आलेख
देह रूप में सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के परलोकगमन के बाद एक सवाल सतत मन में कौंधता रहा कि लताजी को किन शब्दों में पारिभाषित करें? कैसे डिकोड करें? लता होने के मायने क्या हैं और जिस सदी में उनकी सुर लीला सजी, उसके बाद आने वाली सदियों की पीढि़यों के लिए लता मंगेशकर का क्या अर्थ होगा?
ये सवाल इसलिए क्योंकि बात केवल सुस्वरा होने की नहीं है, परफेक्शनिस्ट होने की भी नहीं है और कला की धर्म और मर्म ध्वजा लहराने की तो बिल्कुल भी नहीं है। बात जहां से तमाम मानदंडों की फिनिश लाइन खत्म होती है, वहां से शुरू होने की और पराकाष्ठा के शिखरों को वामन बना देने की ताकत की है। मुझ जैसे लोगों को, जिनका जन्म सिने पार्श्व गायन में लताजी के प्रसिद्धी की लहरो पर सवारी करने के दशक में हुआ, उनके लिए लता के सुर लोरी से लेकर मंगलाष्टक तक और प्रेमगीत से लेकर रूदाली तक सब कुछ रहे हैं। बचपन में जैसे ही कुछ होश आया तो हवाअों में जो आवाजें रेिडयो के माध्यम से कानों में बार-बार पड़ती थीं, उनमें से प्रमुख स्त्री स्वर लता मंगेशकर का ही था। तब तक न तो फिल्मों के बारे में ज्यादा कुछ पता था और न ही यह मालूम था कि पर्दे पर दिखने वाली हिरोइनें केवल होंठ हिलाती हैं, आवाज तो किसी दूसरे की होती है।ऐसी आवाज को परकाया प्रवेश का जादू जानती थी तथा पर्दे पर दिखने वाले चरित्र को और परिपूर्ण एवं जानदार बना देती थी। जीवन हर भाव को अभिव्यक्त करते उन सुरो को सुनने से लगता था कि वो कहीं अनंत से आते हैं, अनंत में ले जाने के लिए।
संयोग से मेरा ननिहाल भी इंदौर के सिख मोहल्ले के उसी तीर्थ स्थली के ठीक सामने था, जिसके बारे में मेरे नानाजी बताया करते थे कि अरे, लता का जन्म इसी सामने वाले मकान में हुआ था। हालांकि वो खुद लता के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानते थे, क्योंकि अपने जीवन में उन्होंने फिल्में बहुत कम देखी थीं। लेकिन घर में जब भी रेडियो बजता था तो उस पर हर दूसरे-तीसरे गाने में लता का नाम आना उन्हें रोमांचित जरूर करता था।
अपनी किसी समकालीन हस्ती के बारे में हमारा मनोभाव अक्सर समालोचना से भरा होता है। बीती सदी के साठ सत्तर के दशक में घरों में, चौराहों पर यह बहस आम थी कि दोन महान पार्श्व गायिकाअों में से कौन बेहतर गाता है लता या उनकी बहन आशा? कौन ज्यादा वर्सेटाइल है, लता या आशा? कौन दिल की गहराइयों में ज्यादा उतरता है, लता या आशा? कौन देह से और कौन आत्मा से गाता है, लता या आशा? किसका सुर अलौकिक है, लता का या आशा का? किसका जीवन गंगा की तरह पवित्र है लता का या आशा का? किसने जीवन को नया अर्थ दिया और किसके लिए जीवन का अर्थ केवल ऐहिक उपलब्धियों का संघर्ष है, लता या आशा? यह कहना गैर जरूरी है कि ये सवाल लताजी और आशाजी के बाद भी उतने ही अनुत्तरित रहेंगे, जितने कि आज हैं।
तो फिर लता की महानता किसमें है, किन बातों और किन तकाजों से है? क्योंकि शुद्ध गायकी की बात की जाए तो लता से भी बड़ी गायिकाएं हमारे यहां रही हैं, लेकिन वो क्लासिकल के क्षेत्र में। इसमें शक नहीं कि फिल्मी पार्श्व गायन की दुनिया में लता की तथाकथित ‘पतली’ आवाज जब से खिलने लगती है, लगभग तभी से भारतीय िफल्म जगत में पार्श्व गायन का स्वर्णिम युग भी शुरू होता है। उसे स्वतंत्र पहचान और तमाम भारतीयों की जिंदगी को नई रवानी मिलती है। लता के साथ मोहम्मद रफी, मुकेश, मन्ना डे, किशोर कुमार जैसे पुरूष स्वर उस युग को नई आभा प्रदान करते हैं तो लता के सुरो की धार उनकी समकालीन स्त्री स्वरों जैसे नूरजहां, शमशाद बेगम, गीता दत्त आदि को पीछे छोड़ते हुए तीर की तरह आगे निकलती जाती है। इसकी वजह केवल लता से गवाने का दबाव भर नहीं था, बल्कि वो चमत्कार था कि लता अपने सप्तसुरों में नवरसों की परिपूर्णता लेकर प्रकट होती है और पूरे विश्व को रसों की इस स्वरगंगा में डुबोती चली जाती है। जरा सोचिए और अपने मन से पूछिए कि जीवन के किस भाव, किस रस और किस आलोड़न में लता हमारे साथ नहीं होतीं? वात्सल्य हो, प्रेम हो। राग हो विराग हो। मां, बेटी या बहू हो, बहन हो या पत्नी हो। करूणा हो, आराधना हो। अनुनय हो, वीरत्व हो, प्रेमिका हो, संन्यासिनी हो। दुख हो या सुख हो। रात हो या दिन हो। बहार हो या खिजां हो। भगवद् भक्ति हो या राष्ट्र भक्ति हो। लता के सुर उसी भाव से एकाकार होकर अवतरित होते हैं और सीधे आत्मा से जा भिड़ते हैं।
लता, लता इसलिए भी हैं, क्योंकि दुष्प्रवृत्तियों को खारिज करती चलती है। जैसे कि क्रूरता, दुष्टता, अनैतिकता, अश्लीलता और अनाचार के भाव लता के स्वरलोक में चुपके से भी प्रविष्ट होने की हिम्मत नहीं करते। लता सुरों की आराधना के साथ साथ जीवन में कल्याणकारी और मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने वाले मूल्यों का अनहद राग भी रचती जाती हैं। वो मानवीय मूल्यों की गायिका हैं। निष्काम प्रेम और समर्पण की गायिका हैं। लता स्वयं को अपूर्ण मानकर पूर्णता के लिए प्रयत्नों की पराकाष्ठा का दूसरा नाम हैं। वो गायन के साथ तो सौ फीसदी न्याय करती ही हैं, शब्दों की अर्थवत्ता को संपूर्णता भी प्रदान करती हैं। ऐसी संपूर्णता, जिसके आगे शायद आप सोच भी न पाएं। लिहाजा ऐसे गीतो की लंबी लिस्ट है, जो महज गीत नहीं हैं बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत का स्थायी हिस्सा बन चुके हैं। याद करें लताजी के गाए अमर गीत ‘लगजा गले से’ की दूसरी पंक्ति ‘शायद इस जनम में मुलाकात हो न हो’ में ‘शायद’ शब्द का अद्भुत उच्चारण। शायद शब्द के बाद दिया गया पाॅज जीवन की क्षण भंगुरता को पूरी ताकत से प्रकट करता है। इसी तरह ‘मुगले आजम’ के गीत ‘जब प्यार किया तो डरना क्या?’ में लताजी प्रेम की निडरता का उद्घोष है, जिसे मधुबाला के अभिनय ने अमर कर िदया। लताजी हर भाव को मानो उसकी पूर्णता में व्यक्त कर सकती थीं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लता के दस श्रेष्ठ गीतो का निर्विवाद चयन आकाश के तारों की सही संख्या बताने जितना दुष्कर है। किस भाव को छोड़ें और किस रस को अलग करें।
लता मंगेशकर को गान सरस्वती कहा जाता है। यानी वो ज्ञान और कला की देवी सरस्वती का लौकिक स्वर हैं। हम सरस्वती की प्रतिमा की पूजा करते हैं, लेकिन हम नहीं जानते कि देवी सरस्वती साक्षात कैसे गाती, बोलती होंगी। लेकिन लता के आविर्भाव से बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जन्मे लोग शायद इस प्रश्न का उत्तर खोजने से बच गए।
महान संगीतकार अनिल विश्वास ने एक बार कहा था कि लता और आशा के गायन में बुनियादी फर्क यह है कि लता आत्मा से गाती है और आशा देह से। दूसरे शब्दों में कहें तो आशा गायन को जिस कठिन मोड़ पर लाकर छोड़ती हैं, लता वहीं से उठाकर उसे आकाश गंगा से एकाकार कर देती हैं। इसीलिए लता का होना केवल एक हाड़-मांस की कोकिल कंठी होना भर नहीं है। लता होना उससे कहीं बहुत ज्यादा है। अगर हम लता को कोकिल कंठी कहते हैं तो कोकिलाअों के स्वर लोक में लता को क्या कहा जाएगा लता कंठी कोकिल ? जाहिर है कि लता होना सुर संधान की पराकाष्ठा ही नहीं है, उस साधना को आचरण से प्रकाशित करना भी है। जीवन मूल्यों को कला के उच्च आदर्श में बदलना भी है। उन्हें और उदात्त बनाना है। मानवीयता को दिव्यता में तब्दील करना है। लताजी को उनका कंठ ही अलौकिक नहीं बनाता, उसूलों भरा जीवन जीना भी अलौकिक बनाता है। लिहाजा महान गायिका होना उतना कठिन नहीं है, िजतना कि महान गायिका के साथ-साथ महान लता मंगेशकर होना। उन मूल्यो के साथ जीना, जो व्यक्ति को अन्यतम बनाते हैं। उस समर्पण के साथ कला साधना करना, िजससे कला सीधे आत्मा के साथ संवाद करने लगती है। उन सुरो को साधना, िजनसे करोड़ो मन एकाकार हो जाते हैं। स्वर के माध्यम से वो भाव जगाना, जो सबको अपने ह्रदय के भाव लगने लगते हैं। वो रस पैदा करना, जिससे पूरी दुनिया समरस हो सके।
इस अर्थ में लता गुणों, मूल्यों, संकल्प, जिजीविषा, संघर्ष, विनम्रता और परफेक्शनिज्म का ऐहिक होते हुए भी एक अद्भुत और पारलौकिक संगम है। लोकप्रिय संगीत की दुनिया में शायद न तो पहले हुआ होगा और न ही आगे होगा। अगर आप मीरा की भक्ति, सीता का समर्पण, राधा का प्रेम, रानी लक्ष्मीबाई की वीरता, अहिल्या बाई सी संकल्प शक्ति को मिलाकर कोई एक प्रतिमा गढ़ना चाहें तो लता मंगेशकर ही होगी। शाश्वत स्वर लहरियों पर सवार ऐसी लता मंगेशकर दैहिक रूप में भले हमारे साथ अब न हो, अनुभूति के स्तर पर कई पीढि़यों तक साथ रहेंगी। क्योंकि सुरो की कोई ममी नहीं होती, उनकी पवित्रता और सुनने वाले की आत्मा से एक रूप होने की कूवत ही स्वरों को जिंदा रखती है। लताजी अपने पीछे यही अनमोल विरासत छोड़ गई हैं। इस विरासत को हम आगे की पीढ़ी को उसी पवित्र भाव से सौंपेंगे, इस निश्चय के साथ सिने स्वरलोक की ‘दीदी’ को सादर नमन…!
लेखक-सुबह-सवेरे’ के वरिष्ठ संपादक हैं।