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शांत किशोर: चुनावी स्ट्रेटेजिस्ट से सियासी एक्टिविस्ट बनने के खतरे को समझिए-अजय बोकिल

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पीके बिहार की दो गठबंधनों में बंटी राजनीति में अपनी गुंजाइश देख रहे हैं। उन्होंने कहा भी कि ‘पिछले 3 दशक से बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार का राज रहा है। लालू के 15 साल के शासन में सामाजिक न्याय का शासन चला।

प्रशांत किशोर के राजनीतिक दांव

इसे संयोग मानें या कुछ और कि देश के जिन जाने-माने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) का जन्म उनके गृह राज्य बिहार में जेपी की संपूर्ण क्रांति के फलस्वरूप हुए व्यापक सत्ता परिवर्तन के करीब एक साल बाद हुआ, वही पीके अब बिहार की तस्वीर बदलने ‘पाॅलिटिकल एक्टिविस्ट’ का बाना पहनने जा रहे हैं।

पीके के इस ऐलान से उन राजनीतिक आसामियों में भारी खलबली है, जो पीके की सेवाएं अपने सत्ता स्वार्थ के लिए लिया करते थे। लिहाजा सभी राजनीतिक खेमों से पीके पर हमले शुरू हो गए हैं। पीके अपने इस नए अवतार में कितने सफल होंगे, इसके बारे में अभी अनुमान ही लगाया जा सकता है, क्योंकि इस देश में कई राजनेता तो सफल चुनावी रणनीतिकार साबित हुए हैं, लेकिन कोई चुनावी रणनीतिकार भी सफल राजनेता साबित हुआ हो, ऐसा शायद ही हुआ है।

माना जा रहा है कि प्रशांत किशोर अपनी नई राजनीतिक पार्टी का ऐलान कर सकते हैं। शायद इसीलिए भी क्योंकि दूसरों की डोली उठाते-उठाते वो ऊब चुके हैं। अब खुद के कंधों की ताकत को आजमाना चाहते हैं।

करीब 45 साल के पीके आधुनिक राजनीति में उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसके लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और मूल्य निष्ठा वगैरह का खास महत्व नहीं है, बशर्ते अपना स्वार्थ और लक्ष्य सिद्ध होता रहे। इसे आज के जमाने में ‘प्रोफेशनलिज्म’ कहते हैं। लिहाजा उनसे किसी विचारधारागत प्रतिबद्धता और समर्पण की अपेक्षा किसी को नहीं रखनी चाहिए। वो सियासी पार्टियों को सत्ता दिलाने का ठेका लेते रहे हैं। कई बार असफल भी हुए हैं। लेकिन देश के शीर्ष राजनीतिक हल्कों में उन्होंने अपनी पहचान बनाई है, इसमें शक नहीं।

बिहार की राजनीति में पीके की एंट्री

बिहार पीके की जन्मस्थली है। उनकी पढ़ाई और पालन-पोषण वहीं हुआ। उन्होंने बिहार को बहुत करीब से देखा-जाना है। वो बिहार, जो विकास की दौड़ में आज भी बहुत पीछे है। वो बिहार, जहां राजनीति जातिवाद से शुरू होकर वहीं पर खत्म होती है। वो बिहार, जहां प्रतिभाएं जन्म लेती हैं, लेकिन इक्का दुक्का ही बिहार में रहना चाहती हैं। वो बिहार, जहां कभी महात्मा गांधी और डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद ने चंपारण में सत्याग्रह कर निलहे किसानों को न्याय दिलाया था।

वो बिहार, जहां जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा देकर पहली बार अजेय समझी जाने वाली कांग्रेस और ‘मर्द’ प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल किया था। वो बिहार, जो कभी धार्मिक-सामाजिक क्रांति की जन्म भूमि रही और आज भी जातिवाद, गरीबी, बेकारी और आर्थिक असमानता से जूझ रहा है, शायद इसलिए क्योंकि बिहार के अंतर्विरोध ही बिहार के दुश्मन हैं।

इस मायने में पीके के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती को किसी सरल समीकरण से नहीं समझा जा सकता। बिहार को विकसित राज्यों में लाने का राजनीतिक संकल्प शिव धनुष उठाने से कम नहीं है, फिर भी पीके ने हिम्मत दिखाई है। अपनी हालिया पत्रकार वार्ता में पीके ने कहा कि वो अब पाॅलिटिकल एक्टिविस्ट बनना चाहते हैं, यानी ‘स्ट्रेटेजिस्ट’ से ‘एक्टिविस्ट’ बनना चाहते हैं। कई राजनीतिक दलों से रिश्ता रखने वाले पीके के दिल में तमन्ना बिहार में बदलाव की है।
पीके ने कहा कि बिहार में परिवर्तन और नई सोच की जरूरत है। उन्होंने दावा किया कि उनकी हाल में समाज के हर तबके से बात हुई है। वह बिहार में नई सोच, बदलाव और सुराज का हिमायती है। अपनी इसी योजना के तहत पीके अगले 3-4 महीनों में 3 हजार किलोमीटर पदयात्रा करेंगे। इसकी शुरुआत गांधी जयंती से चंपारण से होगी। करीब 17 हजार लोगों से बात करेंगे।

अगर ज्यादातर लोग सुराज और नई सोच के पक्ष में रहते हैं और किसी राजनीतिक पार्टी के ऐलान की जरूरत पड़ती है तो उसका ऐलान भी किया जाएगा। उन्होंने कहा कि ये पार्टी प्रशांत किशोर की नहीं होगी।

राजनीति की गुंजाइश

हालांकि हकीकत यही है कि व्यक्ति को माइनस कर कोई राजनीतिक पार्टी इस देश में नहीं चलती। पीके मानें न मानें, संभावित पार्टी उन्हीं के नाम से जानी-पहचानी जाएगी, चलेगी–मिटेगी। दरअसल पीके बिहार की दो गठबंधनों में बंटी राजनीति में अपनी गुंजाइश देख रहे हैं।

उन्होंने कहा भी कि ‘पिछले 3 दशक से बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार का राज रहा है। लालू के 15 साल के शासन में सामाजिक न्याय का शासन चला। आर्थिक और सामाजिक रूप से जो पिछड़े थे उन लोगों को सरकार ने आवाज दी। नीतीश सरकार ने आर्थिक विकास और दूसरी सामाजिक पहलुओं पर ध्यान दिया है और विकास किया है।

पीके ने कहा कि इस बात में भी सच्चाई है कि लालू और नीतीश के 30 साल के राज के बाद भी बिहार देश का सबसे पिछड़ा और सबसे गरीब राज्य है। विकास के ज्यादातर मानकों पर बिहार सबसे पीछे है। उन्होंने कहा कि बिहार को अग्रणी राज्य की श्रेणी में आने के लिए बिहार को नई सोच-नए प्रयास की जरूरत है। यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि वह नई सोच और नया प्रयास कौन करे, और किसके पास है।

कई पार्टियों की नैया लगा चुके हैं पार

पीके की उम्मीदों को सलाम। लेकिन उनका खुद का ट्रैक रिकाॅर्ड बहुत भरोसा नहीं जगाता। शुरू में संयुक्त राष्ट्र संघ की नौकरी छोड़कर पीके पहली बार 2014 में भाजपा के साथ चुनावी रणनीतिकार के रूप में जुड़े। मोदी लहर के चलते भाजपा जीती और इसमें पीके की सफल रणनीति को श्रेय दिया गया। लेकिन इसके तुरंत बाद ही पीके बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधी खेमे के साथ हो गए और उसे जितवाया।

उसके बाद वो 2017 में पंजाब में भाजपा-अकाली गठबंधन की मुख्य राजनीतिक प्रतिद्ंद्वी कांग्रेस के चुनावी सारथी बन गए, उसे जितवाया। लेकिन कुछ जगह उन्हें मात भी खानी पड़ी। उसी साल यूपी के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की पतवार चलाते हुए पीके बुरी तरह बोल्ड हुए। उनका ‘खाट पे चर्चा’ कार्यक्रम फेल हो गया।

कांग्रेस की खाट पहले की तरह खड़ी हो गई। वैसे चुनावी रणनीतिकार के रूप में पीके का सक्सेस रेट ज्यादा है। 2019 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने जगनमोहन रेड्डी की पार्टी को तथा 2020 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली में आम आदमी पार्टी को जितवाया। 2021 में पीके पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की बंपर जीत के शिल्पकार बने। हालांकि बहुत से लोगों का मानना है, इन विजयों में पीके की रणनीति से ज्यादा सम्बन्धित पार्टी के लीडरों का जादू और राजनीतिक परिस्थितियों का हाथ है।

जो भी हो, पीके अब खुद नेता बनना चाहते हैं। और इसकी शुरुआत बिहार को जमीनी तौर पर समझकर करना चाहते हैं। ऐसी यात्राएं भारत की आत्मा को समझने में हमेशा मददगार होती हैं फिर चाहे वो नेता हो या संत, रचनाकार हो या यायावर। बहरहाल पीके के प्रयोग को देश कौतुहल से देख रहा है कि एक कुशल बौद्धिक रणनीतिकार किस तरह सफल जन नेता में रूपांतरित होता है। हो पाता भी है या नहीं।

रास्ता आसान नहीं

अकेले बिहार में उनका मुकाबला तगड़े जनाधार वाले नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव आदि से है। ये दोनों मुख्य रूप से सामाजिक न्याय, साम्प्रदायिक सौहार्द और जातीय दंबगई की राजनीति करते हैं। इसके अलावा राज्य में एक बड़ा तबका हिंदुत्ववादी भाजपा के साथ है। पीके सत्ता के इन राजमार्गों से हटकर कौन सा-मार्ग अपनाएंगे, कौन-सी नई क्रांति करेंगे, बिहार के माथे पर लगे पिछड़ेपन के बोर्ड को कैसे हटाएंगे, यह देखने की बात है।

वैसे भी बिहार वो प्रदेश है, जहां प्रवेश से पहले ही आप को जाति बताना अनिवार्य है। नहीं बताते तो लोग खुद ही पता कर लेते हैं। पीके भी अपना सरनेम नहीं लिखते, लेकिन बिहारियों को पता है कि पीके ‘पांडे’ यानी ब्राह्मण हैं और राज्य की महज 5 फीसदी अगड़ी जाति से आते हैं। यह समुदाय आज मोटे पर भाजपा के हिंदुत्व के साथ है। बिहार में जातिवाद के धान के रोपे इतने गहरे रोपे हुए हैं कि उन्हें उखाड़ कर दूसरे पौधे रोपना बेहद कठिन और बहुत ज्यादा जोखिम भरा है।

यूं भी नेक सलाह देना और उस सलाह पर अपनी समझ से अमल कर दिखाना, दोनों अलग-अलग बाते हैं। ठीक वैसे ही कि जैसे क्रिकेट के आदर्श कोच रमाकांत आचरेकर होना अलग बात है और उन्हीं के पट्ट शिष्य और ‘क्रिकेट के भगवान’ सचिन तेंडुलकर होना अलग बात है।

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