हमें प्रतिकुलता में भी अनंतानंत आनंद और स्वसंवेदन का अनुभव करना है- आचार्य श्री विद्यासागर महाराज
सुरेन्द्र जैन रायपुर
संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ससंघ चंद्रगिरी डोंगरगढ़ में विराजमान है। आज के प्रवचन में आचार्य श्री ने बताया कि सूर्य का प्रभाव सर्दी के दिनों में कम हो जाता है।आप लोग सूर्य से उन दिनों में धूप कि आशा करते है। घर के भीतर और भी जयादा शीत का अनुभव करते हैं और बाहर तो जा ही नहीं सकते।सोचते हैं कि सूर्य आज आया नहीं जबकि सूर्य समय से आया लेकिन सूर्य के प्रताप को कोहरे का प्रताप ढक देता है। आप लोग सूर्य कि धूप उष्मा चाहते हो।कोहरा भी अपना प्रताप दिखाता है और 12 बजे तक भी सूर्य का दर्शन नहीं हो पाता है।सूर्य बदले में आपसे कुछ नहीं चाहता वह घूमता रहता है वहीँ जब सर्दी के बाद प्रतिदिन निकलता है तो आप लोग गर्मी के दिनों में उसे देखना नहीं चाहते है परन्तु कश्मीरी चस्मा लगाकर तो देख सकते हैं।उससे धूप का प्रभाव हल्का हो जाता है और छाव का अनुभव करते है।मै पूछना चाहता हूँ कि – सूर्य तो वही है फिर भिन्न – भिन्न समय में भिन्न – भिन्न परिणाम हुआ क्या ? गर्मी में धूप बढ़ जाती है तो आकुलता का अनुभव करता है वहीँ सर्दी में धूप कम हो जाती है ऊपर पहाड़ में ऑक्सीजन कम होने लगती है तो आपके परिणाम में आकुलता आने लगती है।हमारे मुनि महाराज खुले आसमान में नदी किनारे बैठकर तप करते हैं।आदिनाथ भगवान तो कैलाश में ही पहुच गए। इनके बारे में अध्ययन करिए। ग्रीष्म ऋतु में आग बरसती गिरी शिखरों में रहते हैं। वर्षा ऋतु में तरु तल रहकर परिषह सहते हैं।कर्म कही दीखता है क्या ? कर्म कभी दिखते नहीं किन्तु संवेदन में अवश्य आते हैं।हास्य कर्म का उदय होता है तो हस्ते हैं और शोक कर्म का उदय होता है तो रोना होता है।अब ये दोनों परिस्तिथि के सामने शान्ति के साथ बैठकर देखना होता है।गर्मी का संवेदन होते हुए भी किसी प्रकार से प्रतिकार न करते हुए चिलचिलाती धूप को भी सहन करते हैं। ऐसे महाराज का दर्शन दुर्लभ हो जाता है।क्या कहते हैं आप इतना पैसा देना चाहते हैं इनका दर्शन करवा दो एक बार।इतना देने से कुछ नहीं होगा यदि आप पूरा देना चाहते हो तो हम सोच सकते है।महाराज वहां पर रहकर के प्रकृति कि प्रतिकुलता में भी आत्मा के स्वभाव का अनुभव होने लग जाता है।आत्मा का अनुभव बाद कि बात है पहले इन संवेदनाओ में मेरा स्वभाव है वीतरागता।मेरा स्वभाव प्रतिकुलता में भी दीर्ण – क्षीर्ण नहीं होना चाहिये।ऐसा जो चिंतन करता है कि यह मुझे डिगा नहीं सकती, यह मुझे सूखा नहीं सकती, यह किसी प्रकार से मेरे स्वभाव में अंतर ला नहीं सकती। यह रहस्य को मैंने नहीं जाना।कर्म कि बात आप करते हो बाजू वाले का कर्म का उदय आपको नहीं होता और आपके कर्म का उदय उसे नहीं होता।चाहे पास रहो, दूर रहो, हाथ में हाथ मिलाकर रखो आपका संवेदन आपको ही होगा उसका संवेदन उसको ही होगा। आप करना चाहते हैं किन्तु होता नहीं है। आप जो कर्म किये हो उसका फल आपको मिलेगा यह सिद्धांत चाहे आप स्वर्ग, नरक, तिर्यंच, मनुष्य चाहे सेठ साहूकार हो इसमें कोई फर्क नहीं पड सकता। यह श्रद्धान के साथ ही २४ घंटे पर्वत के शिखरों पर रहते हैं, तप करते हैं और ऐसा अनुभव करने वाले शांत – मौन बैठे हैं।अपनी खुजली को मिटाने के लिये सिंह, चीते, शाकाहारी, मांसाहारी इन्हें ठूंठ समझकर खुजली खुजाते हैं।पशुओं को तो ज्ञात नहीं कि ये मुनि महाराज है लेकिन महाराज को तो ज्ञात है कि यह पशु है।पशु खुजली खुजाते हैं तो खुजाने दो।यदि थोडा सा भी हिल जायें तो सारे पशु भाग जायेंगे या उन्हीं को भगा दे लेकिन कोई भागता नहीं है बड़ा ही सुन्दर- आश्चर्यकारी दृश्य है।इस प्रकार हम अपने आप में लीन होकर न राग न द्वेष केवल शांत परिणाम रखकर तप करते हैं। यह ही मात्र रास्ता है।नियम लिया जा सकता है अपने आप को अपने स्वभाव में लाने से हो सकता है पर किसी को कहियो नहीं। कर सकते हैं जितना बने उतना तो कर ही सकते हैं। बच्चे वर्षा के बाद मिटटी में खेलते खेलते उसमे घर बांधते हैं। उसमे पैर डालकर ऊपर से मिटटी थप थपाते हैं तो कुछ समय में ही छत बन जाती है तो उसमे से पैर बाहर निकाल लेते हैं इसे घरोंदा कहते हैं। फिर उधर घर कि तरफ से आवाज आ जाती है कि रसोई तैयार है आ जाओ तो उसमे लात मारकर मिटाकर चले जाता है। पहले अनुकूलता थी अब नहीं है। यह अज्ञान दशा है।आप लोग घरों में रहते हो सेठ साहूकार आदि और गुफा में वनराज रहता है, वनराज कौन होता है ? सिंह, तो मुनि महाराज नरसिंह हैं। गुफा को तो प्रकृति ने विशेष रूप से मुनि महाराज के लिये बनाया है।वहीँ पर सिंह रहता है और वही कोने में मुनि महाराज बैठे हैं। सिंह समझ जाता है कि कोई आया है जो डरने वाला नहीं है। मुनि महाराज को तपस्या में ऐसे लीन देखता है तो सिंह को भी भेद विज्ञान हो जाता है लेकिन आपको आज तक भेद विज्ञान नहीं हुआ।जीव – जीव को देखकर भागना यह क्या है ? एक जीव दूसरे जीव को देखकर डर जाता है और पहचान हो जाये तो हाथ मिला लेता है। इस प्रकार वह पशुओं के साथ रहते हैं निष्प्रयोजन कोई धावा नहीं बोलता है। अतीत का कोई सम्बन्ध होगा तभी वह आक्रमण करता है।हर किसी के प्रति उसका स्वभाव अलग होता है। इसलिए किसी भी हालत में हमें अपने स्वभाव को प्रकृति कि ओर लाना है।प्रकृति जब – जब भी बदलती है तो वह हमारी प्रकृति को नहीं बदलती है। हमारा स्वभाव तो जानना, देखना और संवेदन करना है।इसके अलावा कुछ है नहीं इतना प्रगाढ श्रद्धान होता है, स्थिर चित्त होता है कि इतनी विषमता में भी अपने स्वभाव में रहते हैं। हमें आज यह साक्षात्कार न भी हो तो ग्रंथों के माध्यम से जब पाठ करते हैं, चिंतन करते हैं तो ऐसे – ऐसे मुनि महाराज हुए जिनकी चर्या को पढ़कर हमें भी उत्साह आता है कि ऐसे कषायमय जीवन को निष्कषायमय बना सके। जब ऐसे भद्र भाव परिणाम होते हैं तो अंतर्मुहूर्त में ही काम हो जाता है। उस मुहूर्त कि प्रतीक्षा करना है और ऐसी ही भाव बनाये रखना है।आज हम अन्दर से बाहर आये हैं सुनते हैं जनता आज ज्यादा आई है बात समझ में आ रही है लेकिन बात एक तरफ से आ रही है और दूसरे तरफ से जा रही है स्थिर नहीं है।आज ठंडक है एक माह पूर्व आते तो कूलर भी साथ में लाते लेकिन यहाँ कूलर में भी कूल नहीं हो पाते उसमे भी लू चलती थी। हमें प्रतिकुलता में भी अनंतानंत आनंद और स्वसंवेदन का अनुभव करना है।आज आचार्य श्री विद्यासागर महाराज को नवधा भक्ति पूर्वक आहार कराने का सौभाग्य चंद्रगिरी ट्रस्ट के उपाध्यक्ष श्री राजकुमार जी जैन भिलाई (छत्तीसगढ़) निवासी परिवार को प्राप्त हुआ।