आलेख
चुनाव के पहले सत्ता सुख की चाह में दलबदल भारतीय राजनीति में नई बात नहीं है, लेकिन देश में यूपी सहित पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावो की शुरूआत में पार्टी छोड़ने वाले विधायकों-मंत्रियों की सबसे ज्यादा संख्या अगर बीजेपी में है तो इसके गंभीर राजनीतिक मायने हैं। यूपी में पिछड़ों के बड़े नेता और योगी सरकार में मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य और उनके साथ 3 भाजपा विधायकों का पार्टी छोड़ समाजवादी पार्टी में शामिल होना राज्य में तेजी से बदल रहे समीकरण का संकेत दे रहे हैं। स्वामी को उत्तर प्रदेश का राम विलास पासवान माना जा सकता है। अमूमन सत्ता परिवर्तन की आहट वो सुन लेते हैं और उसी नाव में सवार हो जाते हैं, जो किनारे लगने वाली होती है। 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले वो बसपा छोड़ भाजपा में आए थे। उससे भी पहले लोकदल छोड़कर बसपा में गए थे। बसपा में वो नंबर दो थे फिर भी पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी के सत्ता में आने की पदचाप शायद उन्होंने पहले ही सुन ली थी। इस बार वो 3 विधायकों सहित समाजवादी पार्टी की गोदी में उस वक्त जा बैठे, जब भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व दौर की 58 सीटों पर चुनाव के लिए प्रत्याशियों के नाम फायनल करने बैठा था।
2017 के विस चुनाव में राज्य की 403 में से 312 सीटों पर बंपर जीत और 39.67 फीसदी वोट लेने वाली बीजेपी ऊपरी तौर पर भले ही इसे चुनाव के पहले की नेताअों की रूटीन ‘आवाजाही’ बताए लेकिन असंतुष्ट चल रहे स्वामी ने तगड़ा झटका तो दिया ही है।
क्योंकि यह झटका केवल दूसरी पार्टी में जाकर खुद, अपने परिजनो और समर्थकों को टिकट दिलवाने तक ही सीमित नहीं है, यह भाजपा की उस चुनावी रणनीति को भी झटका है, जिसके अंतर्गत वह पिछले एक साल से खुद को पिछड़ा वर्ग हितैषी पार्टी के रूप में प्रोजेक्ट करती आ रही है। स्वामी प्रसाद अंबेडकरवादी पिछडे हैं और उस मौर्य जाति से आते हैं, जिनकी संख्या राज्य में करीब 6 फीसदी बताई जाती है। ऐसे में संदेश यह जा रहा है कि अगर भाजपा की अोबीसी केन्द्रित राजनीति से अोबीसी ही खुश नहीं हैं तो फिर कौन खुश है? स्वामी तो अभी गए हैं, उनके पहले पिछड़ी राजभर जाति के अोमप्रकाश राजभर भी अपनी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का समाजवादी पार्टी से चुनावी गठबंधन कर चुके हैं। इसी तरह जाटों की पार्टी ‘राष्ट्रीय लोक दल’ ने भी सपा से समझौता किया है। जाट यूपी में पिछड़े वर्ग में शामिल हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 20 जिलों में जाट वोट बैंक 14 फीसदी है। हालांकि जाटों में बीजेपी की भी अच्छी पैठ है, लेकिन किसान आंदोलन के बाद राकेश सिंह टिकैत जाट वोटों का रूझान तय करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। भाजपा टिकैत को ‘मैनेज’ नहीं कर पाई तो जाटों का समर्थन रालोद को जा सकता है, जो सपा के साथ है। इसका भारी नुकसान बीजेपी को होगा। स्वामी के जाने के बाद राज्य में पिछड़ों की एक और पार्टी ‘अपना दल’ ने भी भाजपा को चेतावनी दे दी है। अपना दल ( अनुप्रिया गुट) अभी केन्द्र में एनडीए का हिस्सा है और अनुप्रिया पटेल केन्द्रीय मंत्री भी है। इसी पार्टी का दूसरा गुट सपा के साथ है। स्थिति नहीं संभली तो पूरा अपना दल सपा के साथ जा सकता है। अपना दल मुख्य रूप से कुर्मियों की पार्टी है, जिसका वोट बैंक लगभग 7 फीसदी माना जाता है। दूसरी तरफ भाजपा के साथ पिछड़ों की केवल संजय निषाद की ‘निषाद पार्टी’ है। यह पार्टी चुनाव में भाजपा से 24 सीटें मांग रही है। अगर ठीक से समझौता न हुआ तो ‘निषाद पार्टी’ भी पाला बदल सकती है। इस पार्टी की मांग भी भाजपा के लिए सिरदर्द हो सकती है। राज्य में निषाद अभी अोबीसी में हैं, वो अनुसूचित जाति श्रेणी में आरक्षण चाहते हैं। रहा सवाल यादवों का तो इस जाति के वोटों की संख्या करीब 9 फीसदी है और मोटे तौर पर ये समाजवादी पार्टी के साथ है।
ध्यान रहे कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने तमाम छोटी-छोटी पार्टियों को साथ लेकर नया जातीय समीकरण बनाया था। इसमें बीजेपी का परंपरागत वोट मिलाकर एक ऐसा मजबूत समीकरण बना कि पार्टी क्लीन स्वीप कर गई। लेकिन चुनाव के बाद जिस तरह से घटनाक्रम घटा है, उसने राज्य में भाजपा के पक्ष में बने जातीय समीकरणो में जो दरार डाली, वह अब खुलकर दिखने लगी है। भाजपा की पिछली चुनावी रणनीति यानी ‘स्माॅल पार्टी, बिग प्लानिंग’ पर इस बार समाजवादी पार्टी काम करती दिख रही है। इसका संकेत सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अगस्त में यह नारा देकर कि ‘नई हवा है, नई सपा है, बड़ों का हाथ, युवा का साथ’ दे दिया था। लेकिन तब इसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया था। क्योंकि तब तक राज्य में भाजपा को अजेय ही माना जा रहा था। पिछला चुनाव भाजपा ने राम मंिदर, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, सुशासन और विकास के मुद्दों पर जीता था। तब उसे गैर यादव पिछड़ी जातियों का भी भारी समर्थन मिला था। लेकिन चुनाव के हिंदुत्व’ के प्रतीक और परोक्ष रूप से अगड़ी जाति के क्षत्रिय योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने से पिछड़ी जातियों में आत्ममंथन शुरू हो गया। हालांकि 2019 लोकसभा चुनाव में पिछड़ों ने भाजपा को ही समर्थन दिया, क्योंकि तब मोदी के नाम पर मांगे गए थे। इस बार ऐसा होना बहुत मुश्किल है। क्योंकि मोदी यूपी के सीएम तो नहीं हो सकते। योगी की अपनी कार्य शैली भी इस असंतोष का एक कारण है। स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता जो सीएम बन सकने की उम्मीद में भाजपा में आए थे, नाउम्मीद होकर फिर दूसरी पार्टी में चले गए हैं। कुल मिलाकर संदेश यही गया कि भाजपा पिछड़ों का समर्थन तो चाहती है लेकिन मौका आने पर मुख्यमंत्री का ताज किसी और के सिर पर रख देती है। इस बार भी ऐसा नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
इसका अर्थ यह नहीं कि भाजपा का किला बुरी तरह दरक गया है। आज की तारीख में संगठन, संसाधन और धनबल में वो सब पर भारी है। विकास के दावे, व्यापक हिंदू एकता और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर पूरा जोर दे रही है। उधर समाजवादी पार्टी की राह भी आसान नहीं है। कागज पर गणित किधर भी झुकता दिखाई दे, लेकिन बीजेपी आसानी से सत्ता हाथ से जाने देने वाली नहीं है। क्योंकि यूपी में सत्ता खोने का संदेश पूरे देश और दुनिया में जाएगा। वैसे भी उसने गोवा, मणिपुर आदि राज्यों में दिखा दिया है कि चुनाव कोई भी जीते, सरकार उसी की बनती है। व्यावहारिक स्तर पर देखें तो पिछले विस चुनाव में भाजपा को 39.47 और सपा को 21.84 प्रतिशत वोट के साथ 47 सीटें मिली थीं। इसका मुख्य कारण अोबीसी के गैर यादव वोटों का भाजपा की तरफ झुकना और मुस्लिम वोटों का सपा सहित कई गैर भाजपा दलों में बंटना था। दूसरे, सत्ता में आने के लिए सपा को अपना वोट बैंक बढ़ाकर लगभग दोगुना करना होगा, जोकि आसान नहीं है। हो सकता है कि तमाम कोशिशो के बाद भी वो पौने दो सौ सीटों पर अटक जाए। जबकि भाजपा को अगर सौ सीटों का भी नुकसान हुआ तो भी वो सरकार बना सकती है। पार्टी का मानना है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, काशी में विश्वनाथ काॅरिडोर, राज्य में कई बड़े एक्सप्रेस वे तथा अन्य विकास कार्य और खुद पीएम का पिछड़े वर्ग से होगा अोबीसी वोटो की टूटन काफी हद तक रोक लेगा। लेकिन इन सबसे अहम है यूपी की जनता क्या सोचती है। दावों प्रतिदावों को किस रूप में देखती है। यूपी में सात चरणों में होने वाले चुनाव के हर चरण में राजनीतिक समीकरण बदलते दिखें तो आश्चर्य नहीं। इसका मुख्य कारण बीजेपी के कई विश्वसनीय वोट बैंको के बिखरने का डर । इनमें प्रमुख ब्राह्मण हैं, जिनकी संख्या करीब 13 फीसदी है। दलित वोटो में गैर जाटव वोट काफी हद तक भाजपा के साथ रहा है। उधर समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और अन्य गैर भाजपाई दलों का मानना है कि राज्य में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और विद्वेष की राजनीति उस निचले स्तर तक पहुंच गई है, जिसे जनता अब और गवारा नहीं कर सकती। अपने धार्मिक आग्रह-दुराग्रहों के बाद भी लोग आम तौर पर शांति और सद्भाव चाहते हैं। सरकार लोगों की असली समस्याअों पर ध्यान दे, जैसे कि बेरोजगारी, महंगाई, फसलों का उचित दाम। पश्चिमी यूपी में किसानों को गन्ने का पूरा भुगतान न मिलना भी मुद्दा बन रहा है।
यूं अवसरवाद भारतीय राजनीति का एक प्रमुख रोग है। स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे लोग इसके सरगना कहे जा सकते हैं ( यह बात अलग है कि भाजपा में आते समय उन्हें पिछड़ों का दमदार नेता बताया गया था)। उन्हें बड़बोला भी माना जा सकता है। क्योंकि भाजपा और सरकार से त्यागपत्र देते समय उन्होंने कहा ‘जहां हम रहेंगे, वहीं सरकार बनेगी।‘ उन्हें घोर परिवारवादी भी कह सकते हैं क्योंकि बेटी संघमित्रा मौर्य को तो उन्होंने बीजेपी से सांसद बनवाया ही, साथ में बेटे उत्कृष्ट को वो तमाम कोशिशों के बाद भी नहीं जितवा पाए थे और अब फिर बीजेपी से टिकट मांग रहे थे।
बीजेपी के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि मौर्य के अलावाा वो विधायक भी पार्टी छोड़ने की राह पर हैं, जो अगड़ी जातियों के हैं। हो सकता है कि इन्हें इस बार टिकट न मिलने की भनक लग गई हो और इसीलिए वो दूसरे दलों में जाकर टिकट पक्का कर रहे हों, लेकिन चुनाव के वक्त में इस तरह जाना एक नकारात्मक हवा तो बनाता ही है। हालांकि कुछ लोग भाजपा में आ भी रहे हैं और भगदड़ के पीछे राजनीतिक पूर्वानुमान हमेशा सही नहीं होता, जैसा कि हमने पश्चिम बंगाल में देखा।
बहरहाल, यूपी से भी पहले यह नकारात्मक हवा बीजेपी के लिए उत्तराखंड में बनने लगी थी। वहां भाजपा फिर चुनाव जीतने की उम्मीद में तीन सीएम बदल चुकी। फिर भी वहां एक मंत्री और एक विधायक कांग्रेस में चले गए हैं। केवल एक मंत्री को मनाकर रोका जा सका। गोवा में सत्तारूढ़ भाजपा के चार विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। मणिपुर में तो इस भगदड़ का बिगुल छह महीने पहले ही बज गया था, जब 6 भाजपा विधायकों ने इस्तीफे का ऐलान कर िदया था और बिरेन सिंह सरकार खतरे में आ गई थी। लेकिन तब आला कमान ने हस्तक्षेप कर मामला संभाला अौर सरकार बचा ली थी। वैसे विधायक कांग्रेस के भी टूट रहे हैं। लेकिन पंजाब के अलावा कांग्रेस कहीं भी पहली पंक्ति में नहीं है।
असली मुद्दा यह राजनीतिक भगदड़ का ट्रेंड और यूपी में भाजपा विधायकों का पार्टी को टाटा करना, इस बात पर सवालिया निशान लगाता है कि क्या भाजपा की अोबीसी केन्द्रित राजनीति में कहीं न कहीं खोट है। नीयत और यथार्थ में फासला है। लिहाजा यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए हिंदुत्व की छतरी की सभी ताडि़यों को चाकचौबंद रख पाने की चुनौती भी है। तो क्या यूपी में भी वो ‘खेला’ शुरू हो गया है, जिसे अखिलेश यादव ‘मेला होबे’ बता रहे हैं?
-लेखक ‘सुबह सवेरे’ के वरिष्ठ संपादक हैं।