आलेख
अजय बोकिल
एक ही साल में यह तीसरी बार है, जब भारत निर्वाचन आयोग ने मतदान और मतगणना की तारीखें चुनाव कार्यक्रम घोषित हो जाने के बाद बदली हैं। एक बार मतगणना की तो दो बार मतदान की। चुनाव आयोग के मुताबिक यह राजनीतिक दलों की मांग और जन भावनाअों को ध्यान में रखकर किया गया फैसला है। विपक्षी दलों ने इसको लेकर भी चुनाव आयोग की मंशा पर संदेह जताया है। वोटिंग और काउंटिंग की तारीखें बार-बार बदलने से चुनाव परिणामों पर कितना और कैसा असर होता है, यह बहस का विषय है, लेकिन एक बार चुनाव कार्यक्रम घोषित हो जाने के बाद इस तरह तारीखें बदलने से चुनाव आयोग के होम वर्क पर सवाल जरूर खड़े होते हैं। आयोग तारीखों की घोषणा के पहले इन सब बातों पर समग्रता से विचार नहीं करता या राज्यों के निर्वाचन पदाधिकारी उन्हें क्षेत्र की धार्मिक सांस्कृतिक परंपरा की सही जानकारी नहीं देते? तारीखों में ऐसे बदलाव का सबसे हैरानी भरा फैसला तो इस साल अप्रैल मई में लोकसभा के साथ अरूणाचल और सिक्किम विधानसभा चुनाव की मतगणना की तारीख निर्धारित तिथि से पहले खिसकाने का था, क्योंकि आयोग द्वारा घोषित काउंटिंग की तारीख से पहले ही दोनो राज्यों ही विधानसभाअोंका कार्यकाल समाप्त हो रहा था। इन विधानसभाअों के चुनाव भी पांच साल पहले चुनाव आयोग ने ही कराए थे।
चुनाव तारीखें बदलने की श्रृंखला में ताजा कड़ी इस माह होने वाले 14 विधानसभाअोंके उपचुनावों की तारीखें बदलने की है। पहले चुनाव आयोग ने इन उपचुनावों के लिए मतदान की तिथि 13 नवंबर तय की थी। उस हिसाब से चुनाव प्रक्रिया भी शुरू हो गई थी। लेकिन अब इसे बदलकर 20 नवंबर कर दिया गया है। इस बारे में चुनाव आयोग का कहना है कि 13 नवंबर को उपचुनाव वाले कुछ विधानसभा क्षेत्रों में मतदान की तारीख परिवर्तित करने के लिए विभिन्न मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों (भाजपा, कांग्रेस, बसपा, रालोद सहित) और कुछ सामाजिक संगठनों से उसे ज्ञापन मिले हैं। मतदान के दिन होने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमों के कारण बड़ी संख्या में लोगों को असुविधा हो सकती है। ऐसे में मतदान में मतदाताओं की भागीदारी कम हो सकती है। ये भी संयोग ही है कि आयोग की इस घोषणा से पहले यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक दिन पहले पीएम मोदी से मुलाकात की थी। अगले ही मतदान की तारीखें बदलने की खबर आई।
गौरतलब कि देश में दो राज्यों महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के साथ देश में 14 राज्यों की 47 विधानसभा क्षेत्रों और 2 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव भी हो रहे हैं। लेकिन चुनाव तारीखों में बदलाव सिर्फ यूपी, पंजाब और केरल की विधानसभा सीटों के उपचुनाव के लिए किया गया है। इन राज्यों में मतदान अब 20 नवंबर को होगा। उपचुनाव के लिए मतदान की तारीखें बढ़ाने के पीछे वजह उत्तर प्रदेश में 15 नवंबर को कार्तिक पूर्णिमा का त्यौहार, पंजाब में इसी दिन गुरू नानक देवजी का प्रकाश पर्व और 13 नवंबर से अखंड पाठ शुरू होना तथा केरल में 13 से 15 नवंबर तक कलपथि रास्तोसेल्वम पर्व मनाया जाना है। यूं कार्तिक पूर्णिमा पर नदियों में पवित्र स्नान तो लगभग सभी राज्यों में होता है, लेकिन चुनाव आयोग ने केवल यूपी पर ध्यान दिया, यह भी अहम बात है। जहां तक इन त्यौहारों की बात है तो इनमें से कोई भी ऐसा पर्व नहीं है, जिसकी तिथि पहले से तय नहीं हो। तो क्या चुनाव आयोग सभी धर्मो के धार्मिक सांस्कृतिक कैलेंडर नहीं देखता या फिर पर्वों की महत्ता का आकलन अपने हिसाब से करता है? आयोग चुनाव कार्यक्रम घोषित करने से पहले सभी राजनीतिक दलों से चर्चा करता है। क्या उसमें यह मुद्दा नहीं उठाया जाता? सियासी पार्टियों की नींद भी देर से क्यों खुलती है? क्या इसके पीछे वोटरों के कम मतदान का भय छिपा होता है या अपनी सुविधा के अनुसार चुनाव की तारीखें तय करने की चाल होती है? यह भी विडंबना है कि जहां मतदान को मतदाता का प्राथमिक कर्तव्य बताया जाता है, वहीं दूसरी तरफ समूची व्यवस्था को इस बात से डर भी लगता है कि ऐन वक्त पर वोटर कहीं अपनी धार्मिक निष्ठा को वोटिंग से ज्यादा तवज्जो न दे दे। हालांकि यह तर्क बहुत वजनदार नहीं है कि केवल किसी धार्मिक पर्व के होने से मतदाता वोट देने नहीं जाते अथवा कम जाते हैं। जब कोई धार्मिक पर्व नहीं होता तब भी कई बार वोटिंग प्रतिशत बहुत कम रहता है, मतदाता उदासीन रहता है। इसके पीछे क्या तर्क देंगे?
धार्मिक सामाजिक पर्वों की वजह से चुनाव तारीखें बदलने के पीछे आयोग द्वारा दिए कारण को मान भी लें तो भी किस विधानसभा का कार्यकाल कब खत्म हो रहा है और किस तिथि तक उस विस चुनाव की प्रक्रिया पूरी कर ली जानी चाहिए, यह काम तो चुनाव आयोग और उसकी मशीनरी का ही है। चुनाव इस देश में 70 सालों से हो रहे हैं, लेकिन ऐसा अपवादस्वरूप ही हुआ होगा कि एक बार आयोग मतगणना की तिथि घोषित कर दे तथा उसे बाद में ख्याल आए कि काउंटिंग तो विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने के पहले ही पूरी हो जानी चाहिए थी। विस का कार्यकाल पूरा होने के पहले चुनाव प्रक्रिया पूरा कराना चुनाव आयोग की संवैधानिक बाध्यता है। लेकिन पांच माह पहले हुए अरूणाचल और सिक्किम के विधानसभा चुनाव के दौरान आयोग को यह देर से ध्यान में आया कि मतगणना की जो तारीख उसने तय की है, उसके पहले ही विस कार्यकाल खत्म हो रहा है। पिछले विस चुनाव भी आयोग ने ही कराए थे, तो क्या पुराना रिकाॅर्ड भी नहीं देखा जाता?
इसके पहले हरियाणा विस चुनाव में भी आयोग ने मतदान की तारीख बदली थी। इस पर विपक्ष ने आरोप लगाया था कि वहां सत्तारूढ़ भाजपा हार रही है, इसलिए तारीख बदलवाई गई। हालांकि नतीजा उलटा ही आया। हरियाणा में विस चुनाव के लिए मतदान 1 अक्टूबर को होना थे, बाद में इसे बदलकर 4 अक्टूबर किया गया। कारण यह बताया गया कि 1 अक्टूबर को विश्नोई समाज का वार्षिक मेला लगता है। इसी के चलते विश्नोई महासभा ने भी तारीख बदलने की मांग की थी।
सवाल यह है कि चुनाव आयोग मतदान की तारीखें बदलने के मापदंड अलग-अलग क्यों हैं? इस तरह तारीखें बदलना चुनाव आयोग की संवेदनशीलता है या फिर अधूरी तैयारी? गौर करें कि 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान रमज़ान महीना भी पड़ रहा था तब कई राजनीतिक दलों और मुस्लिम संगठनों ने आयोग के सामने चुनाव तारीखें बदलने का आग्रह किया था। उस समय आयोग ने कहा था कि रमजान के लिए चुनाव प्रक्रिया नहीं रोक सकते। हालांकि इसमें एक पेंच यह भी है कि रमजान पूरे एक माह चलता है। दो तीन दिन के लिए तारीखें बदली जा सकती हैं। लेकिन एक महीना चुनाव कार्यक्रम खिसकाना आसान और व्यावहारिक भी नहीं है। इसी प्रकार कार्तिक पूर्णिमा पर राजस्थान में 12 नवंबर से 15 नवंबर तक पुष्कर में लोग पवित्र स्नान करते हैं। मेला भी लगता है। बावजूद इसके राजस्थान की 7 विस सीटों पर उपचुनाव 13 नवंबर को ही हो रहे हैं।
इसके विपरीत यूपी में सभी 9 विस सीटों पर उपचुनाव के लिए वोटिंग की तारीखें बदली गई हैं। बताया जाता है कि बहराइच दंगों की वजह से ये तारीखें बदली गईं। यहां चुनाव नतीजों को लेकर भाजपा की अंदरूनी रिपोर्ट नकारात्मक होने की चर्चा है, जबकि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने आरोप लगाया कि बहराइच दंगा भाजपा ने उपचुनाव जीतने के लिए कराया था। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो सोशल मीडिया पर एक्स पर लिखा- टालेंगे तो और भी बुरा हारेंगे! हालांकि हमेशा ऐसा हो, जरूरी नहीं है। मतदाता की अपनी सोच, समझ और प्राथमिकता होती है। इसमे धार्मिक पर्व और राजनीतिक गुणा भाग कितना आड़े आते हैं, यह शोध का विषय है। लेकिन जो फर्क है, वो यह है कि चुनाव आयोग सात दशकों से चुनाव कराता रहा है, लेकिन इस तरह तारीखों में हेरफेर अपवाद स्वरूप ही होता था। अब यह परंपरा-सी बनती जा रही है, अगर ऐसा ही होना है तो चुनाव की महीनो पहले से शुरू होने वाली तैयारियों और होमवर्क का क्या मतलब है? या तो वो अधूरी होती हैं या फिर समग्रता के साथ नहीं होतीं।
‘राइट क्लिक ‘
-लेखक ‘सुबह सवेरे’ के वरिष्ठ संपादक हें।