आलेख
विवेक त्रिपाठी
भोपाल में एक अफ़सर थे, पंडित जी ज्ञानी आदमी थे, प्रोफेशन ही नहीं उन्हें धर्म कर्म और आध्यात्म की भी अच्छी समझ थी, महफिल में बैठते तो आधा घंटा किसी ज्ञान वाले टॉपिक पर बोलते ही जाते। फिर आधा घंटे बाद पूछ लेते- ज़्यादा तो नहीं हुआ?..r u comfortable..ऑब्जेक्शन नहीं आया तो फिर आधे घंटे और.. ज्यादातर लोग सम्मान भाव के कारण सुनते रहते, किंतु कुछ ऐसे भी थे जो कुछ न कुछ कारण बता कर खिसक लेते थे।
साहब साफ सुथरे,और जितना है उसी में संतुष्ट रहने वाले सीधे-साधे आदमी हैं, कभी किसी अच्छी पोस्टिंग की जिद नहीं की, आखिरी के 10 – 12 साल लूप लाइन रहे। उनके बंगले में भी जाएंगे तो जितने में रहते हैं,बस उतना घर साफ सुथरा मिलेगा, बाकी हिस्सा चिड्डा गिलहरी और भगवान भरोसे।
भोपाल की एक परंपरा है, होली के अगले दिन अफसर लोगों से मिलने की। सब लोग असिस्टेंट कमिश्नर के घर फिर वहां से डिप्टी कमिश्नर और अंत में कमिश्नर, इस घर से उस घर एक काफिला चलता, सबसे मिलना जुलना आशीर्वाद लेना और देना। ऐसी ही एक आशीर्वाद यात्रा का हम भी पार्ट बने और चार इमली स्थित साहब के बंगले पर पहुंचे। साहब के बंगले पर सब पहुंचे, बैठे, शुभकामनाएं दिए, होली का टीका लगाए, और फिर बैठे-बैठे गप्पे बाजी शुरू हुई।
पास ही एक लंबा ऊंचा पतला कुत्ता बैठा ऊंघ रहा था, हड्डियां मजबूत लग रही थी पर चर्बी छठ गई थी। मैंने पूछा सर यह कौन सी नस्ल का है? साहब बताए कि यह जर्मन शेफर्ड है। मैं बोला सर जर्मन शेफर्ड लग नहीं रहा है, जर्मन शेफर्ड तो पूरा खूंखार और ताकतवर कुत्ता होता है। साहब ने बताया की यह ब्राह्मण जर्मन शेफर्ड है।
दरअसल उनके कोई परिचित थे जिन्होंने इस जर्मन शेफर्ड को पाल रखा था, तब उनके यहां यह पिडिग्री खाता था, चिकन खाता था। किसी वजह से उन्हें बाहर जाना पड़ा तो उन्होंने इसे अपने साहब के यहां छोड़ दिया था और पिछले एक-दो साल से यह यहीं पल रहा था।
किंतु साहब ठहरे शुद्ध शाकाहारी संस्कारी ब्राह्मण, साहब ने उसका मटन चिकन और पेडिग्री सब छुड़वा दी, उसको शुद्ध तरकारी भाजी और दूध रोटी खिलाने लगे। दूध रोटी खिला-खिला के जर्मन शेफर्ड की चर्बी छांट दी और इस तरह वह बन गया ब्राह्मण का संस्कारी कुत्ता..।
इन साहब के एक और साथी साहब थे, वो भी अब रिटायर हैं। वह खुद तो मटन चिकन के खूब शौकीन थे, किंतु कुत्ता हमेशा शाकाहारी और शांत स्वभाव का पालते थे। साहब खुद भी बड़े शांत स्वभाव के हैं, सबके साथ भला करने वाले अफ़सर, उनके घर जाओ तब उनका कुत्ता ना सूंघता, ना ऊंघता बस पड़ा रहता; साहब उसको देख-देख कर ही खुश रहते। साहब ने उस निरीह की पर्सनालिटी में मनुष्य की पेसिव पर्सनैलिटी का आरोपण किया हुआ था।
कई और ऐसे साहब लोग आपको मिलेंगे जो अपने माता-पिता को भले घर में ना रखें पर एक कुत्ता या बिल्ली घर में जरूर रखेंगे, सुबह-सुबह कुत्ता चराने भी जाएंगे, रोज़ साबुन शैंपू लगेगा..। हमारे एक साथी हैं कुंभ यात्रा के दौरान तीन दिन से प्रयागराज के रास्ते में अटके हुए थे, साथ में जर्मन शेफर्ड भी था; कड़े परिश्रम बाद जब वे संगम पहुंचे तब खुद तो लगाई ही, एक डुबकी जर्मन शेफर्ड को भी लगवाई।
कई बार हम ऐसे दृश्य देखते हैं कि किसी मंदिर में शिवलिंग में नाग देवता प्रतिदिन आते हैं, छत्तीसगढ़ में एक बड़ी शॉप में नियमित एक गाय आती है; कोई बंदर हनुमान जी के रूप में मंदिर आता है। कभी मैं एक जैन मंदिर गया हुआ था तो वहां मुझे जैन साध्वी माताजी मिलीं जिनके पास मंदिर में एक कुत्ता सालों से पल रहा था; माताजी भक्तों को बता रहीं थी कि यह कुत्ता शाकाहारी है; शाकाहारी ही नहीं यह 20- 22 दिन हमारे साथ व्रत रख लेता है, पूर्व जन्म में यह कोई पुण्य आत्मा था जो इस जन्म में कुत्ते के रूप में प्रकट हुआ।
कल्पना करिए आप शाकाहारी है और किसी शेर को या किसी चीते को अपने स्वभाव जैसा बनने के उद्देश्य से उसकी डाइट में उसे दूध रोटी अथवा साग सब्जी खिलाने लग जाएं; क्या होगा? टाइगर की हड्डियां दिखने लगेगी, आंखें बाहर आ जाएंगी, बहुत जल्दी वो मर जाएगा।
प्रकृति ने हर जीव को एक खास तरह से बनाया है। सृष्टि में जैव विविधता है, कई तरह के जीव जंतु हैं, मनुष्य मांस भी खा लेता है किन्तु वह मूलत: शाकाहारी है। शेर चीता पूर्णत: मांसाहारी हैं और गाय बकरी शाकाहारी।
कोई जीव मांसाहारी है या शाकाहारी इसकी पहचान केनाइन दांत से करिए, मांसाहारी जीव के दो ऊपर और दो नीचे ऐसे कुल चार शक्तिशाली तीखे नुकीले दांत मिलेंगे, शाकाहारी में नहीं क्योंकि मांसाहारी जीव को चीरने फाड़ने के लिए लंबे तीखे नुकीले ताकतवर दांत की जरूरत पड़ती है। मनुष्य में या गाय बकरी में 32 के 32 दांत एक समान होते हैं।
कुत्ता मूलत: मांसाहारी जीव है, क्योंकि कुत्ते के दांत मांसाहारी पैटर्न में है; हमने कुत्ते को डॉमेस्टिकेट कर लिया है इसलिए वह दूध रोटी भी खा लेता है पर उसका जो मूल भोजन है वह मांस है। एक कुत्ते को दूध रोटी खिलाना यहां तक भी ठीक है पर यदि आप उसको नियम व्रत उपवास भी सिखा रहे हैं तो आप उसके साथ क्रूरता कर रहे हैं।
ठीक है, कुत्ते में सीखने की प्रवृत्ति होती है, पुलिस में अपराधियों को पकड़ने के लिए कुत्ते रखे जाते हैं इसके लिए खास तरीके की उनको ट्रेनिंग दी जाती है। ठीक इसी तरह यदि आप उसको शाकाहारी व्रत उपवास वाला नियम कायदा सिखाएंगे तो वह भी बेचारा सीख लेगा, वह व्रत उपवास करने लग जाएगा पर ऐसा करके आप उसके साथ अत्याचार कर रहे हैं। सिर्फ शाकाहार और यम नियम किसी मनुष्य के लिए ठीक हो सकते हैं किंतु दुनिया के लिए नहीं।
व्यक्तिगत जीवन में मैं शाकाहार को ही अच्छा मानता हूं, मैं खुद शाकाहारी हूं पूर्ण शाकाहारी हूं और मैं तो यहां तक मानता हूं की तमाम धर्म आपने और हमने बनाए हैं। सबसे बड़ा धर्म है जीव के प्रति हिंसा न करना, खास कर निरीह जीव जंतु जो बोल नहीं पाते, जिनको ईश्वर ने हमारे जैसा मस्तिष्क नहीं दिया है; हम ताकतवर है, हमारा ज्यादा उन्नत मस्तिष्क है तो हम दादागिरी करते हैं और किसी निरीह जीव को कभी धार्मिक बलि के नाम पर या किसी त्यौहार में खुशी के लिए खरीद कर लाते हैं, फिर उसके पैर बांधते हैं और फिर काट देते हैं।
एक मनुष्य जिसके लिए खाने पीने की चीज बिना हत्या किए भी उपलब्ध है उसके लिए शाकाहारी होना तो समझ में आता है लेकिन एक मांसाहारी जानवर को शाकाहारी बनाना उसके साथ जबरदस्ती करना है।
एक बात और, कोई सामान्य धार्मिक व्यक्ति धर्म का इतना सरलीकरण कर देता है कि पूछिए नहीं। मैं भी मानता हूं कि कोई ऐसी एनर्जी लेवल है, कोई अव्यक्त असीमित ऊर्जा का स्रोत है जिसे हम भगवान गॉड या अल्लाह कह सकते हैं, लेकिन सामान्य किसी व्यक्ति अथवा किसी जानवर या किसी वस्तु को भगवान के रूप में मानना यह हमारे मन की उड़ान के अतिरिक्त कुछ नहीं।
यह संसार इतना सरल नहीं है जितना हम लोग उसका सरलीकरण कर देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे मेरे पिता मेरे लिए भगवान हो सकते हैं लेकिन मेरे अलावा दूसरों के लिए वह भगवान नहीं होंगे।
दरअसल हम एक समाज या संस्कृति का निर्माण करते हैं, फिर सामाजिक सांस्कृतिक मूल्य पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ते हैं। एक समय ऐसा आता है कि हमारे समाज के लोग हमारी संस्कृति के मूल्यों को ईश्वरीय मानने लग जाते हैं और मान लेते हैं कि यही अंतिम सत्य है, इसके अलावा कुछ नहीं। यही हम गलती करते हैं, ईश्वर और जन्म मृत्यु से जुड़ी तमाम कल्पनाएं सांस्कृतिक हैं। हम कुछ और(ईश्वर) मानते हैं, यूरोप का आदमी कुछ और(गॉड) मानता है और सऊदी अरब का आदमी कुछ और (अल्लाह).. ईश्वरीय सत्य को सार्वत्रिक और सार्वभौम होना चाहिए, जो हमारे लिए सत्य है वही उनके लिए , पर ऐसा तो नहीं होगा कि हमारे लिए वह सत्य है दूसरों के लिए असत्य।
मदरसे में एक बच्चा पूछता है- “मौलाना फिजिक्स की किताब में उसने पढ़ा है, कि सूर्य स्थिर है जबकि धरती उसके चारों ओर चक्कर लगाती है। मौलाना कहेगा- “बेटा विज्ञान गलत कहता है, मजहब का ज्ञान ही सही है हमारी क़िताब कहती है कि पृथ्वी साकिन (स्थिर) है, सूरज ही इसके चारों ओर चक्कर लगाता है और तुम इसे ही सही मानों।
जैन धर्म में ईश्वर की कल्पना नहीं है, फिर सृष्टि का संचालन बिना ईश्वर के कैसे हो रहा है? जैन फिलासफी कहती है कि एक फार्मूला है उसमें चीजों का ट्रांसफॉर्मेशन होता है, एक फार्म से दूसरे फॉर्म में गति निरंतर चलती रहती है स्वरूप बदल जाता है।
थ्योरी ऑफ़ मेटर का संबंध प्रकृति के नियमों से है, यह नियम सार्वभौम और सार्वत्रिक हैं। रॉबर्ट बॉयल की कॉर्पसक्यूलरियन परिकल्पना में कहा गया है कि “सभी भौतिक निकाय अंततः पदार्थ के छोटे कणों के संयोजन हैं” जिनमें “वही भौतिक गुण होते हैं जो बड़े मिश्रित निकायों में होते हैं”। Ontology is the philosophical study of being यानी ऑन्टोलॉजी (तत्वमीमांसा) में मेटर अथवा पदार्थ के साथ चेतना के अस्तित्व को भी स्वीकार किया गया है जिसे अद्वैतवादी , द्वैतवादी या बहुलवादी रूपों में समझा जा सकता है। दुनिया में कितने पदार्थ मौजूद हैं? अद्वैतवादी विचारों के अनुसार, केवल एक ही पदार्थ है जबकि द्वैतवाद दुनिया को दो मौलिक पदार्थों- जड़ (निर्जीव) और चेतन (जीव) से बना हुआ देखता है।
वैशेषिक दर्शन (कणाद ऋषि) परमाणुवाद, यथार्थवाद और द्वैतवाद पर आधारित है, जिसके अनुसार संसार की सभी वस्तुएँ परमाणुओं से बनी हैं, जो अविभाज्य और अविनाशी हैं। द्रव्य यानी मेटर को संसार की मूल सत्ता माना गया है, जो नित्य और अविनाशी है।
जैन दर्शन के अनुसार, ब्रह्मांड छह शाश्वत पदार्थों से बना है: संवेदनशील प्राणी या आत्मा ( जीव ), गैर-संवेदनशील पदार्थ या पदार्थ ( पुद्गल ), गति का सिद्धांत ( धर्म ), विश्राम का सिद्धांत ( अधर्म ), स्थान ( आकाश ) और समय ( काल )। इन 6 तत्वों या पदार्थ की भी दो श्रेणियां है – जीव और अजीव; आत्मा जीव है और शेष पांच अजीव या जड़। भारतीय दर्शन का वैशेषिक स्कूल भी द्रव्य की ऐसी ही अवधारणा से संबंधित है।
कांट के अनुसार पदार्थ के रूप में आध्यात्मिक आत्मा का दावा एक सतही, अप्रमाणित और पूरी तरह से मनमानी बात है। कुछ धर्म थ्योरी ऑफ़ मैटर को मानते हैं तो कई नहीं, ब्राह्मण और जैन इसे स्वीकारते हैं तो बौद्ध धर्म पदार्थ की अवधारणा को अस्वीकार करता है। मूल प्रश्न यही है कि कोई धर्म विशेष के सिद्धांत प्रकृति के नियमों से मेल खाते हैं अथवा नहीं?
जानवर में बुद्धि नहीं होती किंतु वह आपकी नकल करता है धीरे-धीरे उसमें वैसा ही करने की हैबिट आ जाती है। एक कुत्ते को यम नियम और संस्कारों से कोई मतलब नहीं है और ना एक बंदर को हनुमान जी से.. सब प्रकृति के बनाए नियम के अधीन बिहेव करते हैं। हम मनुष्य ने अपने फायदे अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए जानवर को तरह-तरह से इस्तेमाल किया, बकरे को फूल माला चढ़ाते हैं, पूजा करते हैं और फिर मंदिर में बली ले लेते हैं। बंदर को हनुमान जी का अंश मानते हैं और उनके रहवास यानी जंगलों को हमने खत्म कर दिया। शेषनाग ने पृथ्वी का भार उठा रखा है, नाग पंचमी के दिन सांप को दूध पिलाते हैं और इसके बाद जब कहीं मिलता है तो मार देते हैं।
ब्रह्मांड में कोई असीम ऊर्जावान शक्ति है जिसे हम ईश्वर कहते हैं, उसने यदि यह दुनिया बनाई है तो सिर्फ मनुष्यों के लिए नहीं बनाई; मनुष्यों के इतर जीव जंतुओं का भी उतना ही हक है जितना हमारा; किंतु ईश्वर ने हमें ज्यादा बुद्धिमान बनाया, इसलिए हम दादागिरी करते हैं। जानवरों का जैसा मन किया वैसा इस्तेमाल करते हैं, उन पर अत्याचार करते हैं, उनका शोषण करते हैं; ठीक वैसे ही जैसे हम अपने समाज के भीतर दलितों पिछड़ों का..
प्रकृति के नियम ही अंतिम सत्य हैं, जबकि धर्म के नियम आर्टिफिशियल। मानव निर्मित परंपरा, मूल्य और धर्म का जब प्रकृति के नियम से अनुकूलन होगा तब धर्म के नियम सटीक होंगे अन्यथा अनुमानित। मैं जो कहता हूं और जो सोचता हूं वही सत्य है और बाकी सब झूठ, ऐसा मानना अपने आप में सबसे बड़ा असत्य और झूठ है।
जैन धर्म तो स्वयं किसी एक सत्य को अंतिम नहीं मानता, श्यादवाद /अनेकांतवाद/शप्तभंगी सिद्धांत क्या है?
अंततः बात यही कि हम जर्मन शेफर्ड को संस्कारी नहीं बल्कि जर्मन शेफर्ड ही रहने दें, बंदर को हनुमान जी का अंश नहीं बंदर ही रहने दें, यही सही है। धर्म जाति संप्रदाय भाषा क्षेत्रीयता हम मनुष्यों ने बनाई है, मूक प्राणियों में ज्यादा बुद्धि और तर्क ज्ञान नहीं होता इसलिए वह वही करते हैं जैसा प्रकृति ने उन्हें बनाया है, किंतु मनुष्य को ईश्वर ने विकसित मस्तिष्क दिया है, इसलिए वह प्रकृति के नियमों के साथ छेड़छाड़ करके आर्टिफिशियल चीज़ें बनाता और धार्मिक नियम गढ़ता है।
कुत्ता, कुत्ता है; ना वह ब्राह्मण है, ना हिंदू ना जैन और ना संस्कारी। वह एक कुत्ता है और एक कुत्ते को जब हम कुत्ते के रूप में स्वीकार करेंगे तभी वह कुत्ता रहेगा। खुद जियो और दूसरों को भी उनकी प्रकृति स्वभाव अनुसार जीने दो।
–लेखक मप्र आबकारी विभाग में इंस्पेक्टर हे।
डिस्कलेमर – लेख में दिये विचार लेखक के अपने हे।इसमें एमपी टुडे न्यूज़ की सहमति असहमति नही हे।