ती है। ऐसा क्यों हो रहा है, इसका न तो कोई जवाबदेह है और न ही किसी को इसकी चिंता है। जबकि यह देश के युवाअो के भविष्य से जुड़ा गंभीर मुद्दा है।


बीपीएससी की कहानी भी इससे अलग नहीं है। वहां बरसों बाद बड़े पैमाने पर द्वितीय श्रेणी के सरकारी पदों पर भर्तियां निकली थीं। लेकिन उसमें भी अफरा तफरी हुई। बताया जाता है कि बीपीएससी में पेपर लीक का विवाद परीक्षा के बापू सेंटर से शुरू हुआ। वहां कुछ पेपर कम पड़ गए थे तो दूसरे केन्द्र से मंगवाने पड़े। जिससे कई परीक्षार्थियों को थोड़े समय के अंतर से पेपर मिले। यकीनन यह बीपीएससी की बड़ी लापरवाही थी। अगर आयोग पर्याप्त संख्या में परीक्षार्थियो को प्रश्नपत्र भी उपलब्ध नहीं करा सकता तो इसे क्या कहा जाए? इस बीच खबर फैली कि पेपर लीक हो चुका है। यह सुनते ही छात्र भड़क गए और उन्होंने पेपर का बहिष्कार कर विरोध प्रदर्शन शुरू कर ‍िदया। इस बीच एक आंदोलनकारी को पटना डीएम ने तमाचा जड़ दिया। उधर बीपीएससी का कहना है कि मामला चूंकि एक ही सेंटर का था इसलिए पूरी परीक्षा रद्द करने का सवाल ही नहीं है। लेकिन इस दलील पर परीक्षार्थियों को भरोसा नहीं हो रहा। उनका आंदोलन उग्र हो गया तो पुलिस ने लाठियां भी बरसाईं। अब जन सुराज पार्टी के प्रशांत किशोर इस आंदोलन के पुरोधा बनकर अपनी सियासी जमीन तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। इस बीच कुछ अन्य नेताअों जैसे तेजस्वी यादव आदि ने भी शुरू में आंदोलनकारियों से सहानुभूति जताई, लेकिन बाद में हाथ खींच लिया। अब परीक्षार्थियों का कहना है कि वे मुद्दे को लेकर हाई कोर्ट जाएंगे।
कुलमिलाकर बिहार पीएससी परीक्षार्थियों को कोई राहत जल्द‍ मिलेगी, ऐसा लगता नहीं है। हमने पिछले साल नंवबर में उत्तर प्रदेश पीएससी के परीक्षार्थियो का आंदोलन भी देखा,जो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हस्तक्षेप के बाद समाप्त हुआ था। वहां परीक्षार्थी यूपीपीएससी द्वारा नार्मलाइजेशन प्रक्रिया के बजाए पर्संटाइल पद्धति से परीक्षा कराने, पूरी परीक्षा एक ही पाली में कराने की मांग को लेकर आंदोलन पर उतरे थे।

बता दें कि नाॅर्मलाइजेशन से तात्पर्य किसी भी परीक्षा में परीक्षार्थियों की तादाद बहुत ज्यादा होने पर आयोजक दो पालियों में परीक्षा कराते हैं। ऐसे में अगर पहली पाली का पेपर कठिन आता है और उसमें अभ्यर्थियों के कम नंबर आते हैं तो दूसरी पाली का पेपर थोड़ा आसान होता है और उसमें अभ्यर्थियों के ज्यादा नंबर आते हैं तो कठिन पेपर वाली पाली के अभ्यर्थियों के नंबर में थोड़ी बढ़ोतरी कर दी जाती है। यही नाॅर्मलाइजेशन कहलाता है। विरोध कर रहे अभ्यर्थियो का कहना था कि यह खेल के बीच नियम बदलने जैसा है और इसमें धांधली की पूरी गुंजाइश है। लिहाजा समूची परीक्षा एक ही पाली में कराई जाए। सवाल यह है कि जब यूपीएससी प्रारंभिक परीक्षा एक पाली में कराती है तो राज्य सेवा आयोग ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
इसी तरह बीते दिसंबर में मप्र के इंदौर में ‘नेशनल एजुकेटेड यूथ यूनियन’ के बैनर तले एमपीपीएससी के अभ्यर्थियों ने न्याय यात्रा निकाली थी। उनकी मांग थी कि एमपीपीएससी की 2019 की मुख्‍य परीक्षा की काॅपियां दिखाई जाएं और इसकी मार्कशीट जारी की जाए। साथ ही सभी विज्ञापित पदो पर एक साथ भर्ती की जाए। आंदोलनकारियो ने इंदौर में मप्र लोक सेवा आयोग के मुख्‍यालय पर धरना भी दिया। बाद में सरकार के दखल के बाद अभ्यर्थियों ने आंदोलन समाप्त किया। इसी तरह महाराष्ट्र में ठाकरे राज में महाराष्ट्र लोक सेवा आयोग द्वारा प्रस्तावित परीक्षाएं कोरोना के कारण रद्द करने पर नाराज अभ्यर्थियों ने राज्यव्यापी आंदोलन किया था।

-लेखक ‘सुबह सवेरे’ के वरिष्ठ कार्यकारी संपादक हें।

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