आलेख
अजय बोकिल
राज्य के किसानों की दुर्दशा का मुद्दा उठाते हुए पीके ने कहा कि जन सुराज की सोच भूमि सुधार की है, सर्वे की नहीं। किसानों के लिए सुधार की योजनाएं पांच सालों के लिए लागू होंगी। उन्होंने कहा कि बिहार में 100 में से 60 लोगों के पास जमीन नहीं है। हमें केवल खाने के लिए नहीं, बल्कि कमाने वाली खेती करनी होगी।
कभी भाजपा सहित देश की कई प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने सफल चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर (पीके) द्वारा अपनी बहुप्रतीक्षित राजनीतिक पार्टी ‘जन सुराज पार्टी’ की स्थापना को सियासी हल्को में कौतुहल और प्रश्नवाचक भाव में देखा जा रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि पीके का यह राजनीतिक पदार्पण कई विरोधाभासों से भरा है। वो बिहार की उस घोर जातिवादी मिट्टी में नई जातीय और सामाजिक गोलबंदी के साथ विकास की फसल लेने की कोशिश कर रहे हैं, जो जातिवाद में गहरे तक सनी है।
पीके ने अपनी नई पार्टी का ऐलान बापू की जयंती 2 अक्टूबर को किया। उन्होंने कहा कि वो सत्ता में आए तो राज्य में आठ साल से जारी शराब बंदी को एक घंटे में खत्म कर देंगे। पीके के मुताबिक शराबबंदी से बिहार को कोई लाभ नहीं हुआ, उल्टे हर साल 20 हजार करोड़ के राजस्व हानि की चपत जरूर लगी। उन्होंने कहा कि वे शराब से िमलने वाले टैक्स को बच्चों की शिक्षा पर खर्च करेंगे। पीके ने ‘जय जय बिहार’ दिया देते हुए बिहार और बिहारियों के सम्मान की रक्षा की भी बात कही।
राज्य के किसानों की दुर्दशा का मुद्दा उठाते हुए पीके ने कहा कि जन सुराज की सोच भूमि सुधार की है, सर्वे की नहीं। किसानों के लिए सुधार की योजनाएं पांच सालों के लिए लागू होंगी। उन्होंने कहा कि बिहार में 100 में से 60 लोगों के पास जमीन नहीं है। हमें केवल खाने के लिए नहीं, बल्कि कमाने वाली खेती करनी होगी। पीके ने पार्टी की आइडियोलॉजी स्पष्ट करते हुए कहा कि जन सुराजियों की विचारधारा मानवता पर आधारित है।
हम ‘ह्यूमन फर्स्ट’ को तवज्जो देते हुए ऐसा बिहार बनाएंगे, जहां पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात से लोग रोजगार मांगने बिहार आएंगे। बिहार में गरीब बच्चों को पढ़ाई और रोजगार के लिए वोट देना होगा। पीके ने लालू यादव पर निशाना साधते हुए कहा कि लालू राज में राज्य में सड़कों, स्कूलों, बिजली और पानी की व्यवस्था नहीं हुई थी। आज मोदीजी गुजरात में जो फैक्ट्रियां लगा रहे हैं, जहां बिहारी काम करने जाते हैं। पीके ने यह भी कहा कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं चाहिए। उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि जन सुराज पार्टी बिहार में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में राज्य की सभी 243 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारेगी।
जहां तक प्रशांत किशोर की बात है तो वो बिहार के रोहितास जिले के कोनार गांव में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे हैं। उनका उपनाम पांडे है, लेकिन संभवत: राजनीतिक कारणों से वो सरनेम नहीं लिखते। इंजीनियरिंग में ग्रेजुएट होने के बाद पीके ने संयुक्त राष्ट्र संघ में आठ साल तक सेवाएं दीं। उसके बाद भारत लौटकर सहभागिता में ‘सिटीजन फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस’ (सीएजी) नाम की कंपनी बनाई। कुछ समय बाद ही उन्होंने चुनावी रणनीति बनाने वाली नई कंपनी आई-पैक की स्थापना की और पहली बार गुजरात विधानसभा चुनाव में रणनीतिक सलाह देकर राज्य में लगातार तीसरी बार मोदी सरकार बनवाने में योगदान दिया।
इसी आधार पर वो 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के चुनावी रणनीतिकार रहे। इस चुनाव में देश में पहली बार भाजपा केन्द्र में अपने दम पर सत्ता में आई। इसके बाद पीके ने कांग्रेस, जद(यू), वायएसआर कांग्रेस, डीएमके, टीएमसी, आप आदि कई पार्टियों के लिए विधानसभा चुनावों में रणनीतिकार की भूमिका निभाई और सम्बन्धित दलों को सत्ता दिलाने में मदद की। अब पीके चुनावी रणनीतिकार से खुद राजनेता बनने की भूमिका में हैं। गोया कोई सिनेमेटोग्राफर फिल्म निर्देशक की भूमिका में आ जाए।
नए रोल में पीके कितने सफल होंगे, नहीं होंगे, इस बारे में सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं। क्योंकि उन्होंने यह दांव बिहार की उस जमीन पर खेला है, जो राजनीतिक और जातिगत रूप से बेहद सचेत लेकिन विकासीय चेतना की दृष्टि से बहुत पीछे है। पीके राज्य की इस दोमट मिट्टी में मानवीयता, जातीय समरसता, किसान कल्याण और सामाजिक उत्थान के आग्रह के साथ बिहार को विकसित राज्य बनाने का सपना देख रहे हैं। उस बिहार को जो, अभी भी बीमारू राज्य के अभिशाप से उबर नहीं पाया है। जबकि चार दशक पहले इस अभिशप्त श्रेणी में बिहार के साथ शामिल रहे अन्य तीन राज्य राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश लगभग सभी क्षेत्रों में बिहार से बहुत आगे निकल गए हैं।
इस मायने में बिहार की परंपरागत राजनीति से कुछ हटकर पीके ने रास्ता चुना है। पहला तो है जातीय समरसता का। पीके स्वयं अगड़ी जाति से हैं, जिनकी संख्या बिहार में करीब 15 फीसदी है। लेकिन उन्होने अपनी पार्टी का अध्यक्ष एक दलित और रिटायर्ड आईएफएस अफसर मनोज भारती को बनाया है। मनोज भारती की राजनीतिक पकड़ कितनी है या होगी, यह तो आगे पता चलेगा। उनके अध्यक्ष रहने से बिहार में कई पार्टियों में बंटा दलित और महादलित वोट जनसुराज के खाते में आएगा, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।
वैसे बिहार को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने की पीके की सोच कुछ हद तक व्यावहारिक है। राज्य में शराबबंदी को खत्म करना नैतिक रूप से सही न भी हो, लेकिन आर्थिक रूप से एक विकल्प जरूर है, बावजूद इसके कि शराबबंदी के कारण बिहार के कई घरों में सुकून भी आया है। इसका एक कारण तो यह है कि बिहार में शराबबंदी हकीकत में कानून और कागजी स्तर पर ही ज्यादा है। सरकारी शराब बिक्री बंद होने के बाद राज्य में अवैध शराब का धंधा खूब फल फूल रहा है।
वर्तमान में सत्ता में भागीदार बीजेपी ही आरोप लगाती रही है कि राज्य में शराब बंदी के चलते अवैध शराब की 25 हजार करोड़ की समांतर अर्थ व्यवस्था पनप गई है। दूसरी तरफ अवैध और जहरीली शराब पीने के कारण हर साल मौते हो रही हैं। राज्य सरकार के आंकड़े हैं कि आठ साल में 266 लोगों ने जहरीली शराब पीकर जानें गंवाई तो अवैध शराब रखने के मामलों में 6 लाख लोगों पर मुकदमे दर्ज हैं और इनमें से भी करीब सवा लाख लोग जेलों में बंद हैं।
ऐसे में पीके का यह तर्क किसी हद तक जायज है कि राज्य सरकार शराब बिक्री से हर साल करीब 20 हजार करोड़ की आय प्राप्त कर उसे शिक्षा व विकास के अन्य कामों में खर्च करे। वैसे भी राजस्व आय कैसे बढ़े यह बिहार की बड़ी समस्या है। क्योंकि राज्य अभी भी कृषि प्रधान ही है। इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि करीब 12 करोड़ की आबादी वाले बिहार का वार्षिक बजट 2.79 लाख करोड़ रू. का ही है, जबकि 8 करोड़ की जनसंख्या वाले मप्र का वार्षिक बजट 3.65 लाख करोड़ रू. का है। एक और हैरानी की बात यह है कि पीके अपने आदर्शों में उन महात्मा गांधी को अव्वल मानते हैं, जिनके मिशन में नशामुक्ति अहम रही है।
दूसरी तरफ वो सामाजिक न्याय के पुरोधा अंबेडकर को भी अपना आदर्श मान रहे हैं। दरअसल हर नई राजनीतिक पार्टी के सामने नैतिक संकट यह है कि वो अपने आदर्श पुरूष कहां से लाए? उदाहरण के लिए ‘आप’ जिस विचारधारा पर चल रही है, उसमें उसके आदर्श भगतसिंह और अंबेडकर हैं। वहां गांधी का महत्व केवल राजघाट पर फूल चढ़ाने और गांधी प्रतिमा के सामने धरना देने तक ज्यादा है।
अब सवाल यह है कि पीके की पार्टी बिहार में क्या कमाल करेगी? क्या वो अगले विधानसभा चुनाव में निर्णायक भूमिका में आ सकने की स्थिति में है? देश में शायद दो ही ऐसी राजनीतिक पार्टियां तेलुगू देशम पार्टी और आम आदमी पार्टी हैं, जो अपनी स्थापना के एक साल के भीतर चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज हो गईं।
बाकी दूसरी पार्टियों को यह लक्ष्य हासिल करने के लिए बरसों संघर्ष करना पड़ा है। पार्टी गठन के पूर्व पीके ने बिहार में साढ़ 3 हजार किमी की पदयात्रा की। माना जा सकता है कि वो बिहार की तासीर समझते हैं। लेकिन राज्य में अगड़े,पिछड़े, अति पिछड़े, दलित, महादलित आदि जातियों के वोटों के पार्टियों में पहले से जारी बंटवारे और लामबंदी के चक्रव्यूह को पीके कैसे भेद पाएंगे, यह बड़ा सवाल है। खासकर तब कि बिहार में अगड़ी जातियां राजनीतिक दृष्टि से हाशिए पर जा चुकी हैं और पीके खुद ब्राह्मण हैं। पीके अपने भाषणों में यूं तो सभी पार्टियों के खिलाफ बोलते हैं, लेकिन कई राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि पीके की पार्टी का सॉफ्ट कार्नर भाजपा के प्रति है। कहीं ऐसा तो नहीं कि राज्य जद(यू), लोजपा, हम आदि पार्टियों को कमजोर करने के लिए पीके को उतारा गया है।
हालांकि इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। पीके जहां गांधीवाद और अंबेडकरवाद के समन्वय का नया राजनीतिक कार्ड खेल रहे हैं, वहीं मदिरा के भरोसे राज्य के आर्थिक, सामाजिक विकास का सपना भी पाले हुए हैं। राजनीतिक रूप से यह कितना कामयाब होगा, यह देखने की बात है, खासकर उस बिहार में जहां हर शै जाति से शुरू होकर जाति पर ही खत्म होती है।
-लेखक मध्यप्रदेश के ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हें।