आलेख
अजय बोकिल
इन अप्रत्याशित फैसलों के भीतर कई राजनीतिक संदेश छुपे हैं, जो भाजपा के स्वयंभू नेताओं के लिए तो हैं ही, उन विपक्षी नेताओं के लिए भी हैं, जो मात्र सीट बंटवारे और वोटों के कागजी गणित के भरोसे आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी को पटखनी देने का अरमान पाले हुए हैं।
भारतीय जनता पार्टी और उसके शीर्ष नेतृत्व ने हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में भारी जीत के बाद जिन अचर्चित चेहरों के हाथों में सत्ता की कमान सौंपी है, उससे ‘चौंकना’ शब्द भी फीका लगने लगा है। यह कुछ वैसा ही था कि कोई जादूगर अपनी जेब में हाथ डाले और नोट किसी भीड़ में छिपे शख्स की जेब से निकले।
मोदी- शाह ने मीडिया के तमाम अटकल मीटरों को बेकार साबित कर दिया है। लेकिन इन अप्रत्याशित फैसलों के भीतर कई राजनीतिक संदेश छुपे हैं, जो भाजपा के स्वयंभू नेताओं के लिए तो हैं ही, उन विपक्षी नेताओं के लिए भी हैं, जो मात्र सीट बंटवारे और वोटों के कागजी गणित के भरोसे आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी को पटखनी देने का अरमान पाले हुए हैं।
विधानसभा चुनावों में भाजपा के जीते हुए मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्यों में ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ की रेस असली हार्स रेस से भी ज्यादा रोमांचक होने लगी थी। दावेदारी और राजयोग में अदृश्य मुकाबला चल रहा था। मीडिया की आंखें और राजनीतिक भविष्यवाणियां उन्हीं चंद चेहरों के आसपास मंडरा रही थीं, जिन्हें परंपरागत रूप से कुर्सी की दौड़ में प्रथम पंक्ति में माना जाता रहा था। ऐसे कुछ नाम जो सीएम या फिर वो भी नहीं तो कम से कम डिप्टी सीएम पद की शपथ लेने के लिए नए सूट सिलवा चुके थे। लेकिन हाय री किस्मत! अब टीम में बारहवें खिलाड़ी की भूमिका के भी लाले हैं।
भाजपा आलाकमान ने इन फैसलों से छह संदेश दिए हैं। पहला तो कोई खुद को पार्टी से ऊपर न समझे, दूसरा भाजपा में संघ अभी भी पूरी तरह ताकतवर है, तीसरा भाजपा में कोई साधारण कार्यकर्ता भी शीर्ष पद तक पहुंच सकता है, चौथा भाजपा ने आने वाले 15 साल तक राजनीति करने वाले नए खून की फौज तैयार कर दी है, पांचवां सोशल इंजीनियरिंग में भाजपा सभी राजनीतिक दलो से मीलों आगे है और छठा, इस बदलाव के जरिए भाजपा ने आगामी लोकसभा चुनाव की जमीन भी तैयार कर दी है और तकरीबन मुद्दे भी तय कर दिए हैं।
मप्र में डा. मोहन यादव, छग में विष्णुदेव साय और राजस्थान में भजनलाल शर्मा बाकी दुनिया के लिए भले ही अचर्चित चेहरे रहे हों, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को उनकी कार्यक्षमता पर भरोसा है। अब यह इन तीनो पर है कि मिले हुए अवसर को कामयाबी में वो कितना बदल पाते हैं।
खुद को कितना साबित कर पाते हैं। हालांकि यह जोखिम तो हर उस प्रयोग में रहता है, जो राजनीति की प्रयोगशाला में पहली बार किया जाता है। मप्र में जब पहली बार शिवराज को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी गई थी तब कई लोगों ने उनकी नेतृत्व क्षमता और देसी छवि पर तंज कसा था, लेकिन वक्त के साथ शिवराज ने खुद कोन सिर्फ साबित किया बल्कि अपरिहार्य बन गए। उन्होंने अपनी राजनीति की नई इबारत लिखी। इमोशनल पॉलिटिक्स का नया सिलेबस तय किया और पूरे 18 साल तक सीएम पद पर जमे रहे।
हालांकि, पहली पारी के सीएम शिवराज और चौथी पारी के सीएम शिवराज में काफी अंतर था। उनका अपना आभा मंडल और काकस तैयार हो गया था। इस दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को भी यथासंभव किनारे लगाया और शायद इसकी इंतिहा हो चुकी थी।
यही स्थिति राजस्थान में वसुंधरा राजे की थी। राजे तो पहले से राज परिवार से हैं। लिहाजा कुर्सी पर विराजना उनके लिए नैसर्गिक अधिकार था। उन्होंने खुद को पार्टी और राज्य का भाग्य विधाता मान लिया था। अलबत्ता छग के 15 साल सीएम रहे और बाद में भाजपा में ही हाशिए पर डाल दिए गए डॉ रमनसिंह ने खुली बगावत के रास्ते पर जाने से खुद को बचाया और कुछ बेहतर पाने की आस जिंदा रखी।
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा में इस तरह क्षत्रप संस्कृति को समाप्त पर ‘एक हाईकमान कल्चर’ को लागू कर भाजपा ने बहुत बड़ा जोखिम लिया है, जो भविष्य में आत्मघाती भी हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही पार्टी का पूरी तरह आश्रित हो जाना संगठन की आंतरिक कमजोरी को दर्शाता है। यानी जब मोदी भी नहीं रहेंगे, तब क्या होगा?क्या क्षत्रपो के खंभों के बिना पार्टी का तंत्र चरमरा नहीं जाएगा? यह सवाल वाजिब है, लेकिन राजनीतिक दलों में समय रहते नए खून का संचार और उसके दिल दिमाग तक पहुंचाने की प्रक्रिया अगर कुंद हो जाती है तो उन दलों का हाल काफी हद तक कांग्रेस और वामपंथी दलों जैसा हो जाता है। कौन सोच सकता था कि पश्चिम बंगाल में 35 बरसों तक एकछत्र शासन करने के बाद आज बंगाल में माकपा को एक एक सीट के लिए भी कांग्रेस के कंधों की जरूरत पड़ रही है।
त्रिपुरा में वह हाशिए पर चली गई है। राजस्थान और मप्र में कांग्रेस में सत्ता में रहते नए और पुराने खून के बीच खुली लड़ाई हुई और लेकिन कोई सकारात्मक फैसला नहीं हो सका। मप्र में अभी भी कमलनाथ हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर प्रदेश कांग्रेस पद से इस्तीफा देना तो दूर नैतिक आधार पर ऐसा करने की पेशकश करने की भी नहीं सोच रहे हैं। विस चुनाव नतीजों में कांग्रेस की करारी हार के बाद उनके इस्तीफे ही अफवाह उड़ी थी, जिसका तुरंत खंडन कर दिया गया। अब शायद लोकसभा चुनावों के नतीजों का इंतजार किया जा रहा है।
का आशय यही कि जोखिम उठाकर भी भाजपा और संघ ने तीन राज्यों में राजनीतिक नेतृत्व में बदलाव का जो निर्णय लिया है, उसके लिए यही सही वक्त था। एक अटकल यह भी थी कि शायद तीनो राज्यों में लोकसभा चुनावों तक फिर पुराने चेहरों के हाथों में सत्ता सूत्र थमा दिए जाएं, लेकिन इसमें खतरा यह था कि बाद में इन धुरंधरों को कुर्सी से बेदखल करना नामुमकिन होता। ताजा प्रयोग से चंद बड़े और बुजुर्ग नेता भले मायूस हों, आम कार्यकर्ता बहुत खुश है और किसी भी राजनीतिक दल की असल पूंजी यही कार्यकर्ता होते हैं।
इनकी भावनाओं की अनदेखी कर राजनीतिक जागीरदारों को प्रश्रय देना सियासी दलों को महंगा पड़ सकता है। तीनों राज्यों में नए चेहरों को लेकर जिस तरह की हद दर्जे की गोपनीयता बरती गई और मुख्यमंत्री पद के आईने में अपना चेहरा देखने वालों को आखिरी दम तक मुगालते में रखा गया, वह अभूतपूर्व था और शायद इसलिए भी था कि बगावत की चिंगारी किसी भी स्तर पर न भड़के।
इसके अलावा इन तीन राज्यों में बिल्कुल ताजा चेहरों की ताजपोशी के साथ राजनीतिक और जातीय समीकरण भी साधने की कोशिश है। छग में आदिवासी चेहरे विष्णुदेव साय को सीएम बनाकर समूचे आदिवासी समुदाय को यह संदेश दिया गया है कि आदिवासी भी हिंदू ही हैं और वो हमारे लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं। इसी तरह मप्र में बिल्कुल अप्रत्याशित चेहरे डॉ. मोहन यादव को सीएम बनाकर यूपी और बिहार के यादवों को भी संदेश दिया गया है कि वो क्षेत्रीय पार्टियों के मोह से उबरें और भाजपा से जुड़ें।
मप्र और राजस्थान में दलित डिप्टी सीएम बनाकर बहनजी मायावती और उनकी पार्टी के समर्थकों को संदेश है कि भाजपा में दलितों के लिए भी पूरी जगह है। दिलचस्प बात यह है कि विस चुनाव के दौरान तीनों राज्यों में कांग्रेस पूरे समय ओबीसी जातिजनगणना का मुद्दा उठाती रही, लेकिन जिस तेलंगाना में वह स्पष्ट बहुमत के साथ चुनाव जीती, वहां उसने किसी ओबीसी के बजाए रेवंत रेड्डी के रूप में एक अगड़े को ही मुख्यमंत्री बनाया।
भाजपा शासित राज्यों में हुए नेतृत्व परिवर्तन ने इंडिया गठबंधन द्वारा उठाए जा रहे ओबीसी जाति गणना के मुद्दे की धार को खत्म नहीं तो कम से कम भोंथरा जरूर कर दिया है। ऐसा लगता है कि यह मुद्दा थोड़ा बहुत बिहार में ही कारगर हो सकता है। नए खून के हाथों में कमान सौंपने का एक बड़ा और गहरा संदेश इंडिया गठबंधन के उन नेताओं को भी है, जिनका अपने राज्यों में पुख्ता जनाधार तो है, लेकिन जहां पीढ़ी परिवर्तन के नाम पर चुप्पी है। गठबंधन में शामिल ज्यादातर बुजुर्ग और थके चेहरे हैं, जो देश, लोकतंत्र और संविधान बचाने के नाम पर अपनी राजनीतिक जमींदारियां बचाने में लगे हैं। इनमें से कोई भी अपने काबिज सिंहासन से उतरना नहीं चाहता और न ही अपने खानदान से बाहर किसी को नेतृत्व की बैटन सौंपने की जल्दी में है।
26 विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन की आगामी बैठक 19 दिसंबर को होनी है। उसमें लोकसभा सीटों के बंटवारे के किसी फार्मूले पर बात होती है या नहीं, यह देखने की बात है। लेकिन हो भी गया तो थके चेहरों और सतही जोश से लोकसभा चुनाव की जंग कैसे जीती जाएगी, यह देखने की बात है। बहरहाल चुनाव रणविजय शास्त्र की क्लास में भाजपा से कुछ तो सबक लेने ही चाहिए।
–लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हें।