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लेटरल एंट्री पर सरकार का यू-टर्न और विपक्ष के हाथ लगी ‘मास्टर की’-अजय बोकिल

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आलेख
अजय बोकिल

सरकार इसका न तो कोई ठोस तोड़ खोज पा रही है और न ही विपक्ष के हमलों का पुरजोर राजनीतिक जवाब दे पा रही है। राहुल गांधी के अलावा खुद एनडीए के दो घटकों ‘जद यू’ और ‘लोक जन शक्ति पार्टी’ ने भी इन नियुक्तियों का सार्वजनिक रूप से विरोध कर दिया। हालांकि, सरकार में शामिल एक और घटक टीडीपी ने इसका समर्थन किया।

सिविल सेवा में लेटरल एंट्री के विज्ञापन पर मचे बवाल के तीन दिन बाद ही इस मुद्दे पर मोदी सरकार द्वारा यू-टर्न लेने का मतलब साफ है कि हाल के लोकसभा चुनाव के बाद विपक्ष और खासकर कांग्रेस के हाथ संविधान और आरक्षण की वो ‘मास्टर की’ लग गई है, जो मोदी सरकार की किसी भी पहल की भ्रूण हत्या कर सकती है।
लेटरल एंट्री मामले में भी नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने सरकार की नीयत पर यह कहकर सवाल उठाए थे कि बिना आरक्षण प्रावधान से पिछले दरवाजे से यह सीधी भर्ती इस का सूचक है कि मोदी सरकार आरक्षण को खत्म करना चाहती है और आरक्षण को न मानना संविधान खत्म करने जैसा है। गौरतलब बात यह है कि मोदी सरकार ने लेटरल भर्तियां 2018 में ही शुरू कर दी थीं। लेकिन तब विपक्ष की और से भी इसका खास विरोध नहीं हुआ था, जो अब हो रहा है।

सरकार इसका न तो कोई ठोस तोड़ खोज पा रही है और न ही विपक्ष के हमलों का पुरजोर राजनीतिक जवाब दे पा रही है। राहुल गांधी के अलावा खुद एनडीए के दो घटकों ‘जद यू’ और ‘लोक जन शक्ति पार्टी’ ने भी इन नियुक्तियों का सार्वजनिक रूप से विरोध कर दिया। हालांकि, सरकार में शामिल एक और घटक टीडीपी ने इसका समर्थन किया। बावजूद इसके सरकार ने संविधान और आरक्षण के मुद्दों को लेकर आसन्न राजनीतिक खतरों को भांपा और अपनी बात पर अड़े रहने की जगह बैक फुट पर जाना ही बेहतर समझा।

यह भी साफ हुआ कि एनडीए में लेटरल एंट्री पर एकमत नहीं है। कहने को मोदी कैबिनेट के प्रवक्ता और केन्द्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कमजोर पलटवार जरूर किया कि लेटरल एंट्री का विचार सबसे पहले कांग्रेसनीत यूपीए सरकार में ही आया था। लेकिन अब कांग्रेस ही इसका विरोध रही है।

दरसअल, मोदी 1.0 व 2.0 के ठीक उलट मोदी 3.0 में सरकार को कोर मुद्दों पर बार- बार बैक फुट पर जाना रहा है। मसलन वक्फ बिल सरकार ने संसद में पेश तो किया लेकिन व्यापक विरोध के चलते उसे जेपीसी के पास भेजना पड़ा। हालांकि कुछ लोग इसके पीछे भी भाजपा की रणनीति देख रहे हैं। इसी तरह समान नागरिक संहिता ( जिसे अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सेक्युलर सिविल कोड कह रहे हैं), के मानसून सत्र में संसद में पेश किए जाने की चर्चा थी। लेकिन वह भी नहीं हो पाया। इसके बाद एससी/एसटी वर्ग में क्रीमी लेयर लागू करने के सुप्रीम कोर्ट के ‘सुझाव’ को भी मोदी सरकार ने मानने से इंकार कर दिया।
अब लेटरल एंट्री के सवाल पर भी सरकार ने यू टर्न लेकर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। इससे यह आशंका सही साबित हो रही है कि एनडीए गठबंधन की सरकार सत्ता संचालन के पिच पर उस तरह से धुआंधार बल्लेबाजी नहीं कर पाएगी, जैसी कि वो पूर्व के दो कार्यकालों में कर सकी थी। दूसरे कार्यकाल में केवल तीन विवादित कृषि कानूनों का मुद्दा ही ऐसा था, जब मोदी सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। लेकिन अब यह बार बार होता दिख रहा है।
भारतीय प्रशासनिक सेवा में लेटरल एंट्री की विधिवत शुरुआत मोदी 1.0 में 2018 में हुई। तब पहली बार 9 विशेषज्ञों को केन्द्र सरकार के अलग-अलग विभागों में अनुबंध के आधार पर नियुक्त किया गया। इन नियुक्तियों पर सवाल तो तब भी उठे थे, लेकिन कोई राजनीतिक बवाल नहीं मचा। इन 9 विशेषज्ञों का चयन भी यूपीएससी ने 6077 आवेदनों में से किया था। इसमें किसी तरह के आरक्षण का प्रावधान नहीं था। ये नियुक्तियां 3 से 5 साल तक के लिए की गई थीं। इनका कोई अलग से कैडर नहीं है। इसका अर्थ यह है कि अनुबंध की अवधि समाप्त होते ही इन्हें अपनी जिम्मेदारियों से हटना था।

बीते 6 सालो में हुई लेटरल एंट्रियों के जरिए भर्ती हुए विषय विशेषज्ञों का क्या परफार्मेंस रहा, प्रशासन को और कार्यक्षम बनाने में उनकी क्या भूमिका रही, यह प्रयोग कितना सफल और कितना जरूरी समझा गया, आईएएस के एक सुगठित और जटिल जाल में लेटरल एंट्री छाप अधिकारी कितनी आजादी से काम कर पाए, उनकी काबिलियत का सरकारी तंत्र में कितना सदुपयोग हुआ, इसकी कोई स्पष्ट जानकारी सामने नहीं आई है।

फिर भी सरकार ने ये भर्तियां जारी रखी हैं, इसका अर्थ यही मानें कि वह इन लेटरल एंट्री नौकरशाहों के काम से संतुष्ट रही होगी। लेकिन तब और अब में राजनीतिक फर्क यह है कि जब लेटरल एंट्री सूत्र पर अमल शुरू हुआ तब इसे सरकार में कारपोरेट मानसिकता की सीधी एंट्री और पूंजीवाद के फैलते जाल के रूप में देखा गया था, जिसकी प्राथमिकताएं लोकसेवक से अलग और एक संस्थान को हर हाल में मुनाफे में चलाने के आग्रह से निर्देशित होती हैं।

‘जनसेवा’ वहां केवल पैसे के बदले दी जाने वाली ‘सर्विस’ और तकनीकी गुणवत्ता ग्राहक को संतुष्ट के करने के भाव से तय होती है ताकि उपभोक्ता कंपनी से न सिर्फ जुड़ा रहे बल्कि बार उसकी सेवाएं लेता रहे। जबकि एक लोकसेवक संविधान और चुनी हुई सरकार की मंशा के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध होता है। लोक प्रशासन का अपना एक विशाल और बेहद जटिल तंत्र है, जो कई गुणों और दोषों से भरा हुआ है। इसमें भी चंद लोग नवाचारी निकल आते हैं। कई भ्रष्टाचार को ही ‘लोकसेवा’ मान लेते हैं तो ज्यादातर अपनी गर्दन बचाकर नौकरी करते जाने को ही लोकसेवा मानते हैं।

इस तंत्र में प्रतिस्पर्द्धा पेशेवर अथवा गुणवत्ता के बजाए मलाईदार पोस्ट हथियाने और राजनीतिक आकाओ को खुश रखने की ज्यादा होती है। दूसरी तरफ कारपोरेट क्षेत्र से आने वाले विशेषज्ञ तुलनात्मक रूप से ज्यादा आजादी ,कड़ी व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा और न्यूनतम जवाबदेही के माहौल के काम करने आदी होते हैं। वहां प्रतिस्पर्द्धा अपना ‘बेस्ट’ देने के आग्रह से ज्यादा संचालित होती हैं। हालांकि, व्यवसायगत चालाकियां और दुरभिसंधियों का बोलबाला वहां भी है, लेकिन मालिक को साधकर काफी कुछ साधा जा सकता है।

ऐसे में लेटरल एंट्री भारत के जटिल प्रशासनिक तंत्र में कितनी कारगर है, यह अध्ययन का विषय है। ऐसे लोग एक रूढि़वादी और जड़ मानसिकता भरे तंत्र में कुछ नया करना चाहें भी तो उनके पास समय बहुत कम होता है। महज 3 या 5 साल की नौकरी में कोई बड़ा नवाचार वो कर पाते होंगें, कहना मुश्किल है। शीर्ष पदों पर तो यह फिर भी संभव है, लेकिन डिप्टी सेक्रेटरी और निदेशक पदों पर यह ज्यादा मुश्किल है, जहां आदेश का ठीक से पालन कराना ही पहला काम है।

बहरहाल विपक्ष ने जो मुद्दा उठाया है, वह राजनीतिक रूप से अहम इसलिए है, क्योंकि यूपीएससी के हालिया विज्ञापन में आहूत 45 लेटरल भर्तियों में जातिवार आरक्षण का कोई जिक्र नहीं था। जबकि सरकार की यह संवैधानिक बाध्यता है। क्या यूपीएससी में बैठे लोगों को नियम- कायदों का पता नहीं था? या केवल बदले हालात में राजनीतिक टेस्टिंग के मकसद से यह विज्ञापन जारी किया गया?
हाल के वर्षों में नियम-कायदों को दरकिनार कर सरकारी भर्तियों के विज्ञापन जारी होने की घटनाएं बढ़ी हैं। अमूमन हर विज्ञापन पर बवाल मचता दिखता है। मामला कोर्ट में जाता है। वहां से डांट पड़ती है। कहना कठिन है कि ऐसा जानबूझकर हो रहा है या फिर जो लोग जिम्मेदार पदो पर बैठे हैं, वो अज्ञानी हैं।


यह भी सही है कि नौकरशाही में सुधार की मंशा से लेटरल एंट्री का विचार काफी पुराना है। बुनियादी तौर पर इसमें कुछ गलत भी हैं। क्योंकि कुछ लोगों का मानना है कि निजी क्षेत्र से आए विषय विशेषज्ञ ब्यूरोक्रेसी की जड़ता में नवाचार और द्रुत गति की लहरें पैदा कर सकते हैं। शायद यही कारण है कि पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने लेटरल एंट्री का समर्थन किया। खुद कांग्रेस ने भी समय समय पर सिविल सेवकों के इतर प्रतिभाशाली लोगों को सीधे सरकार में नियुक्तियां दी थीं, वो भी एक तरह लेटरल एंट्री ही थी। लेकिन कांग्रेस इसे संस्थागत रूप देने का साहस नहीं जुटा पाई, जो बाद में मोदी सरकार ने किया।
अब वही कांग्रेस इसका विरोध कर रही है। यहां एक सवाल यह भी है कि बेशक सरकारी नियुक्तियों में आरक्षण मिलना चाहिए, लेकिन हर नियुक्ति केवल आरक्षण के हिसाब से होगी तो लेटरल नियुक्ति का उद्देश्य भी केवल नौकरी देने तक, भले ही वह सीमित अवधि के लिए हो, रह जाएगा।

में जो विवाद छिड़ा उसका सीधा लक्ष्य वोट बैंक है। कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के बाद से ही संविधान और आरक्षण की टेक को इतनी बारीकी से पकड़ा हुआ है कि भाजपा और मोदी सरकार उसकी पकड़ से निकल ही नहीं पा रहे हैं।
सरकार और पार्टी यह दमदारी से कह ही नहीं पा रही है कि वो जो कुछ कर रहे हैं, वो देशहित में है और सही है। क्योंकि आरक्षण की बात आते ही भाजपा को अपना ओबीसी, दलित और आदिवासी वोट बैंक खिसकने का डर है। वैसे भी भाजपा लोकसभा चुनाव के दूध की जली है। लिहाजा ऐसा कोई भी परसेप्शन जो उसके संविधान खत्म करने या आरक्षण समाप्त करने का गढ़ता हो, वह छुईमुई हो जाती है। लेटरल एंट्री के मामले में बैक फुट पर जाना इसी का परिचायक है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस तरह सरकार पांच साल तक कैसे चलेगी?

लेखक ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हें।

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