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मजदूर है मजबूर निर्धारित से दूर

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सुरेन्द्र जैन धरसीवा

कई सरकारें आई और चली गई लेकिन उधोगों में पसीना बहाने वाला मजदूर आज भी मजबूर है शोषण के बाद भी पेट की खातिर कम मेहनताने में काम करना उसकी मजबूरी है वो आज भी शासन द्वारा निर्धारित मजदूरी से दूर है लेकिन उनके नाम पर मजदूर दिवस मनाया जाता है साल में एक दिन उनका नाम तो लिया ही जाता है दिखावे के लिए ही सही कुछ मजदूरों को बुलाकर सम्मान भी कर दिया जाता है वो गरीब मजदूर उतने में ही खुश हो जाता है।
बात करें यदि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगे रायपुर ग्रामीण ओर धरसीवा विधानसभा के ओधोगिक क्षेत्र उरला सिलतरा की तो यह किसी से छिपा नहीं है कि इन उधोगों में आसपास के गांव ही नहीं अपितु प्रदेश के अन्य जिलों ओर लगे हुए एमपी के मण्डला बिछिया आदि सैंकड़ो महिला मजदूर अपने पेट की खातिर मजदूरी करने आते हैं उधोगो में ठेकेदारों के अधीन वह मजदूरी करते हैं कुछेक बड़े जायसवाल निको स्टील प्लांटों जैसों को छोड़कर अधिकांश ओधोगिक इकाइयों में लेबर ठेकेदार उनका भरपूर शोषण करते हैं करीब 400 रुपये 8 घन्टे की निर्धारित मजदूरी के बाबजूद महिला श्रमिको को कहीं 200 तो कही 220 रुपये ही मजदूरी दी जाती है न उन्हके सप्ताह में कभी कोई छुट्टी न ईएसआईसी का लाभ दिया जाता है बाबजूद मजदूरों की यह मजबूरी है कि इतने शोषण में भी उन्हें काम करना है क्योकि पापी पेट का सवाल है यदि यह भी न मिलें तो खाएंगे क्या
समय समय पर अक्सर समाचार पत्रों न्यूज़ चेनलो में स्थानीय पत्रकार मजदूरों के शोषण के मुद्दे उठाते रहे हैं लेकिन शासन प्रशासन कभी इस दिशा में कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं किया नतीजा यह कि शोषण बदस्तूर जारी है।


मजदूरों के बच्चों को न शिक्षा न स्वस्थ्य की सुविधा
सिलतरा एक बड़ा ओधोगिक क्षेत्र है आसपास के गांवो से लेकर प्रदेश के कौन कौन से रोजी रोटी के लिए गरीब परिवार यहां मजदूरी करने आते है महंगाई के इस दौर में गांवो में छोटे छोटे कमरे किराए पर लेकर अधिकांश गरीब दंपति सुबह से मजदूरी को निकल पड़ते हैं इस दौरान उनके बच्चे अकेले रहते हैं इधर उधर घूमना कुसंगति में पड़ गए तो गलत राह पकड़ लेते है ऐंसे गरीब मजदूरों के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा के लिए ओधोगिक इकाइयों द्वारा सिलतरा में कहीं कोई स्कूल की आज तक वंयवस्था नहीं कि गई
औधोगिकीकरण को लगभग तीन दशक बीतने के बाद भी ओधोगिक इकाइयों की ओर से गरीब मजदूरों के परिवारों ओर स्थानीय ग्रामीणों के बच्चो के लिए निशुल्क अच्छी शिक्षा की कोई वंयवस्था नहीं न ही आज तक इन उधोगो ने सिलतरा में कोई निःशुल्क स्वस्थ्य सेवा के लिए अस्पताल बनवाया यही कारण है कि मजदूर का बेटा मजदूर ही बनता जा रहा है और बीमार होने पर मजदूरों के परिजन इलाज को भटकते हैं।
बन चुके कईं संगठन
ओधोगिक इकाइयों में गरीब मजदूरों का शोषण रोकने के नाम पर कई संगठन बने शोषण रोकने शुरू शुरू में जमकर आवाज बुलंद की मजदूरों का शोषण तो नहीं रुकता लेकिन कुछ समय बाद वह संगठन शांत हो जाते हैं ।
लेबर ठेकेदार बन गए करोड़पति
उधोगों में मेहनत मजदूरी कर दिन रात पसीना बहाने वाले गरिब मजदूरों के दिन भले ही न फिरे हों लेकिन उन्हें सप्लाई करने वाले उनके ठेकेदारों के दिन जरूर फिर गए जो पड़ोसी राज्यों से आकर लेबर सप्लाई का काम किये वह किराए के कमरों से शुरुआत कर आज बड़े बड़े मकानों के मालिक बन गए कुछ तो बड़े बड़े धन्नासेठ तक बन गए लेकिन जिन गरीब मजदूरों ने उधोगों में पसीना बहाया वह वहीं के वहीं हैं

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