आलेख
अजय बोकिल
बांग्लादेश में जो आंदोलन आरक्षण विरोध को लेकर शुरू हुआ था, वह सत्ता शेख हसीना हटाओ आंदोलन में कैसे बदला और उसकी एक दिशा हिंदू अल्पसंख्यको पर हमलों में कैसे तब्दील हो गई।
और कभी भारत का ही हिस्सा रहे बांग्लादेश देश में 5 अगस्त को हुए तख्ता पलट के बाद भारत में दो नैरेटिव सामने आ रहे हैं। पहला तो यह कि धर्म की बुनियाद पर बने देशों में साम्प्रदायिक नफरत का जिन्न मौका मिलते ही फिर सिर उठाने लगता है, और दूसरा यह कि भारत में सत्ता का चरित्र बांग्लादेश जैसा ही रहा तो यहां भी तख्ता पलट की आशंका है, जिसमें विदेशी ताकतें भी अपना खेल कर सकती हैं।
दरअसल, भारत को बांग्लादेश के घटनाक्रम से सबक लेना चाहिए। इसमें भी पहला नैरेटिव अनुभव और परिस्थितिजन्य है तो दूसरा नरेटिव शुद्ध रूप से राजनीतिक है। हमें दोनों नैरेटिव्स को उनके संदर्भों में समझना होगा।
समझना होगा भारत को हालात को?
पहले नरेटिव को देखें तो बांग्लादेश में जो आंदोलन आरक्षण विरोध को लेकर शुरू हुआ था, वह सत्ता शेख हसीना हटाओ आंदोलन में कैसे बदला और उसकी एक दिशा हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमलों में कैसे तब्दील हो गई। वहां के पीड़ित हिंदुओं का दोष शायद इतना ही था कि देश की कुल आबादी का महज 8 फीसदी रहे हिंदुओं में ज्यादातर हटाई गई पीएम शेख हसीना वाजेद की पार्टी के समर्थक थे। जो खबरें आ रही हैं, उसके मुताबिक बांग्लादेश के 27 जिलों में हिंदू मंदिरों और हिंदुओं पर हमले और लूटपाट हुई है। दो हिंदू नेताओं को मार दिया गया है।
हालांकि, एक खबर यह भी आ रही है कि हिंसा का यह रूप उतना व्यापक नहीं है, जितनी की आशंका थी। बांग्लादेशी हिंदुओं के बड़े संगठन बांग्लादेश जातीय महाजोत के अध्यक्ष गोविंद चंद्र प्रामाणिक का कहना है कि 5 अगस्त की शाम कुछ हिंदू नेताओं पर हमला हुआ। फिर कुछ मंदिरों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई, लेकिन अब हालात पहले से काफी बेहतर हैं।
हालांकि, प्रामाणिक का यह बयान राजनीतिक और मजबूरी में दिया गया ज्यादा लगता है। क्योंकि वह शेख हसीना को भी साम्प्रदायिक बताते हैं और कहते हैं कि वो मुस्लिम परस्त थीं साथ ही शेख हसीना की विरोधी बीएनपी और जमायते इस्लामी की तारीफ भी करते हैं।
दूसरी तरफ बांग्लादेश की एक भुक्तभोगी हिंदू महिला का एक वीडियो भी वायरल हो रहा है, जिसमें वो कह रही है कि सेना कुछ जगह हिंदुओं की रक्षा कर रही है, लेकिन वह मुख्य मार्गों पर ही है।
अंदरूनी इलाकों में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा बेखौफ जारी है। इस बात की गंभीरता को इससे भी समझा जा सकता है कि अब अमेरिका, जिसके खुद तख्ता पलट साजिश में शामिल होने की आशंका है, उसने भी बांग्लादेश में हिंदुओं की सुरक्षा को लेकर चिंता जताई है। वैसे भी वहां प्रतिपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) तथा जमायते इस्लामी को कट्टर राष्ट्रवादी और मुस्लिम परस्त पार्टियां माना जाता है।
वैसे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में अगस्त महीने का बड़ा महत्व है। अविभाजित भारत में ‘बंग भंग आंदोलन’ की समाप्ति के बाद अंग्रेजों की शह पर ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में तत्कालीन बंगाल और आज के बांग्लादेश की राजधानी ढाका में ही हुई थी। इस घटना के 41 साल बाद देश के दो टुकड़े हो गए थे। मुस्लिम लीग की स्थापना में ढाका के नवाब ख्वाजा सलीमुल्लाह की विशेष भूमिका थी।
यहां भारत में 9 अगस्त को हर साल ‘अगस्त क्रांति दिवस’ के रूप में याद किया जाता है। क्योंकि इसी दिन 1942 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने ‘अंग्रजों भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत की थी। यह ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ भारतीयों का निर्णायक स्वतंत्रता आंदोलन था। इस आंदोलन के चार साल बाद जब मुस्लिम लीग ने धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्रों’ की मांग को लेकर ब्रिटिश सरकार को अल्टीमेटम के रूप में ‘डायरेक्ट एक्शन’ का ऐलान किया, वह तारीख भी 16 अगस्त 1946 थी।
मुस्लिम लीग ने उस दिन आम हड़ताल का आह्वान किया था, जिसका कांग्रेस और हिंदूवादी संगठनों ने विरोध किया। इसके बाद अविभाजित बंगाल के कोलकाता, नोआखाली व आसपास के इलाकों में भयंकर मारकाट शुरू हो गई, जिसमें करीब 4 हजार लोग मारे गए। 1 लाख से ज्यादा घायल हुए। हालांकि, इस हिंसा को शुरू करने को लेकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने एक दूसरे पर आरोप लगाए थे। लेकिन मानो यही काफी नहीं था।
देश में हिंसा का दूसरा दौर आजादी के समय शुरू हुआ। 14 और 15 अगस्त की आधी रात को पूर्व का अखंड भारत, भारत और पाकिस्तान नामक धर्म के आधार पर दो देशों में विभाजित कर दिया गया। शुरू में दोनों देशों का स्वतंत्रता दिवस एक ही था। लेकिन बाद में पाकिस्तान 14 अगस्त को अपना ‘यौम- ए- आजादी’ घोषित किया। उसी दिन कराची में सत्ता का हस्तांतरण पाकिस्तान मुस्लिम लीग को हुआ था।
1971 में पाकिस्तान से अलग होकर नवोदित बांग्लादेश बना और पूर्व में पाकिस्तान बनने वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग भी अप्रासंगिक हो गई। वहां 8 अगस्त 1976 को नई ‘बांग्लादेश मुस्लिम लीग’ नामक पार्टी की स्थापना हुई। अब यह पार्टी भी तीन धड़ो में बंट गई है और बांग्लादेश में वो कोई बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं है। उसकी विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम अब बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमायते इस्लामी कर रही हैं।
यह भी विडंबना है कि जिस आधुनिक बांग्लादेश की स्थापना शेख मुजीबुर्रहमान ने की थी और जिन्हें आदर के साथ वहां ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाता है, उनकी हत्या भी 15 अगस्त 1975 को हुई थी। और अब 5 अगस्त को बांग्लादेश में उनकी मूर्तियां तोड़ दी गईं। किसी देश के नागरिकों द्वारा अपने ही राष्ट्रपिता का यह अपमान हैरान करने वाला है। यह बात अलग है कि शेख मुजीब खुद 1947 में पाकिस्तान बनवाने वाली मुस्लिम लीग के सक्रिय युवा नेता थे। फिर भी बांग्लादेश के लोगों की नाराजी शेख हसीना और अवामी लीग के प्रति हो सकती है, लेकिन मुजीबुर्रहमान की मूर्तियां तोड़ने का क्या मतलब है?
भारत और बांग्लादेश, आखिर क्या रुख होगा सरकार का?
इधर भारत में तीन साल पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 14 अगस्त को विभीषिका दिवस मनाने का ऐलान किया था, तब उसकी आलोचना यह कहकर की गई थी कि वो देश विभाजन की हिंसक त्रासदी की यादों को फिर से जिंदा कर नए सिरे से साम्प्रदायिक नफरत फैलाना चाहते हैं। बेशक बुरी यादों को सहेजना कोई भी नहीं चाहता। लेकिन यह भी कड़वा सच है कि 14 अगस्त 1947 को भड़के दंगों में अकेले कोलकाता में ही 500 हिंदू मारे गए थे।
कोलकाता और नोआखाली में भड़के भयंकर साम्प्रदायिक दंगों को रुकवाने महात्मा गांधी को वहां जाना पड़ा। उसके बाद हिंसा थमी। अब 5 अगस्त 2024 को बांग्लादेश में राजनीतिक आंदोलन के समानांतर जो साम्प्रदायिक हिंसा देखने को मिली, वह इस बात की झलक जरूर है कि 14 अगस्त 1947 को तत्कालीन भारत में क्या और कैसे हुआ होगा, खासकर बंगाल और पंजाब में जहां भीषण रक्तपात हुआ। पंजाब में तो 2 लाख लोग मारे गए और 20 लाख लोग बेघर हुए।
दूसरा नैरेटिव परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी कार्यशैली पर कटाक्ष है। अर्थात् उन्होंने जनता की बात नहीं सुनी और अपने हिसाब से ही काम करते रहे तो हालात भारत में भी बिगड़ सकते हैं। हम जिसे ‘तख्ता पलट’ कह रहे हैं, बांग्लादेश में उसे ‘नई क्रांति’ कहा जा रहा है। हालांकि, भारत और बांग्लादेश के राजनीतिक, सामाजिक चरित्र में बहुत अंतर है। एक आजादी का आंदोलन अलग रखें तो यहां कोई भी आंदोलन एक साथ समूचे देश को अपनी चपेट में नहीं ले सका है।
बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे देशों में सेना कभी परोक्ष तो कभी प्रत्यक्ष रूप से सत्ता का संचालन करती रही है। भारत में वैसा नहीं है। हमारी व्यापक विविधता और विशालता और संप्रभुता ही हमारा आत्म अंकुश है। यहां कई बार बड़े राजनीतिक आंदोलन हुए हैं, जातीय हिंसा भी हुई हैं, साम्प्रदायिक दंगे भी हुए हैं, लेकिन उसकी व्याप्ति सीमित क्षेत्र तक ही रही है। चुनावों के अलावा सत्ता परिवर्तन का कोई भी औजार यहां आसानी से काम नहीं कर सकता।
अगर शेख हसीना की तरह येन केन प्रकारेण सत्ता में बने रहने की प्रवृत्ति हावी हुई तो सबसे पहले जनता ही आपका साथ छोड़ेगी, यह तय है। लेकिन भारत में उसका तरीका अलग होगा। यहां मोदी को हटाना होगा तो जनता ही हटाएगी और दूसरे किसी को लाना होगा तो जनता ही लाएगी। कोई नैरेटिव सेट करने के पहले हमे अपनी आत्मशक्ति और आंतरिक चरित्र की ताकत को कम आंकने की भूल नहीं करनी चाहिए।
–लेखक प्रदेश के ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हें।