आलेख
अजय बोकिल
हर व्यक्ति अपनी एक छोटी पार्टी बनाता है और उसे प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाने लगता है। उसका नियंता वह स्वयं और बाद में उसकी संताने इसका चार्ज ले लेती हैं। मतदाता के पास इतना ही विकल्प रहता है कि वह इस परिवार को चुने या उस परिवार को।
‘महा उपनिषद’ में हमारे ऋषियों ने जिस उदात्त और वैश्विक भाव से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उक्ति कही होगी, तब उन्होंने शायद ही सोचा होगा कि हजारों साल बाद भारत में इस कौटुंबिक भाव का रूपातंरण राजनीतिक परिवारवाद में हो जाएगा। परिवार सत्ता पर काबिज होने और उसे कायम रखने तथा ऐसा करने वाले राजनीतिक निशाने पर होंगे।
जाहिर है एक समय ऐसा भी आएगा कि सत्ता का संघर्ष परिवारवाद और गैरपरिवारवाद के बीच केन्द्रित होने लगेगा। राजनेता इसे ही अपनी तलवार और ढाल दोनो बनाने में कामयाब होंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो यह सत्ता के खोल में लिपटा नया परिवार नियोजन है, जिसमें परिवार की हदें और स्वार्थ राजनेता अपने अपने हिसाब और सुविधा से तय कर रहे हैं।
पटना की रैली और भाजपा का नया चुनावी कैंपेन
हाल में बिहार की राजधानी पटना में आयोजित इंडिया गठबंधन की महारैली ने लालूप्रसाद यादव ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के परिवार पर सवाल उठाए तो जवाब में मोदी ने कहा कि सारा देश ही उनका परिवार है। या यूं कहें कि मोदी ही देश हैं और देश ही उनका परिवार है। इसी तर्ज पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जिन्होंने राजनीतिक पलटीमारी में नए मानदंड कायम किए हैं, ने कहा कि सारा बिहार ही मेरा परिवार है।
अब इसी सिलसिले को सांसद, विधायक, पार्षद और पंच तक ले जाएं तो हर कोई अपने क्षेत्राधिकार मंर एक ‘परिवार के पोषण’ का बोझ लिए चल रहा है, क्योंकि इसी परिवार में वोट के बीजाणु छिपे हुए हैं। अर्थात् यह नया परिवारवाद असल में वोटवाद का परिवारीकरण है।
गुजरे समय में राजपरिवारों में सत्ता संघर्ष हुआ करता था। राजा का बेटा ही राजा बनता था। मुगलों के जमाने में तख्त के लिए एक बेटा अपने ही सगे भाइयों को मौत के घाट उतारने में नहीं हिचकता था। बाद में अंग्रेज आए तो सत्ता संचालन का नया कंसेप्ट लेकर आए, जो मूलत: वशंवादी होते हुए भी उपनिवेशों में पेशेवर लोगों के भरोसे ज्यादा था। आजादी के बाद भारत में लोकतंत्र कायम हुआ तो सामंती परिवारवाद ने भी नया चोला पहन लिया।
कुछ राजपरिवारों ने लोकतांत्रिक परिवारवाद अपनाकर अपनी भौतिक सत्ता कायम रखी तो इसी के साथ जमीनी संघर्ष से कई ऐसे नए चेहरे उभरे कि जिन्होंने अपने लंबी जद्दोजहद के बाद मिली सत्ता की पूंजी अपनी भावी पीढ़ी के नाम इन्वेस्ट कर दी। 90 के दशक में उभरा यह परिवारवाद राजपरिवारों के दैवी परिवारवाद से अलग सत्ता प्रसूत और सत्ता केन्द्रित नया परिवारवाद था, जो राजनीतिक दलों की शक्ल में अब अलग अलग राज्यों में अलग अलग तरह से प्रस्थापित हो चुका है।
काफी हद तक लोकमान्य यह परिवारवाद कहीं अपनी सत्ता को बचाने के लिए है तो कहीं सत्ता को पाने के लिए है। फिर चाहे वह लालू प्रसाद की पार्टी राजद में तेजस्वी यादव हों, समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव एंड परिवार हो, रालोद में जयंत चौधरी हों, भारत राष्ट्र समिति के के. चंद्रशेखर राव हो, डीएमके के एम.के.स्टालिन अथवा उदयनिधि हों, शिवसेना के उद्धव एवं आदित्य ठाकरे हों, अकाली दल के सुखबीर सिंह बादल हों, नेशनल कांफ्रेंस के फारूख अब्दल्ला और उमर अब्दुल्ला हों, पीडीपी की महबूबा मुफ्तीम हों या फिर तृणमूल कांग्रेस में ममता के बाद उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी हों, सभी इसी परिवारवादी आकाशगंगा के जुगनू हैं।परिवार को सीमित रखने का यह राजनीतिक आग्रह देश में इमर्जेंसी के दौरान सरकारी दुराग्रह में बदल गया।
आखिर कांग्रेस कहां खड़ी है इस समय?
इसी आकाशगंगा में कांग्रेस के राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की हैसियत उस सितारे जैसी है, जिसकी चमक अभी बाकी है। इन परिवारजन्य नेताओं के राजनीतिक आग्रहों में विचारधारा के साथ-साथ यह भाव भी शिद्दत से शामिल हैं कि लीडर बनने का अधिकार उन्हें आनुवांशिक रूप से मिला है। या यूं कहें कि उनका अवतरण ही इसलिए हुआ है कि वो जनता के वोटों के सहारे सत्ता हासिल करें और उसका उपभोग करते हुए अपनी अगली पीढ़ी को इस दैवी दायित्व को वहन करने के लिए अभी से तैयार करें।
इस मामले में भाजपा का परिवारवाद थोड़ा अलग है। वहां बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जो परिवार रखते ही नहीं या रखते भी हैं तो सन्यस्त भाव से उससे विलग हो जाते हैं। गहराई से देखें तो भाजपा में परिवारवाद ‘पैतृक सेवावाद’ के रूप में है। यानी जो पार्टी की दशकों से सेवाकर कर रहा है और किसी बड़े नेता का पुत्र या पुत्री है तो परिवारवाद का महाप्रसाद उसके लिए आरक्षित है।बहरहाल, बात राजनीतिक परिवारवाद की।
दिलचस्प यह है कि जिस जमाने में भारतीय राजनीति पर परिवारवाद हावी नहीं था, उस वक्त देश में परिवार नियोजन की खूब बात होती थी। तब देश की आबादी आज की तुलना में आधी भी नहीं थी, लेकिन एक चिंता सत्ताधीशों और समाज को सतत् खाए जाती थी कि देश की आबादी इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो न जाने क्या होगा? कितने हाथों को काम मिलेगा और कितने पेट को रोटी मिल सकेगी, इसीलिए परिवार की अच्छी तरह से परवरिश करनी है तो परिवार छोटा रखो। यानी ‘हम दो हमारे दो।’ इस नियोजित परिवार के आग्रह का एक प्रतीक चिन्ह भी हुआ करता था ‘लाल तिकोन।‘ कवि बालकवि बैरागी ने तो उस पर कविता भी रची थी ‘ गुदनवारे गोद दे रे लाल तिकोना, लाल तिकोना तो है रे मेरा सलोना।‘
परिवार को सीमित रखने का यह राजनीतिक आग्रह देश में इमर्जेंसी के दौरान सरकारी दुराग्रह में बदल गया। इसे चलाने वाले इंदिरा गांधी और संजय गांधी सत्ता से बेदखल हो गए। उसी के साथ परिवार को नियोजित रखने के कार्यक्रम का उत्साह भी ठंडा होता गया। बाद में इसे चलाने वाले विभाग का नाम भी परिवार कल्याण विभाग हो गया। देश की आबादी अपनी रफ्तार से बढ़ती रही और परिवारवादी पार्टियां भी।
अब आलम यह है कि हर व्यक्ति अपनी एक छोटी पार्टी बनाता है और उसे प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाने लगता है। उसका नियंता वह स्वयं और बाद में उसकी संताने इसका चार्ज ले लेती हैं। मतदाता के पास इतना ही विकल्प रहता है कि वह इस परिवार को चुने या उस परिवार को।
आज जब हम दुनिया की सर्वाधिक आबादी वाले और सबसे ज्यादा परिवारवादी पार्टियों के देश हैं तब परिवारवाद का अर्थ पूरी तरह से राजनीतिक हो गया है। जब कोई यह कहता है कि ‘फलां फलां मेरा परिवार है’ तो राजनीति की डिक्शनरी में उसका अर्थ ‘वोट परिवार’ से होता है। अर्थात् इतने वोट मेरे या मेरी पार्टी के खाते में हैं।
मैं इस अकाउंट को प्लस करता जाऊंगा। या यूं समझे कि जब किसी व्यक्ति पर परिवार को लेकर सियासी हमला होगा तो वह जवाब में परिवार का व्यापक वोटपूंजीकरण कर डालेगा। ताकि सत्ता का प्रति शेयर भाव बढ़ता रहे। इसीलिए जब लालू प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर परिवार को लेकर व्यक्तिगत हमला करते हैं तो मोदी देश को ही अपना परिवार बताने में देरी नहीं करते।
इसी तरह चूंकि नीतीश कुमार की दौड़ बिहार तक ही है, इसलिए वो बिहार को अपना परिवार बताते हैं। यानी यहां परिवार की हदें भौगोलिक सीमाएं तय करती हैं। ऐसे में कोई पंच भी अपने पंचायत हल्के को अपना ‘परिवार’ कह सकता है। यह अधिकार उसने स्वत: अर्जित कर लिया है बावजूद इसके कि खुद उसके परिजन उसे इस योग्य माने न मानें।
कुल मिलाकर अब सत्तावाद परिवारवाद की नई शक्ल में है। चाहे इसका हो या उसका हो। वह सत्ता हासिल करने का कारण भी है और सत्ता से बेदखल करने का कारण भी है। वह जन्मना अधिकार भी है और जनसंख्या जनित विशेषाधिकार भी है। वह वोटों के जोड़ में सम संख्या भी है और वोट छीनने के लिए विषम भाव भी है। परिवारवाद अगर सत्ता दिलाता है तो सौभाग्य का सिंदूर है और यदि इसी कारण से सत्ता जाती है तो वह वैधव्य की चूडि़यां हैं।
–लेखक मप्र के ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हें।