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लोकसभा चुनाव 2024: लंबे खिंचते चुनाव और सत्ता में वापसी की संभावना का सांख्यिकीय सच!-अजय बोकिल

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आलेख

अजय बोकिल

अब पहला सवाल चुनाव प्रक्रिया के असाधारण रूप से लंबा खिंचने का, इस देश में सबसे लंबा चुनाव 1951-52 में हुआ पहला आम चुनाव था, जो लगभग 4 महीने तक 68 चरणों में हुआ था। तब देश में कुल मतदाता 17.32 करोड़ थे, जिनमें से मात्र 44.87 लोगों ने ही हिस्सा लिया था। वो चुनाव लगभग एक तरफा था।

चुनाव आयोग द्वारा 18 वीं लोकसभा के निर्वाचन का कार्यक्रम घोषित होने के साथ ही विपक्ष इस 7 चरणीय चुनाव कार्यक्रम पर सवाल उठा रहा है। संदेह का आधार यह है कि आज जब प्रौद्योगिकी इतनी उन्नत हो गई है तब समूचे देश में ढाई महीने तक चुनाव प्रक्रिया चलाने का क्या मतलब है? 81 दिन तक आचार संहिता लगाकर विकास कार्यक्रमों पर इतने लंबे ब्रेक का क्या औचित्य है?

क्या इसके पीछे किसी खास राजनीतिक दल को अपनी चुनावी किलेबंदी पुख्ता करने की मोहलत देते जाने का छुपा मंतव्य है या चुनाव निष्पक्षता से कराने का आग्रह है? राजनीतिक हलको में यह सवाल भी संजीदगी से तैरने लगा है कि चुनाव प्रक्रिया के लगातार लंबा खिंचने के साथ देश क्या अघोषित रूप से उस अध्यक्षीय प्रणाली की ओर बढ़ रहा है, जिसमें जनता राजनीतिक दल से ज्यादा उसके चेहरे पर पर दांव लगाना ज्यादा बेहतर समझती है।

प्रकारांतर से यह नए किस्म का अधिनायकवाद अथवा राजतंत्र है, जो गुजरता तो लोकतांत्रिक प्रोसेस से है, लेकिन उसका मंतव्य व्यक्ति केन्द्रित सत्ता को वैधता प्रदान करना है। क्या यह चुनाव भी विचारधारा, कार्यक्रम, प्राथमिकताओं और विकास जैसे अहम मुद्दों के परे जाकर एक चेहरे को ध्यान में रखकर ही लड़ा जा रहा है? और यह भी कि किसी चेहरे विशेष पर लोकमानस की अति निर्भरता किस सत्तातंत्र की ओर इशारा करती है? सात दशकों के लोकतंत्र के बावजूद क्या भारतीय मतदाता की जड़ें अभी भी व्यक्ति आराधन से से ही सिक्त हैं। बदलाव केवल इतना है कि वंशवाद की सीमाएं लांघ कर वह अब चमत्कारी चेहरे पर केन्द्रित हो गई है।

अब पहला सवाल चुनाव प्रक्रिया के असाधारण रूप से लंबा खिंचने का, इस देश में सबसे लंबा चुनाव 1951-52 में हुआ पहला आम चुनाव था, जो लगभग 4 महीने तक 68 चरणों में हुआ था। तब देश में कुल मतदाता 17.32 करोड़ थे, जिनमें से मात्र 44.87 लोगों ने ही हिस्सा लिया था। वो चुनाव लगभग एक तरफा था। नेहरू गांधी की आंधी थी। चुनाव कुल 489 सीटों के लिए हुआ था और इसमें से कांग्रेस ने 364 सीटें जीत ली थीं।

मुख्य विपक्ष कम्युनिस्ट और समाजवादी पार्टी थे, जिन्हें कुल 28 सीटें मिली थीं। चुनाव लंबा खिंचने का बड़ा कारण शायद यह था कि समूचे देश में पहली बार आम चुनाव हो रहे थे ( लोकसभा व विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे और 89 निर्वाचन क्षेत्रों में दोहरी जनप्रतिनिधित्व प्रणाली थी। यानी एक ही सीट से सामान्य और आरक्षित वर्ग का प्रत्याशी चुना था। दोनो के लिए अलग अलग मतपेटियां रखी जाती थीं)। पूरे देश में 1 लाख 96 हजार से ज्यादा मतदान केन्द्र थे, इनमे से 25 हजार 527 महिलाओं के लिए आरक्षित थे। लेकिन तब भी चुनाव परिणामों, चुनाव प्रक्रिया के दीर्घावधि होने तथा ऐसा करने के पीछे किसी दल को लाभ पहुंचाने की मंशा पर कोई सवाल नहीं उठे थे।

तब विपक्ष बेहद कमजोर था। उस आम चुनाव में दो मुख्य विपक्षी पार्टियों ने जितनी सीटें जीती थीं, उनकी संख्या आज सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के सांसदों की संख्या की तुलना में लगभग आधी थी। इसके पांच साल बाद 1957 में हुए आम चुनाव (लोस के साथ साथ विस चुनाव भी) चुनाव आयोग ने मात्र 20 दिनो में सम्पन्न करा दिए। कम अवधि में चुनाव कराने के बाद भी कांग्रेस ही 371 सीटें जीतकर सत्ता में लौटी। यह चुनाव भी मुख्य रूप से प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की छवि और देश के नेहरूवादी विकास मॉडल को मिला जनसमर्थन था।

नेहरू सरकार के मुख्य आलोचक कम्युनिस्ट और समाजवादी थे, जिन्हें चुनाव में कुल 46 सीटें मिली थीं। 1962 तक आते- आते देश में स्वप्निल नेहरूवादी सोच की आभा घटने लगी। बेरोजगारी, अशिक्षा, महंगाई, क्षेत्रवाद जैसे मुद्दे सिर उठाने लगे। फिर भी कांग्रेस आम चुनाव में 361 सीटें जीतने में कामयाब रही। यह चुनाव भारत पर चीनी हमले के 8 माह पूर्व हो चुके थे। अगर चुनाव उस चीनी हमले में भारत की करारी हार के बाद हुए होते तो चुनाव परिणाम क्या होता, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।

अलबत्ता युद्ध में जीत अथवा शत्रु पर प्रत्याक्रमण सत्तारूढ़ दल के लिए हमेशा फायदेमंद रहे हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री पीएम बने और उनके कार्यकाल में 1965 के दौरान हुए भारत- पाक युद्ध में भारतीय सेना की सफलता ने कांग्रेस को सहारा दिया। 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस किनारे पर ही सही, 283 सीटों के साथ वापस सत्ता में आ गई। दूसरी तरफ देश राजनीतिक करवट बदल रहा था। गैर कांग्रेसवाद की भावना जोर पकड़ने लगी थी। विपक्षी पार्टियां जिनमें वामपंथी प्रमुख थे, मजबूत होने लगे थे तो दूसरी तरफ हिंदूवादी जनसंघ जैसी पार्टियों के लिए भी स्पेस बनने लगा था।

धर्मनिरपेक्षता और धर्मसापेक्षता के तेवर तीखे होने लगे थे। अंतरराष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद में टकराव तेज होने लगा था। साथ में गरीबी, महंगाई और समाजवादी सोच के प्रश्न तो थे ही। इसी दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी ने समाजवादी और वामपंथ की अोर झुका कार्ड खेलना शुरू किया। उन्होंने पुराने कांग्रेसियों को ठिकाने लगाते हुए पार्टी तोड़ी और मध्यावधि चुनाव करवाए। इसी के साथ देश में 15 साल से चली आ रही ‘एक देश, एक चुनाव’ की अघोषित परंपरा भी टूट गई। इंदिराजी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया। देश में चुनाव फिर व्यक्ति केन्द्रित हो गया। इंदिराजी की नई ‘इंदिरा कांग्रेस’ नए चुनाव चिन्ह गाय बछड़ा के साथ 352 सीटें जीतकर सत्ता में लौटी।

दूसरी तरफ पहली बार कम्युनिस्टो को पीछे छोड़ते हुए विपक्ष में हिंदुत्ववादी जनसंघ ने 35 सीटें जीतकर संकेत दे दिया कि आने वाले पांच दशकों की राजनीति की दिशा क्या होने वाली है। इंदिराजी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर ऐतिहासिक काम किया। इसका लाभ कांग्रेस को 1972 में राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में हुआ। अधिकांश जगह कांग्रेस जीती। इसी के साथ उनमें सत्ता का घमंड भी घर कर गया। विपक्ष को कुचलने के लिए उन्होंने देश में आपातकाल लगा दिया। कम्युनिस्टों का एक धड़ा इस मामले में उनके साथ था।

इसी इमर्जेंसी में इंदिरा गांधी की सरकार ने एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए भारतीय संविधान की उद्देशिका में संशोधन कर उसमें ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द भी जुड़वा दिए। जबकि आपातकाल में समूचा विपक्ष जेल में था। बाहरी और आंतरिक दबाव में देश में 1977 में आम चुनाव कराए गए। यह आम चुनाव प्रक्रिया महज 5 दिनों में सम्पन्न हो गई। 6 दलों को मिलाकर बनी जनता पार्टी, जिनमें भाजपा का पूर्ववर्ती जनसंघ भी था, 295 सीटें जीतकर सत्ता में आई। उसे भारत की ‘दूसरी आजादी’ कहा गया। लेकिन यह आजादी ज्यादा नहीं टिकी।

नेताओं की महत्वाकांक्षा की अंतर्कलह और राजनीतिक दिशाहीनता ने फिर से इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी का रास्ता साफ किया। इंदिरा गांधी ने 1980 के चुनाव में 353 सीटें जीत कर सत्ता में वापसी की। यह चुनाव प्रक्रिया भी मात्र 2 चरणों में पूरी हो गई। जबकि वोटरों की संख्या 1952 की तुलना में दोगुनी भी ज्यादा हो चुकी थी।

चुनावी चरणों के बढ़ने का सिलसिला 1984 से तेज हुआ, जब देश में आतंकवाद बढ़ने लगा। सुरक्षा सम्बन्धी समस्या और मतदान केन्द्रों की बढ़ती संख्या इसका बड़ा कारण थे। 1984 का आम चुनाव 1 महीने में 4 चरणो में हुआ। उधर विपक्ष के मजबूत होने से चुनाव ज्यादा कर्कश, बाहुबल और धनबल केन्द्रित होते चले गए। चुनाव से पहले इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। देश में सहानुभूति की लहर चली और कांग्रेस 414 सीटें जीत गई। (शायद इसी रिकाॅर्ड की बराबरी का लक्ष्य मोदीजी ने अब एनडीए के लिए रखा है)। देश के सत्ता इंदिराजी के बेटे राजीव गांधी के हाथ आई। वो परिस्थितिवश पीएम बने थे।

बहुत ज्यादा राजनीतिक व जमीनी संघर्ष का अनुभव और सियासी चतुराई उनमें नहीं थी। 1989 चुनाव वो कांग्रेस को नहीं जितवा सके। उधर वोटरों का धार्मिक और जातीय आधार पर ध्रुवीकरण और तेज हो गया। अयोध्या में राम मंदिर एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया। यह चुनाव भी मात्र दो चरणों में सम्पन्न हो गया। 1991 के चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में तो उभरी पर स्पष्ट बहुमत से दूर रही। राजीव गांधी की हत्या के बाद पी.वी. नरसिंहराव को पीएम बनाया गया। राव ने देश में समाजवादी अर्थ व्यवस्था को तिलांजलि देते हुए आर्थिक उदारीकरण को हवा दी। इससे भारत आर्थिक गर्त में जाने से बच गया, लेकिन देश की राजनीति हिंदुत्ववाद और जातिवाद में बंट गई। समाजवादी विचार हाशिए पर चला गया।

यह चुनाव प्रक्रिया भी 25 दिनो में सम्पन्न हुई। 1996 के बाद गठबंधन राजनीति और सरकारें गिरने गिराने का दौर शुरू हुआ। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में देश ने चार आम चुनाव झेले। 1999 के आम चुनाव से चुनाव प्रक्रिया लंबी खिंचने लगी। टी.एन. शेषन जैसा सख्त चुनाव आयुक्त होने के बाद भी चुनाव प्रक्रिया 55 दिनो में पूरी हुई। देश में पहली बार हिंदू और राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने।

देश में वोटरों की संख्या 1951 की तुलना में बढ़कर 3 गुना यानी 61.95 करोड़ हो चुकी थी। तमाम अच्छाइयों के बाद भी 2004 में अटलजी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन चुनाव हार गया और सत्ता कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन के हाथ आई। चुनाव प्रक्रिया 4 चरणो में डेढ़ माह में सम्पन्न हुई। वामपंथी फिर एक बार बड़ी ताकत के रूप में उभरे। 2009 की आम चुनाव प्रक्रिया पांच चरणों में सवा माह के दौरान पूरी हुई। फायदा सत्तारूढ़ यूपीए सरकार को हुआ। उसकी जीत का कारण आम आदमी की आर्थिक बेहतरी के प्रयासों को माना गया। इस बीच राम मंदिर और जातिवादी राजनीति के खिलाफ हिंदू एकता की भाजपा और संघ की रणनीति पकने लगी थी।

हिंदुत्ववादी राजनीति की जमीन तैयार हो गई थी। 2014 के चुनाव में भाजपा व संघ ने गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी को बतौर पीएम प्रत्याशी प्रोजेक्ट किया और मोदी भाजपा को 116 से सीधे 282 पर यानी पूर्ण बहुमत पर ले आए। यह चुनाव प्रक्रिया भी करीब सवा माह में 9 चरणों में पूरी हुई थी। 2019 के चुनाव में मोदी और भाजपा ने 303 का आंकड़ा छू लिया। इसमें पुलवामा कांड और पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक का भी बड़ा योगदान रहा।

मोदी दमदार नेता के रूप में स्थापित हो गए। यह चुनाव प्रक्रिया 7 चरणों में पूरी हुई। इस बार तो वोटरों की संख्या 97 करोड़ और मतदान केन्द्रों की तादाद भी 10 लाख से ज्यादा है। हालांकि चुनाव आयोग चाहता तो पूरी प्रक्रिया महीने भर में समेट सकता था। लेकिन यह समझा जा सकता है कि केवल चुनाव में चरणों का बढ़ना या घटना ही सत्ता में वापसी की गारंटी नहीं है।

संसाधनो से भी ज्यादा जरूरी जनता का विश्वास अर्जित करना है। परोक्ष रूप से अध्यक्षीय प्रणाली की ओर जाना भारतीय लोकतंत्र के लिए कितना स्वास्थ्यकर है, इस पर सवाल हो सकता है, लेकिन भारत में चुनाव पहले भी ज्यादातर चेहरों को ध्यान में रखकर ही लड़े जाते रहे हैं, अब भी वही हो रहा है।

इस बार विपक्ष ने मोदी और भाजपा के खिलाफ एकजुट होने की कोशिश जरूर की है, लेकिन जब तक उसके पास ऐसा कोई वैकल्पिक चेहरा नहीं होगा, जिसे जनता मोदी के मुकाबिल माने, तब तक दिल्ली के तख्त पर काबिज होना सपना ही रहने वाला है। राहुल के एक विकल्प के रूप में उभर जरूर रहे हैं, लेकिन मोदी को तगड़ी चुनौती वही दे सकता है, जो जमीन से उठकर राष्ट्रीय फलक पर छाया हो और जिसकी बातों में वास्तविक संघर्ष की खुशबू हो।

लेखक प्रदेश के ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हें।

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