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क्रिकेट में हार: मीडिया को भी गहरे आत्म मंथन की जरूरत है-अजय बोकिल

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आलेख
अजय बोकिल

इस समूचे विश्वकप टूर्नामेंट में और खासकर फाइनल के पहले भारत की जीत को लेकर मीडिया, खासकर इलेक्ट्राॅनिक-सोशल मीडिया में जिस तरह का भयंकर हाइप और उन्माद भड़काने कोशिश की गई, उससे उनकी टीआरपी और हिट्स भले बढ़े हों, भारतीय क्रिकेट टीम पर नकारात्मक दबाव बन गया।

ऑस्ट्रेलिया आईसीसी वनडे विश्वकप टूर्नामेंट में छठी बार चैम्पियन बनी। फाइनल में बीस साल पुरानी हार का बदला लेना तो दूर भारतीय टीम अपना वो स्वाभाविक खेल भी नहीं दिखा पाई, जिसके लिए सेमीफाइनल तक अपनी अजेयता के लिए वह जानी जा रही थी। लेकिन फाइनल में जो मुकाबला टूर्नामेंट की तब तक नंबर वन और नंबर टू टीमों में होने जा रहा था, वह नतीजे आने तक रिवर्स में बदल गया।

भारतीय टीम के हार के कारणों का विश्लेषण शुरू हो गया है, आगे भी होता रहेगा। लेकिन इस समूचे विश्वकप टूर्नामेंट में और खासकर फाइनल के पहले भारत की जीत को लेकर मीडिया और खासकर इलेक्ट्राॅनिक-सोशल मीडिया में जिस तरह का भयंकर हाइप और उन्माद भड़काने कोशिश की गई, उससे उनकी टीआरपी और हिट्स भले बढ़े हों, भारतीय क्रिकेट टीम पर इतना नकारात्मक दबाव बन गया कि वो फाइनल में ठीक से खेल ही नहीं सके

यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि फाइनल मैच में भारत की हार मात्र दो-चार रन अथवा एक-दो विकेट से नहीं, पूरे छह विकेट से हुई। पूरे मैच के दौरान कहीं महसूस नहीं हुआ कि भारतीय टीम ने विश्वकप ट्राॅफी कब्जाने के लिए जी जान लगा दी हो। पूरा मैच लगभग एकतरफा ही लगा। टाॅस हारने के बाद मैच जीतने को लेकर भारत की वैकल्पिक रणनीति क्या थी, वह भी नजर नहीं आई। ऐसा महसूस हो रहा था मानो टूर्नामेंट के अंतिम निर्णायक मैच में बल्लेबाज गेंदबाजों के और गेंदबाज, बल्लेबाजों के भरोसे बैठे थे तथा फील्डिंग के मामले में खिलाडि़यों को उनकी मर्जी पर छोड़ दिया गया था।

बेशक लगभग हाथ आई विश्वकप ट्रॉफी के यूं अचानक छिन जाने का गम भारतीय क्रिकेट टीम और क्रिकेट प्रेमियों को बरसों सताता रहेगा। इस हार के बाद टीम रोहित के सदस्यों की आंखों से आंसू छलक पड़े तो यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि इस अकेले मैच ने टीम के अब तक के किए कराए पर पानी फेर दिया था। लेकिन असली सवाल तो यह है कि क्या इस वनडे क्रिकेट वर्ल्ड कप में भारत की जीत को लेकर देशभर में चार दिनों से जो मीडिया हाइप बनाया जा रहा था, वह कितना वास्तविक और जायज था?
बाजारवादी दबाव का दिखा असर
यह सही है कि बाजारवाद के जमाने में आज हर इंवेट का बाजार पक्ष पहले देखा जाता है, लेकिन इससे इंवेट से जुड़े मूल कारकों पर कितना नकारात्मक असर होता है, इस बारे में शायद ही कोई सोचता है। इसमें मीडिया भी शामिल है। बेशक भारतीय क्रिकेट टीम ने फाइनल में कुछ रणनीतिक गलतियां कीं, इसीलिए हारे, लेकिन टीम नेतृत्व के सही निर्णय और खिलाड़ियों के अपने स्वाभाविक खेल से भटकने के पीछे वजह हर हाल में जीत हासिल करने का वह कृत्रिम दबाव भी है, जिसकी कतई जरूरत नहीं थी। जीत के नगाड़े सचमुच जीत हासिल करने के बाद भी बजाए जा सकते थे।

पता नहीं सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड पर धमाकेदार जीत के बाद भारतीय वनडे क्रिकेट टीम के सदस्यों ने टीवी चैनलों को कितनी बार देखा होगा, सोशल मीडिया पर कितनी बार क्लिक किया होगा, किया भी होगा या नहीं। इस दौरान क्या- क्या नहीं हुआ? खिलाड़ियों के घर परिवार वालों को खंगाला गया, पूजा, हवन, दुआएं करवाई गई। नरेन्द्र मोदी स्टेडियम के गेट से लेकर जहां खिलाड़ी ठहरे थे, उस होटल से निकलने वाली गाड़ियों के लाइव कवरेज से लेकर नीली जर्सी पहने हर शख्स को भारतीय टीम के हरकारे के रूप में पेश करने की कोशिशें हुई। पूरे कवरेज में टीवी एंकरों की अदा यूं थी कि मानो विश्व कप की ट्राॅफी का पार्सल भारतीय कप्तान के नाम आ चुका है, बस ऑनलाइन पेंमेंट की जरूरत है।
पुराने दिग्गज खिलाड़ियों से बार-बार एक ही सवाल किया जा रहा था कि कौन जीतेगा, जिसका उत्तर भी लगभग प्रायोजित था।

मीडिया का अजीबो-गरीब प्रस्तुतिकरण
एक बड़े न्यूज चैनल ने भारतीय टीम की जीत का श्रेय प्रधानमंत्री को देने तक की तैयारी कर ली थी तो कुछ ने क्रिकेट वर्ल्ड कप की जीत को भारत के विश्व गुरू बनने और इस जीत के राजनीतिक समीकरणों को बताने का खाका भी तैयार कर लिया था, दुर्भाग्य से वैसी नौबत ही नहीं आई।

कुछ अखबारों ने इस क्रिकेट मैच को ‘धर्मयुद्ध’ और ‘विश्व विजय’ की संज्ञा तक दे डाली (बावजूद इस सच्चाई के कि दुनिया में क्रिकेट सिर्फ एक दर्जन देश ही खेलते हैं और फुटबाल 195 देशों में खेला जाता है, जिसमें विश्वस्तर पर हम कहीं नहीं हैं)। मीडिया के लगभग हर फार्मेट में ऑस्ट्रेलिया से बदला लेने के लिए भारतीय टीम को उसी तरह उकसाया जा रहा था, जैसे कि आंतकी हमले का बदला पाकिस्तान को सबक सिखाने के रूप में लेने की बात की जाती है।

टीवी चैनलों की हर संभव कोशिश यही थी कि दर्शक की उंगली रिमोट के उसी बटन पर रहे, जो उस चैनल का नंबर है। सोशल मीडिया इस मामले में सबसे आगे था। कुछ अति उत्साही यूजरों ने यह सिद्ध करने की भी कोशिश की कि वर्ल्ड कप में भारतीय क्रिकेट टीम की जीत का दिल्ली में सत्तासीन राजनीतिक दल का कैसे सीधा सम्बन्ध है। इसमें वो साल गिनाए गए, जब भारत आईसीसी टूर्नामेंट जीता और उस वक्त दिल्ली में किस पार्टी की सरकार थी। गोया राजनीतिक विचारधारा और सत्तासीनता का क्रिेकेट में भारत के परफार्मेंस से कोई सीधा रिश्ता हो।

दरअसल इस तरह का उन्माद पैदा करना और जमीनी हकीकत को दरकिनार करना झूठ के स्वर्ग में जीने की कोशिश करना भी एक तरह सामूहिक मानसिक रोग है। इसकी एक झलक फाइनल मैच में भी उस वक्त दिखाई दी जब विराट कोहली दर्शकों को और जोर से हल्ला मचाने के लिए उकसाते दिखे। विराट जैसे महान खिलाड़ी को इस बात पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए था कि हमारे खिलाड़ी अपना स्वाभाविक खेल कैसे खेलें और ऑस्ट्रेलिया के जाल से बाहर कैसे निकलें, न कि दर्शकों को ज्यादा हल्ला करने के लिए उकसाना। इसी से साबित हो गया था कि हमारे खिलाड़ियों का ध्यान खेल से ज्यादा कहीं और है तथा उन्हें जीत के लिए खुद के खेल से ज्यादा भरोसा दूसरे कारकों पर है।

फियर ऑफ फेल्योर का शिकार हुई टीम
मनोविश्लेषकों का कहना है कि भारतीय क्रिकेट टीम एक बार फिर ‘फियर ऑफ फेल्योर’ (हार के डर) का शिकार हुई। ऐसी मनोस्थिति में इंसान का सही रास्ते पर चलते हुए भी अपने आप पर विश्वास डगमगाने लगता है। हमारे बल्लेबाजों ने जिस लापरवाह ढंग से अपने विकेट गंवाए, फील्डरों ने बहुत सुविधाजनक फील्डिंग की, हालांकि गेंदबाजों की गेंदबाजी में कसर नहीं थी, लेकिन विकेट को पढ़ने में जो गलती शुरू में नेतृत्व से हो गई थी, उसका कोई तोड़ बाॅलरों के पास नहीं था।

साफ झलक रहा था कि लगभग पूरी टीम एक अदृश्य दबाव में खेल रही है, खिलाड़ी गलती पर गलती किए जा रहे हैं और अपने विश्वविजेता होने के काल्पनिक मायाजाल में भटक रहे हैं। कहा यह भी जा रहा है कि फाइनल के दिन किस्मत भारत का साथ छोड़ चुकी थी, लेकिन इतना तो हो ही सकता था कि जीत को लेकर गैरजरूरी और हद तक घातक ‘हाइप’ को रोका ही जा सकता था।

क्रिकेट टीम की इस मार्मिक हार से मीडिया को इतना आत्ममंथन तो करना ही चाहिए कि वह अपनी भूमिका को खेल को खेल भावना से ही खेलने देने तक ही तक ही सीमित रखे, उसे युद्धोन्माद में तब्दील करने में ईंधन का काम न करे।

लेखक मप्र के ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हें।

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