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मल्लिकार्जुन खडगे के सामने चुनौतियां और थरूर का भविष्य?- अजय बोकिल

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आलेख

अजय बोकिल

कांग्रेस अध्यक्ष का बहुप्रतीक्षित चुनाव तो हो गया, लेकिन आगे मल्लिकार्जुन खडगे के सामने मुश्किलों का पहाड़ है, जिसे वो कैसे लांघेंगे और किस हद तक जाकर लांघेंगे। दूसरे, चुनाव लड़ने का दम भरने वाले शशि थरूर का कांग्रेस में भविष्य अब क्या होगा, क्योंकि अध्यक्ष के लिए गांधी परिवार की मर्जी के खिलाफ खम ठोंकने वाले हर नेता का अंत त्रासद ही रहा है।कांग्रेस अध्यक्ष का बहुप्रतीक्षित चुनाव तो हो गया, लेकिन आगे मल्लिकार्जुन खडगे के सामने मुश्किलों का पहाड़ है।

जैसे कि नतीजा पहले से मानो तय था कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्ययक्ष के लिए पार्टी के 137 साल के इतिहास में छठी बार हुए चुनाव में गांधी परिवार का आशीर्वाद प्राप्त मल्लिकार्जुन खडगे ही जीतेंगे और वही हुआ भी। नतीजों ने साफ कर दिया कि कांग्रेसियों और गांधी परिवार का राजनीतिक डीएनए एक ही है।

अध्यक्ष पद के चुनाव में प्रदेश कांग्रेस के 9 हजार से डेलीगेट्स ने मत डाले। इनमे से मल्लिकार्जुन खड़गे को 7 हजार 897 मत वोट मिले, जबकि शशि थरूर को महज 1 हजार 072 मतों से संतोष करना पड़ा। हालांकि थरूर की स्थिति उनके पूर्ववर्ती जितिन प्रसाद की तुलना में बेहतर रही, जिन्होंने 2000 में हुए अध्य क्ष पद के चुनाव में श्रीमती सोनिया गांधी को चुनौती दी थी और उन्हें सौ वोट भी नहीं मिल पाए थे। उसी के साथ उनके राजनीतिक कॅरियर पर भी विराम लग गया था।
मल्लिकार्जुन खडगे के सामने मुश्किलों का पहाड़
कांग्रेस अध्यक्ष का बहुप्रतीक्षित चुनाव तो हो गया, लेकिन आगे मल्लिकार्जुन खडगे के सामने मुश्किलों का पहाड़ है, जिसे वो कैसे लांघेंगे और किस हद तक जाकर लांघेंगे। दूसरे, चुनाव लड़ने का दम भरने वाले शशि थरूर का कांग्रेस में भविष्य अब क्या होगा, क्योंकि अध्यक्ष के लिए गांधी परिवार की मर्जी के खिलाफ खम ठोंकने वाले हर नेता का अंत त्रासद ही रहा है।

कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्ष पद चुनाव के इस धारावाहिक का हासिल इतना है कि कांग्रेस में संगठन के शीर्ष पद के लिए चुनाव हुए तो और दो साल पहले पार्टी में जी-23 की बगावत के तारतम्य में गांधी परिवार ने बैक सीट ड्रायविंग का अहम फैसला किया। इसी के साथ जी 23 की यह मांग कि पार्टी को एक पूर्णकालिक अध्याक्ष चाहिए भी पूरी हो जाएगी।

पहले से ये तय था

यह तय था कि गांधी परिवार का कोई सदस्य इस चुनाव में नहीं उतरेगा। लेकिन जीतेगा वही, जिसे गांधी परिवार चाहेगा। ऐसा लगता है कि गांधी परिवार भाजपा के परिवारवाद के आरोप को अपने तरीके से धोना चाहता है। वैसे भी यह चुनाव ऐसे वक्त पर हुआ है, जब दो राज्यों हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव होने हैं और राहुल गांधी लंबी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर निकले हुए हैं।

हिमाचल में कांग्रेस सत्ता में आती है या नहीं और गुजरात में वो भाजपा के साथ आम आदमी पार्टी से भी दो-दो हाथ कर अपना वजूद कैसे बचा पाती है, इस पर राजनीतिक प्रेक्षकों की पैनी निगाह है। अगर यहां से कुछ अच्छी खबर मिली तो 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए भी कांग्रेस को संजीवनी मिलेगी। ऐसा लगता है कि कांग्रेस दोहरी रणनीति पर चलेगी।

संगठन की कमान जाहिरा तौर पर खडगे के हाथों में रहेगी और पार्टी प्रचार की कमान राहुल गांधी संभालेंगे। इसमे सुविधा यह है िक अगर कांग्रेस जीती तो सेहरा राहुल के सिर होगा और हारी तो खडगेजी हैं ही।

बावजूद इसके खडगे के पक्ष में यह बात है कि वो बहुत अनुभवी और जमीन से उठे राजनेता हैं। साथ में दलित भी हैं। कर्नाटक से होने के बाद भी काफी अच्छी हिंदी जानते हैं। हालांकि राजनीति के कुरूक्षेत्र उत्तर भारत में उनकी पहचान ज्यादा नहीं है। उनके सामने असली चुनौती कांग्रेस संगठन में जमीन से लेकर शीर्ष स्तर तक जान फूंकने की है। तदर्थवाद समाप्त कर जुझारू चेहरों को आगे लाने और उन्हें पार्टी की कमान सौंपने की है।
पार्टी संगठन को हर स्तर पर सक्रिय बनाने और समय पर निर्णय लेने और उसे लागू कराने की भी जरूरत है।

अभी कई चुनौतियां बाकी

हर चुनाव को पूरी ताकत से लड़ने और कार्यकर्ता में सत्ता की भूख पैदा करने की है। क्योंकि कांग्रेस में बरसों से गणेश परिक्रमा करने वालों को ही ‘प्रसाद’ मिलने का चलन रहा है। पार्टी में शीर्ष स्तर से लेकर राज्यों और जिला इकाई स्तर पर भी अंतर्कलह इस हद तक है कि अपने ‘आतंरिक लोकतंत्र पर गर्व’ करने वाली इस पार्टी के पास इस मर्ज का कोई शर्तिया इलाज नहीं है।

उदाहरण के लिए राजस्थान में फिलहाल गेहलोत और सचिन पायलट में जारी युद्ध विराम ‘युद्ध के पहले की शांति’ की तरह है। कब विस्फोट होगा, कहा नहीं जा सकता। जाहिर है कि जो घाटे में रहेगा, वो कांग्रेस में भी रहेगा कि नहीं, इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता। उधर छत्तीसगढ़ में भी पार्टी में असंतोष भीतर ही भीतर धधक रहा है, जो अगले साल विधानसभा चुनाव के पहले किसी भी रूप में सामने आ सकता है।

पिछले साल केरल में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सत्ता में आते-आते इसी वजह से रह गई कि कांग्रेस के चेन्नीथला और ओमन चांडी गुट ने एक दूसरे के खिलाफ भीतरघात किया और कांग्रेस आला कमान कुछ नहीं कर सका। पार्टी जहां विपक्ष में है, वहां भी हालात ठीक नहीं है। मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया इसी कारण कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए।


गुटबाजी कैसे होगी कम?
खडगे के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है कि कांग्रेस में गुटबाजी कम हो और कार्यकर्ता को ज्यादा महत्व मिले। पार्टी जनता के मुद्दों को लेकर सड़कों पर संघर्ष करती दिखे। अभी जो कुछ होता है, वह क्षणिक उत्सव की तरह ज्यादा है। उसमें भी स्थानीय नेताअों के अपने स्वार्थ काम करते हैं।

इससे भी बड़ी बात कांग्रेस से युवाओं को जोडने की है। यूं राहुल गांधी के साथ 119 भारत यात्री भी चल रहे हैं, लेकिन ये किसी राजनीतिक परिवार के लोग नहीं हैं। ये आगे कांग्रेस के लिए काम करेंगे और कैसे करेंगे, यह अभी साफ नहीं है। उधर खडगे की बातों और व्यक्तित्व से देश के युवा कितना कनेक्ट कर पाएंगे, कहना मुश्किल है।
संगठन को मजबूत करने की जरूरत
इसी तरह पार्टी संगठन को हर स्तर पर सक्रिय बनाने और समय पर निर्णय लेने और उसे लागू कराने की भी जरूरत है। इसके लिए खडगे को बहुत ज्यादा मेहनत करने और फ्री हैंड की जरूरत है। अगर खडगे यह सब नहीं कर पाए तो उनका कार्यकाल महज औपचारिकता ही रह जाएगा।

खडगे क्या करेंगे, इससे भी ज्यादा दिलचस्पी का विषय यह है कि शशि थरूर का क्या होगा? यूं कहने को दोनो के बीच यह मुकाबला दोस्ताना ही था। लेकिन सत्ता की दौड़ में हर कोई प्रतिद्ंद्वी होता है, दोस्त नहीं। लिहाजा खडगे और गांधी परिवार भी इस बात को शायद ही भूल पाएगा कि थरूर ने सर्वोच्च सत्ता को चुनौती दी है। अब आगे संगठन में उनकी क्या भूमिका होगी, पार्टी उनको कितना बर्दाश्त कर पाएगी, देखने की बात है।

पिछला इतिहास देखें तो कांग्रेस में शीर्ष सत्ता को चैलेंज करने वाले किसी भी नेता का भविष्य सुनहरा नहीं रहा है। थरूर अपवाद साबित होंगे, इसकी संभावना नहीं के बराबर है। फिर थरूर क्या करेंगे? पार्टी में ‘हाईकमान कल्चर’ बदलने की उनकी मुहिम पर चुनाव नतीजों ने घडों पानी डाल दिया है।

संदेश साफ है कि कांग्रेस गांधी परिवार की बैसाखी पर ही चलेगी। क्योंकि वह उसे बैसाखी नहीं राजदंड मानती है। थरूर इस बात पर संतोष कर सकते हैं कि उन्होने ठहरे पानी में पत्थर फेंककर कुछ हलचल तो पैदा की। लेकिन आगे उन्हें पार्टी में कोई भूमिका नहीं मिली या कोई सम्मानजनक काम नहीं मिला तो वो दूसरे विकल्पों की ओर जा सकते हैं। हो सकता है कि इतिहास बनाने की कोशिश में वो खुद इतिहास बन जाएं। क्योंकि पार्टी के भीतर लड़ते रहने की भी एक सीमा है।

लेखक राजधानी भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार है।

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