आलेख
अजय बोकिल
विपक्ष को शक है कि चुनाव आयोग ने ये आंकड़े जानबूझकर देरी से जारी किए। खासकर 19 अप्रैल को पहले चरण के मतदान के 11 दिन बाद। इसके पीछे कहीं कोई ‘खेला’ तो नहीं है? जबकि चुनाव आयोग का कहना है कि समूचे आंकड़े कंपाइल करने में वक्त लगता है, इसलिए अंतिम आंकड़े जारी करने में कुछ देरी हुई। यहां बात केवल अंतिम आंकड़ों की नहीं है।
अगर कण-कण में भगवान है तो मानिए कि इस देश के जर्रे-जर्रे में सियासत समा गई है। अब चुनाव कार्यक्रम, चु्नाव प्रक्रिया, चुनाव नतीजे के साथ-साथ चरणवार मतदान के अंतिम आंकड़े जारी करने पर भी सियासी घमासान मचा है। गोया यह पूरा चुनाव ही शक शुबहों की सुरंग से होकर गुजर रहा है। विपक्ष को हर बात में खोट दिख रही है तो सत्ता पक्ष सब कुछ स्वाभाविक मानकर मुग्ध है।
विपक्ष को शक है कि चुनाव आयोग ने ये आंकड़े जानबूझकर देरी से जारी किए। खासकर 19 अप्रैल को पहले चरण के मतदान के 11 दिन बाद। इसके पीछे कहीं कोई ‘खेला’ तो नहीं है? जबकि चुनाव आयोग का कहना है कि समूचे आंकड़े कंपाइल करने में वक्त लगता है, इसलिए अंतिम आंकड़े जारी करने में कुछ देरी हुई। यहां बात केवल अंतिम आंकड़ों की नहीं है। जो आंकड़े सामने आए हैं, वो चुनाव के दो चरणों के दौरान कम मतदान के नरेटिव को झटका देने वाले हैं।
शुरूआती आंकड़ों में यह संदेश छुपा था कि दोनो चरणों में 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में 3 से 7 फीसदी की गिरावट आई है। लेकिन चुनाव आयोग ने पहले चरण के डेढ़ हफ्ते बाद जो आंकड़े बताए, उससे पहले चरण में 102 संसदीय सीटों पर 66.14 प्रतिशत और दूसरे चरण में 88 सीटों पर 66.71 प्रतिशत वोट पड़े। जबकि चुनाव आयोग ने पहले चरण के मतदान के आरंभिक आंकड़े औसतन 60 प्रतिशत तथा दूसरे चरण में 60.96 प्रतिशत बताए थे।
अगर इसकी तुलना 2019 के लोकसभा चुनाव के प्रथम व द्वितीय चरण के मतदान प्रतिशत से की जाए तो वोटिंग में यह कमी क्रमश: 4 और 3 फीसदी की होती है। अगर पिछले लोस चुनाव के कुल औसत मतदान 67 फीसदी से इसकी तुलना करें तो कुल मतदान में घटत उतनी ज्यादा नहीं है, जितनी कि मानी जा रही थी। फिर भी मतदान घटा तो है, जिससे चुनाव नतीजे काफी बदल सकते हैं और कई जगह हार- जीत का अंतर भी बहुत कम रह सकता है।
आंकड़ों की सियासत और सियासत के आंकड़े
मतदान के आरंभिक आंकड़ों ने राजनीतिक दलों की चिंता बढ़ा दी थी। माना जा रहा था कि तमाम कोशिशों के बाद भी वोटर घर से नहीं निकल रहा है। राजनीतिक विश्लेषक इस बात का गुणा-भाग लगा रहे थे कि कम मतदान किसको जीत की ट्रॉफी दिलाएगा।
इसके लिए तरह-तरह के आंकड़े और डाटा एनालिसिस पेश किया जा रहा था। मोटे तौर पर संदेश यही था कि कम मतदान सत्तारूढ़ भाजपा और एनडीए के लिए जोखिम भरा है। यह बताने की भी कोशिश हुई कि चुनाव में खासकर भाजपा का वोटर अपेक्षित संख्या में नहीं निकल रहा। ऐसे में देश में 2004 के लोकसभा चुनाव जैसी स्थिति बन सकती है, जब मतदान अपने पूर्ववर्ती 1999 के लोस चुनाव की तुलना में 1.9 फीसदी कम रहा था और सत्तारूढ़ अटलजी की सरकार सत्ता से बेदखल हो गई थी तथा नेतृत्व विहीन यूपीए गठबंधन सत्ता में आ गया था।
2009 के लोस चुनाव में भी औसत मतदान 58.21 प्रतिशत रहा और यूपीए 2 फिर सत्ता में लौटा। लेकिन 2014 ने वोटिंग ट्रेंड ने गीयर बदला। अगले दो लोकसभा चुनाव में यह 8 से 10 फीसदी तक बढ़ा और मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में रही है। विपक्ष के लिए झटका यह है कि पहले चरण के जो आंकड़े शुरू में बताए गए थे, उनमें 6 फीसदी से ज्यादा का अंतर है। यानी इतना मतदान बढ़ा है। ये आंकड़े 2019 के लोस चुनाव के पहले दो चरणों के औसत आंकड़ों के आसपास ही हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि मतदान कम जरूर हुआ है, लेकिन इतना कम भी नहीं हुआ है कि विपक्ष की बांछें खिल जाएं। अगर यही ट्रेंड अगले पांच चरणों में भी रहता है तो तय मानिए कि चुनाव नतीजे कमोबेश 2019 के जैसे ही हो सकते हैं।
पक्ष और विपक्ष के बीच तनातनी
पहले दो चरणों के मतदान के अंतिम आंकड़ों से भाजपा ने कुछ राहत की सांस ली है, जबकि विपक्ष के मन में शक का कीड़ा और गहरा गया है। उसने चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाते हुए तीन प्रश्न उठाए हैं। पहला यह कि दोनों चरणों के अंतिम आंकड़े जारी करने में इतनी देरी के पीछे मंशा या मजबूरी क्या है? दूसरे, कम बताया जा रहा मतदान अचानक 6 फीसदी तक कैसे बढ़ गया? यह सचमुच आंकड़ों के संग्रहण में देरी है या कुछ और? तीसरा यह कि आयोग केवल मतदान का प्रतिशत क्यों बता रहा है, कुल मतदान के आंकड़े बताने में उसे क्या परेशानी है? पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने तो आरोप लगाना शुरू भी कर दिया है कि चुनाव आयोग नतीजों में गड़बड़ी कर सकता है।
आंकड़े जारी करने में यकीनन देरी हुई है। क्योंकि पहले के चुनाव में किसी भी चरण के अंतिम आंकड़े प्राय: तीन दिन के अंदर मिल जाते थे। वैसे भी मतदान के दिन शाम तक के जो आंकड़े चुनाव आयोग जारी करता है, वो सरसरी तौर पर और अनुमानित ही होते हैं, क्योंकि मतपेटियां जमा होने का क्रम देर रात तक या दूसरे दिन सुबह तक भी चलता है। उन सभी के मतदान के वास्तविक आंकड़ों की पुष्टि कर उनको कंपाइल करने में वक्त लगता है। लेकिन उंगली आयोग की मंशा पर उठ रही है।
कांग्रेस ने कहा है कि लोकसभा चुनाव के पहले और दूसरे चरण के मतदान के अंतिम आंकड़े की जानकारी देने में देरी ‘अस्वीकार्य’ है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने मीडिया से कहा कि हमे उम्मीद है कि चुनाव के बचे हुए चरणों में ऐसा नहीं होगा।
सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने कहा कि ये बहुत परेशान करने वाला है। इससे नतीजों में गड़बड़ी का गंभीर शक पैदा होता है। उनका यह भी कहना था कि जब तक वोटों कुल आंकड़ा न बताया जाए तब तक प्रतिशत बताने का कोई अर्थ नहीं है।
दूसरी ओर पूर्व चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी का कहना है कि मतदान के पुष्ट चुनावी आंकड़े तब उपलब्ध होते हैं, जब वोटिंग के अंत में फॉर्म 17C जमा किया जाता है। इसी फॉर्म पर डाले गए वोटों की कुल संख्या होती है। तभी आयोग को अंतिम आंकड़े पता चलते हैं। हालांकि, कुछ विशेषज्ञो का मानना है कि अंतिम आंकड़ों में पांच छह फीसदी की घट बढ़ असामान्य नहीं है।
इसका एक अर्थ यह भी है कि यदि अंतिम आंकड़े और घटते तो विपक्ष ज्यादा मुतमइन रहता, बढ़ते आंकड़ों ने उसे बेचैन कर दिया है। हालांकि, अंतिम आंकड़े जारी करने में इतना विलंब चुनाव आयोग की कार्य क्षमता पर भी सवाल खड़े करता है, क्योंकि जो काम तय सीमा में अब तक होता रहा है, वही काम ज्यादा संसाधनों और बेहतर टैक्नोलॉजी के बाद भी इतनी देरी से क्यों हो रहा है अथवा किया जा रहा है? हालांकि, यह मानना कठिन है कि चुनाव आयोग जान बूझ कर कोई खेला कर रहा होगा, क्योंकि इस चुनाव में सबसे ज्यादा विश्वसनीयता तो उसी की दांव पर लगी है। अगर यह कोई व्यवस्थागत खामी है तो उसे अगले चरणों में दूर करने की जरूरत है।
यह बात अलग है कि अपनी कॉलर ऊंची रखने के लिए कम मतदान को सभी दल अपने अपने पक्ष में बता रहे हैं, लेकिन खुटका सभी के मन में है और खासकर भाजपा के मन में जिसने 400 पार का नारा दिया हुआ है। ऊपर से भले ही प्रधानमंत्री कम मतदान को भगवा रंग में लिपटा मानें, लेकिन अंदरखाने बीजेपी ने अपनी समूची चुनावी मशीनरी को खड़का दिया है कि किसी भी कीमत पर ज्यादा से ज्यादा वोट डलवाओ। वरना नतीजों का ऊंट दुश्मन की करवट जा बैठेगा। कुलमिलाकर डर दोनों तरफ है।
हालांकि, कम मतदान की खबरों ने अचानक विपक्ष की ईवीएम पर आस्था बढ़ा दी थी।। लेकिन बढ़ा मतदान यह आस्था फिर घटा सकता है। याद करें कि 2019 के लोकसभा चुनाव के समय टीडीपी नेता चंद्राबाबू नायडू विरोधी खेमे में थे और उन्होंने भी ईवीएम पर सवाल उठाए थे। लेकिन इस दफा वो खामोश हैं, बीजेपी के साथ हैं और सत्ता में वापसी की आस लगाए हुए हैं। उन्हें ईवीएम में कहीं कोई खोट नजर नहीं आ रहा।
–लेखक मप्र के ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हैं।