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युद्ध और विभाजन की विभीषिका झेलने वाले गुलाम हुसैन की दास्तान,गोबर से खाद बनाने ‘थांग’ आए थे बन गए भारत के नागरिक -के. डी. शर्मा

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आलेख
कृष्ण दत्त शर्मा

पर्वतीय प्रदेश लद्दाख की चट्टानी वादियों में मानवीय करुणा की कहानियां आज भी बिखरी पड़ी हैं। पूर्व में आए दिन युद्ध के तनाव और आतंक की छाया के बीच लंबा समय गुजारने वाला यह क्षेत्र अब शांत प्रदेश तो बन गया है और विकास के पथ पर भी अग्रसर है। लेकिन विभाजन की विभीषिका और युद्ध के परिणाम यहां के सीमावर्ती गांव में रहने वालों के हृदय में आज भी फांस की तरह चुभे हुए हैं। खासतौर से यह कहानी उन चार गांव के लोगों की है, जिन्हें भारत की आजादी और विभाजन के बाद अचानक हमला करते हुए पाकिस्तान ने कब्जा लिया, लेकिन 1971 के भारत-पाक युद्ध में फिर भारत की जागीर बन गए। ये चार गांव हैं चुलुंखा, तुरतुक, त्यासी और थांग।

लद्दाख की उत्तरी सीमा का अंतिम सीमावर्ती गांव है थांग।यहां के निवासी सत्तर वर्षीय गुलाम हुसैन 51 वर्ष (वर्ष 1971 से) से भारतवासी हैं लेकिन उसके पहले 19 वर्ष तक पाकिस्तान के निवासी थे। यह संभव हुआ जम्मू कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह की वजह से, जो जम्मू कश्मीर को न तो भारत के साथ में मिलाना चाहते थे और ना ही पाकिस्तान के साथ। इस दुविधा के बीच 1947 में भारत- पाक विभाजन के बाद पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर आक्रमण कर उसे कब्जाना शुरू कर दिया। महाराजा हरि सिंह की फौज कम संख्या बल और संसाधनों के अभाव में मुकाबला नहीं कर पा रही थी। अंतत: महाराजा हरिसिंह सशर्त जम्मू कश्मीर के भारत में विलय पर राजी हुए और तब भारतीय सेना ने पाकिस्तान के घुसपैठियों को खदेडऩा शुरू किया। यह मसला अंतरराष्ट्रीय बनाने की भी कोशिश हुई। इस बीच जब युद्ध विराम की स्थिति बनी जम्मू कश्मीर का एक तिहाई भाग पाकिस्तान के कब्जे में आ चुका था और दो तिहाई का भारत में विलय कर लिया गया। इस मुद्दे पर यूएनओ, भारत, पाकिस्तान और जम्मू कश्मीर के शासकों- प्रशासकों की जैसी भी भूमिका रही हो गिलगित बाल्टिस्तान के निवासियों के लिए यह नासूर बन गई।

दिसंबर 1948 में अंतरराष्ट्रीय दबाव व अन्य फैसलों- समझौतों के चलते लाइन ऑफ कंट्रोल (एलओसी) अस्तित्व में आई, जो आज तक है। लेकिन 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के बीच जब भारत ने विश्व के साथ-साथ पाकिस्तान का भूगोल बदल दिया तथा बांग्लादेश को जन्म दिया। तब बौखलाई पाकिस्तानी फौज ने लद्दाख क्षेत्र पर एक बार फिर आक्रमण किया। यह घटना 9 दिसंबर 1971 की है। इस पर्वतीय क्षेत्र में युद्ध आसान नहीं है और हुआ भी यही भारतीय सेना से थोड़ी सी झड़प के बाद ही पाकिस्तानी जवान भाग खड़े हुए। ऐसे में भारत की सेना ने पाकिस्तान द्वारा 1948 में कब्जाए गए चार गांवों की करीब 845 वर्ग किलो मीटर जमीन को अपने कब्जे में ले लिया। तब से यह गांव भारत का हिस्सा हैं और भारत सरकार और भारतीय फौज के रहमोकरम पर जी रहे हैं। लेकिन दुखद यह हुआ कि बालटिस्तान क्षेत्र के यह चार गांव तथा पूर्व से भारत में शामिल कुछ और हिस्सा तो भारत में है, लेकिन शेष बालटिस्तान आज भी पाकिस्तान के कब्जे में है और गिलगित बाल्टिस्तान कहे जाने वाले भू-भाग के निवासी जो कि सीमावर्ती गांव में दोनों तरफ रह रहे हैं, 51 वर्ष बाद भी अपने रिश्ते नातेदारों से मिलने से महरूम हैं। इस घटना की प्रासंगिकता इसलिए बन पड़ी है क्योंकि आज ही के दिन 51 वर्ष पूर्व अर्थात 16-17 दिसंबर 1971 की दरम्यानी रात ही विश्व परिदृश्य पर बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के साथ ही हिमालय की काराकोरम पहाड़ी क्षेत्र के चार गांव एक बार फिर भारत भूमि का हिस्सा बने थे।

तो हम बात कर रहे थे ऐसी हीविभाजन की विभीषिका को झेलने वाले थांग गांव निवासी 70 वर्षीय गुलाम हुसैन की जिन्हें बिना प्रयासों के ही दो-दो देशों (भारत और पाकिस्तान) के नागरिक होने का गौरव हासिल हुआ। लेकिन भारत भूमि का निवासी होने को तो गुलाम हुसैन गौरवपूर्ण मानते हैं लेकिन युद्धों के चलते परिवार से बिछुड़ जाने को दुर्भाग्यपूर्ण मानते हैं। दरअसल गुलाम हुसैन का परिवार तब फारनु गांव में रहता था और उनकी जमीन थांग गांव में भी थी। जहां वे खूबानी एकत्र करने, खाद बनाने और घास कटवाने आया करते थे। वे अपने माता-पिता की इकलौती ही संतान थे। दिसंबर माह की कड़ाके की ठंड के बीच माता-पिता ने आदेश दिया कि थांग चले जाओ और खाद बना लाओ। गुलाम बताते हैं कि उन दिनों पाकिस्तान में खाद उपलब्ध नहीं हो पाती थी। इसलिए लोग स्वयं ही गोबर और मिट्टी मिलाकर रखते और खाद तैयार करते थे। गुलाम हुसैन खाद के साथ खूबानी जिसे स्थानीय भाषा में खुरमानी कहा जाता है, उसे भी एकत्र कर रहे थे। उन्हें आए हुआ दो-तीन दिन ही हुए थे कि जानकारी मिली कि भारत-पाकिस्तान युद्ध शुरू हो गया है। अन्य लोगों की तरह उन्हें भी उम्मीद थी कि एकाध सप्ताह में हालात सामान्य हो जाएंगे। लेकिन उनका सोचना गलत साबित हुआ और 17 दिसम्बर 1971 की सुबह उठने पर उन्हें पता चला कि थांग सहित नजदीकी तीन और गांव भी भारत देश का हिस्सा हो गए हैं। थोड़ी उम्मीद तब भी बची थी कि माता-पिता के पास चले जाने का विकल्प मिल सकता है। लेकिन ऐसा भी नहीं हो सका। हालांकि भारतीय सेना का व्यवहार मित्रवत था और भरपूर मदद भी मिल रही थी। किन्तु सीमा पार जाना सख्त मना था। बीच में बहती श्योक नदी की पतली रेखा मानो लक्ष्मण रेखा बन गई जिले लांघा नहीं जा सकता था।गुलाम हुसैन बताते हैं कि वो दिन है और आज का दिन है, कभी सीमा पार बात तक नहीं हो सकी। सामान्य हालातों में पत्राचार की सुविधा थी लेकिन डाक भी डेढ़ से दो माह में पहुंचती थी। माता-पिता से मिलना उन्हें देखना अथवा पत्नी से भेंट करना संभव नहीं हो सका। हां, दूरबीन मिल जाती थी तो सीमा पार गांव देखकर खुश हो लेते थे। शादी मात्र नौ वर्ष की आयु में हो गई थी। भारत के नागरिक बने तब उन्नीस साल के थे। बच्चे थे नहीं तो पत्नी की जिंदगी खराब करने से बेहतर समझा कि तलाक दे दिया जाए। अत: पत्र लिखकर ही तलाक दे दिया। उसके बाद क्या हुआ मालूम ही नहीं चला। इतना जरूर पता चला कि अब माता पिता दोनों ही नहीं हैं।

बहरहाल करीब छह वर्ष बाद थांग गांव की ही एक लडक़ी से शादी कर ली, हालांकि वह उनसे दस साल बड़ी थी। लेकिन विकल्प खुले नहीं थे। अब गुलाम हुसैन छह लडक़े और एक लडक़ी के पिता हैं। वे कहते हैं भारत में खुश है लेकिन परिजनों की याद आज भी टीस बनकर उभरती है। ऐसी ही कहानियां इस क्षेत्र के अन्य वासियों की भी हैं। वे यह भी दावा करते हैं कि गांव का कोई घर नहीं था। जिसकी रिश्तेदारी पाकिस्तान में न हो। हालांकि उस समय छह मकानों का यह गांव आज कोई चौबीस घरों के साथ आबाद है और नया राज्य बनने के बाद सैलानियों के लिए तो खुला ही है विकास का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है।

लेखक दैनिक नईदुनिया के संपादक एवं मप्र के वरिष्ठ पत्रकार है।

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