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सिंहासन बत्तीसी की 23वीं कहानी – धर्मवती पुतली की कथा

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जब राजाभोज एक बार फिर सिंहासन पर बैठने लगे, तो 23वीं पुतली धर्मवती वहां आ गई। उसने राजाभोज से कहा कि तुम इस सिंहासन पर बैठने के लायक नहीं हो। मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक गुण के बारे में बताती हूं। इसके बाद 23वीं पुतली ने कहानी सुनाना शुरू किया।


एक दिन राजा भोज दरबार में बैठे अपने मंत्रियों के साथ किसी मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे। बात-बात में मंत्रियों के बीच बहस छिड़ गई कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है या कर्म से। इस मुद्दे को लेकर सभी मंत्री दो हिस्सों में बंट गए। एक गुट का मत था कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है, क्योंकि पूर्वजन्मों का कर्म ही होता है, जो मनुष्य जन्म मिलता है, वहीं संस्कार आनुवंशिक होते हैं। जैसे राजा का बेटा राजाओं की तरह व्यवहार करता है। वहीं, दूसरे गुट का मानना था कि कर्म ही सबसे ऊपर है। इसलिए, अच्छे परिवार में पैदा हुए व्यक्ति भी बुरी संगत में पड़ सकते हैं।
इस पर पहले गुट ने तर्क दिया कि फिर भी परिवार से मिले संस्कार कभी नष्ट नहीं होते, जैसे – कमल का पौधा कीचड़ में रहकर भी शुद्ध होता है। गुलाब कांटों में खिलकर भी सभी को पसंद होता है। चंदन के पेड़ पर सांप रहते हैं, फिर भी चंदन की खुशबू कम नहीं होती। दोनों गुट अपनी-अपनी बात को पूर तर्क के साथ रख रहे थे और राजा विक्रमादित्य ये सब चुपचाप बैठकर सुन रहे थे। बात को बढ़ता देख उन्होंने कि वो इसका फैसला एक उदाहरण के साथ करेंगे।


उन्होंने तुरंत आदेश दिया कि जंगल से शेर का बच्चा पकड़कर लाया जाए। राजा का आदेश मिलते ही सैनिक जंगल से शेर का नवजात बच्चा उठाकर ले आए। फिर उन्होंने एक गडरिये को दरबार में बुलाया और उसे शेर का बच्चा देते हुए कहा कि इसे बकरी के बच्चों के साथ पालना। गडरिये की समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन राजा के आदेश को न मानना उसके बस में नहीं था। इसलिए, शेर के बच्चे को साथ ले गया और बकरियों के साथ पालने लगा। उसे भी भूख लगने पर बकरियों का दूध पिलाया जाता। कुछ और बड़ा होने पर वो दूध तो पीता रहा, लेकिन हरी घास और पत्तियों की तरफ देखता भी नहीं। फिर एक दिन राजा विक्रमादित्य ने गडरिये को महल में बुलाया और शेर के बच्चे के बारे में पूछा। गडरिये ने बताया कि शेर का बच्चा बिल्कुल बकरियों की तरह व्यवहार करता है, लेकिन हरी घास नहीं खाता है।

उसने राजा से अनुरोध किया कि शेर को मांस खिलाने की अनुमति दी जाए। इस पर राजा विक्रमादित्य ने कहा कि उसका पालन-पोषण सिर्फ दूध पर किया जाए। गडरिया सोच में पड़ गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि महाराज एक मांसाहारी जीव को शाकाहारी क्यों बनाना चाहते हैं। यही सोचता-सोचता वो घर लौट गया।
शेर का बच्चा अब काफी बड़ा हो गया था। वह अब दूध के साथ कभी-कभी ज्यादा भूख लगने पर घास भी खा लेता और शाम होते ही अन्य बकरियों की तरह उसे भी बाड़े में बंद कर दिया जाता और वाे भी चुपचाप बकरियों के साथ बाड़े में आराम से बैठा रहता।
एक दिन जब शेर का बच्चा अन्य बकरियों के साथ हरी घास चर रहा था, तो पिंजरे में बंद एक शेर को लाया गया। शेर को देखते ही सारी बकरियां डरकर भागने लगीं, तो शेर का बच्चा भी डरकर भाग खड़ा हुआ। उसके बाद राजा ने गडरिये को आदेश दिया कि अब शेर के बच्चे को अलग से रखा जाए और भूख लगने पर उसके सामने खरगोश को छोड़ा जाए।
कुछ दिन अलग रहने के बाद शेर का बच्चा दूसरे जानवरों का शिकार करके खाने लगा, लेकिन गडरिये के कहने पर तुरंत बाड़े में आराम से बंद हो जाता, लेकिन धीरे-धीरे उसमें बकरियों की तरह डरने वाला स्वभाव खत्म होने लगा था। एक दिन जब फिर से उसी शेर को उसके सामने लाया गया, तो वह डरकर नहीं भागा। जब उसने शेर की दहाड़ सुनी, तो वो भी तेज आवाज में दहाड़ा।
ये सब देखने के बाद राजा ने अपने मंत्रियों से कहा कि इंसान का व्यवहार जन्म से उसके साथ होता और जब उसे मौका मिलता है, तो खुद से सामने आ जाता है। जैसे इस शेर को बचपन से बकरियों के साथ रखा गया, लेकिन उनसे अलग करते ही इसका असली व्यवहार सभी के सामने आ गया, जबकि उसे किसी ने सिखाया नहीं था। इसलिए, मनुष्य का सम्मान भी उसी के कर्म के अनुसार किया जाना चाहिए।
हालांकि, सभी राजा की बात से सहमत हो गए, लेकिन एक दीवान ने कहा कि राजकुल में पैदा होने वाला ही राजा होता, वरना सात जन्मों तक कर्म करने के बाद भी कोई राजा नहीं बनता। इस बात पर राजा विक्रमादित्य मुस्कुरा दिए।

समय बीतता गया और एक दिन उनके दरबार में एक नाविक राजा को भेंट करने के लिए सुंदर फूल लेकर आया। दरबार में मौजूद सभी लोगों ने पहली बार इतना सुंदर फूल देखा था। राजा ने सैनिकों को यह पता लगाने के लिए भेजा कि ये फूल कहां उगता है। सैनिक उस दिशा में नाव लेकर बढ़ने लगे, जिस दिशा से फूल बहता हुआ था। बहते-बहते नाव उस जगह पहुंची, जहां से यह फूल आया था।

वहां का दृश्य देखकर सैनिक हैरान रह गए। वहां एक पेड़ से योगी उल्टा लटका हुआ था और जंजीरों से जकड़ा हुआ था। जंजीरों के कारण उसके शरीर पर गहरे घाव बन गए थे। उन घावों से खून टपक रहा था, जो नदी में गिरते ही लाल रंग में फूलों में बदल जाता था। वहीं, पास में कुछ साधु बैठकर तपस्या कर रहे थे। ये सब देखने के बाद सैनिक फूल लेकर दरबार लौट आया और सारा किस्सा राजा को बताया। ये सब सुनने के बाद राजा विक्रमादित्य ने उस दीवान की तरफ देखा, जिसने कहा था कि राजा का बेटा ही राजा बनता है। महाराज ने उस दीवान को समझाया कि उस उल्टा लटका योगी मैं हूं और वहां जो संन्यासी थे, वो तुम सब दरबारी हो। ये मेरे पूर्वजन्म के कर्म ही हैं, जो इस जन्म में राजा हूं। अब मंत्री को राजा की बात समझ में आ गई। उसने मान लिया कि हमारे पूर्वजन्म के कर्म ही होते हैं, जो हमारा अगला जन्म तय करते हैं।

कहानी से सीख:

यह कहानी हमें सीख देती है कि हमेशा अपना काम पूरी लगन के साथ करना चाहिए। कठिन परिश्रम का फल एक न एक दिन जरूर मिलता है। साथ ही जब हमें सही अवसर मिलता, तो हमारा असली व्यक्तित्व सामने आ ही जाता है।

 

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