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छोड़ मेरी बिटिया मोबाईल का संग मिट्टी के खिलौनों में बसा है भूले बिसरी यादों का मजेदार रंग

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बिलासपुर। एक वक्त था जब परीक्षा के बाद घर-घर में माता पिता अपने बच्चों को उनके स्वस्थ मनोरंजन के लिए बाजार से मिट्टी के रंग बिरंगे खिलौने ला कर देते थे। आज वह बचपन किसी कोने में भूला बिसरा विलुप्त हो चुका है। ‌ अब छोटे बच्चों के हाथों में मोबाइल और टेबलेट के साथ होमवर्क पूरा करने का प्रेशर है जो उनके बचपन को बालपन की असल संजीदगी के साथ जीने नहीं दे रहा है। सुबह दिन रात मोबाइल पर व्यस्त रहने वाले बच्चों को इरिटेशन संयम खोना माता पिता से विद्रोह दिखाना जैसी अनुशासनहीनता देखने को मिल रही है। बचपन के मामले में पुराने कंसेप्ट पर भरोसा करने वाले परिवार अपने बच्चों को मिट्टी के खिलौने लाकर दे रहे हैं।

कपिलनगर निवासी निवांशी श्रीवास्तव यूं तो इंग्लिश मीडियम में पढ़ती है। दूसरे बच्चों की तरह उसे भी रोजाना काफी होमवर्क मिलता है। इसके बावजूद उसे उसके बचपन के प्राकृतिक और निर्धारित मापदंड के अनुसार जिंदगी जीने की सकारात्मक परिस्थितियां उनके माता-पिता के द्वारा बनाई जा रही है। उसे मिट्टी के खिलौने ला कर दिए गए हैं। इन खिलौनों में पारंपरिक रसोई जैसे चूल्हा हाथ से चलने वाली अनाज पिसाई करने वाली चक्की सहित अन्य खिलौने शामिल हैं। इनके पिता सचिन और माता रेणुका ने बताया कि हम बचपन में मिट्टी के खिलौने से खेलते थे। बड़ी मुश्किल से हमने इन मिट्टी को खिलौनों को सहेज कर रखा हुआ है। मिट्टी के खिलौने मिलने के बाद निवांशी ने मोबाइल से दूरी बना ली है। हम अपनी बच्ची का यह स्वस्थ मनोरंजन देखकर खुश हैं। बच्चों को प्राकृतिक वातावरण से अवगत कराने का हर संभव प्रयास माता-पिता को करना चाहिए।

मिट्टी के खिलौने ढूंढते रह जाओगे

पहले चक्की हाट मेला में बच्चों को मिट्टी के खिलौने ही मिलते थे। उन मिट्टी के खिलौनों से ही बच्चों को बहलाया जाता था। घरों में मटकों समेत तमाम बर्तन भी मिट्टी के ही प्रयोग किए जाते रहे हैं। मगर मार्डन होते जमाने में अब मिट्टी के बर्तन और खिलौने गायब होते जा रहे हैं। आधुनिकता ने मिट्टी के खिलौने तो एकदम से गायब ही कर दिए हैं और बर्तन भी अब नहीं प्रयोग हो रहे हैं। ऐसे में अभिभावक और कुम्हार भी लाचार और निराश हैं।

सामाजिक संगठन आगे आएं-

अब कुम्हार मिट्टी के खिलौने नहीं बनाना चाहते हैं, क्योंकि खिलौनों के कद्रदान नहीं रह गए हैं। वे बताते हैं कि पहले मिट्टी के खिलौने से अच्छा कारोबार हो जाता था। गांव के साथ ही शहर में भी इनकी खूब बिक्री होती थी। बच्चे माता-पिता से जिद कर इन खिलौनों को खरीदते थे। लेकिन अब बच्चों में मिट्टी के खिलौनों को लेकर कोई रुचि नहीं है। वह मोबाइल और प्लास्टिक के खिलौनों में व्यस्त हो गए हैं। इससे मिट्टी के खिलौनों का कारोबार चौपट हो गया है। मिट्टी के खिलौनों की लोक परंपरा को जीवित रखने के लिए कुम्हारों को प्रोत्साहन देने के लिए सामाजिक संगठनों और बुद्धिजीवियों को आगे आना चाहिए।

मेरा प्यारा बीता बचपन। वो प्यार वो दुलार।वह प्यारा-सा आँगन कच्ची माटी का।कहाँ खो गया है वह प्यारा आकर्षण। कहाँ खो गया वह प्यार ।

कोई लौटा दे मुझे। मेरे मिट्टी के खिलौने। मिट्टी की रसोई। मिट्टी की चकिया और बिलोई। आज़ बचपन पर मोबाइल का जोश है। भूलता बचपन अपना वास्तविक होश है।बड़ों को इन बच्चों को बताना होगा। मोबाइल नहीं मिट्टी के खिलौनों में बचपन का असल संतोष है। समझाना होगा।

सारिका श्रीवास्तव

प्रिंसिपल सनराइज पब्लिक स्कूल

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