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“राइट क्लिक “-सवाल प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों के मौलिक अधिकार का है…अजय बोकिल

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आलेख
अजय बोकिल

भारत में शिक्षा कोचिंग के दुष्चक्र में फंसे छात्र छात्राओ द्वारा हर साल आत्महत्याओ की बात नई नहीं है, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में एक नामी कोचिंग सेंटर की इमारत के बेसमेंट में पानी भरने से तीन भावी आईएएस बनने के इच्छुकों का बेमौत मारा जाना दरअसल तीनों की समूचे असंवेदनशील तंत्र द्वारा की गई हत्या है। इस घटना ने पहली बार यह मुद्दा शिद्दत से उठाया है कि आखिर छात्रों के भी मौलिक अधिकार है और उनकी हर हाल में रक्षा की जानी चाहिए। मानवीय गरिमा से रहित माहौल मे रहकर किसी परीक्षा को पास कर लेना भी अपने आप में नैतिक अपराध है। ऐसी ही एक प्रतियोगी परीक्षा की

तैयारी कर रहे छात्र अविनाश दुबे ने देश के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ को पत्र लिखकर गुहार की है कि वो छात्रों के मौलिक अधिकारों को संरक्षित करें। यह अधिकार स्वस्थ वातावरण में जीते हुए प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने का है। हालांकि देश में छात्रों के कुछ मौलिक अधिकार तो पहले से हैं।

ये है शिक्षा का अधिकार, समान व भेदभाव रहित अवसरों का अधिकार, सूचना व निर्भीक अभिव्यक्ति का अधिकार। लेकिन शिक्षा के व्यवसायीकरण ने इन अधिकारों में स्वस्थ और तनावरहित वातावरण में अध्ययन का अधिकार भी शामिल हो गया है। यह मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि गिने- चुने कोचिंग संस्थानों को छोड़ दें तो अधिकांश में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे लाखों छात्र किन हालात में जी रहे हैं, किस तरह प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, उन्हें बुनियादी सुविधाएं भी ठीक से मुहैया हैं या नहीं, इन पर शायद ही किसी का ध्यान जाता हो। खुद छात्रों और उनके अभिभावकों का ध्यान भी ज्यादातर इसी बात पर रहता है कि बच्चे का किसी तरह अच्छी नौकरी अथवा‍ शिक्षा संस्‍थान में सिलेक्शन हो जाए बाकी बातें गौण हैं। कुछ दिनों की तकलीफ है। अंत भला तो सब भला। वो इस बात को भी दरकिनार कर देतें हैं कि कोचिंग संस्थान मोटी फीस लेने के बदले कैसी सेवाएं दे रहे हैं। ये कोचिंग संस्थान केन्द्र सरकार की उस गाइड लाइन का पालन कर भी रहे हैं या नहीं, जो ऐसे कोचिंग संस्थानों में आधारभूत सुविधाएं तथा सेवाएं देने के लिए बनाई गई हैं। हालांकि इसमें वो मानसिक दबाव शामिल नहीं है, जिसके कारण हर साल कई बच्चे बीच कोचिंग में ही आत्महत्या कर न केवल खुद की जीवन लीला समाप्त कर लेते है बल्कि उन मां बाप को भी जीवन भर का जख्म दे जाते हैं, जो किसी तरह पेट काटकर अपने लाडले या लाडली को कुछ बनाने के लिए मुंह मांगा पैसा खर्च करते हैं।


दरअसल प्रतियोगी परीक्षाओ के लिए कोचिंग का कारोबार और इसके पीछे का मनोविज्ञान भारत में अब एक विशाल उद्योग और कारोबार का रूप ले चुका है। कोचिंग भी मुख्‍यत: दो तरह की होती है। पहली नौकरियों की प्रतियोगी परीक्षाअों के लिए तो दूसरी श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए। ये सिलसिला शिक्षण संस्थान में प्रवेश से लेकर अच्छी नौकरी पाने तक जारी रह सकता है। देश में आज 68 हजार118 रजिस्टर्ड कोचिंग संस्थान चल रहे हैं और इनमें हर साल करीब 3 लाख छात्र कोचिंग लेते हैं। अनरजिस्टर्ड कितने हैं, इसकी जानकारी नहीं है। राजस्थान का कोटा शहर सबसे बड़ा कोचिंग हब है, जहां 146 कोचिंग सेंटर हैं। कोचिंग संस्थान छात्रों को परीक्षा पास कराने के लिए अपने यहां अच्छे ट्यूटर, पेपर साॅल्व करने की तकनीक, विषयवार अध्यापन, माॅक इंटरव्यू आदि आयोजित करने का दावा करते हैं। ये तस्वीर पेंट की जाती है कि उनके यहां एडमिशन लेने पर जन्नत का द्वार खुल जाएगा। प्रतियोगी परीक्षाअों के नतीजे आने के तत्काल बाद अखबारों में कोचिंग संस्थानों के बड़े- बड़े विज्ञापन छपते हैं, जिसमें सफल छात्रों की तस्वीरें और रैंक छापकर नए क्लायंट्स को आकर्षिक किया जाता है। ये कोचिंग में ऑन लाइन और ऑफ लाइन दोनो होती है। ऑफ लाइन विद्याार्थियों के रहने के लिए होस्टल, मेस तथा लायब्रेरी सुविधा होने का भी दावा किया जाता है। लेकिन हकीकत में ये सुविधाएं कहां और कितनी गुणवत्तापूर्ण होती हैं, यह बड़ा सवाल है। कई जानकारों का मानना है कि अगर स्कूल काॅलेजों में अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जाए तो कोचिंग संस्थानों की अमरबेल पनप ही नहीं सकती। लेकिन वो एक अलग कहानी है। एक अनुमान के अनुसार आज भारत में कोचिंग उद्योग आज 58 हजार करोड़ रू. का है, जो 15 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है। अगले चार सालों में इसके 1.33 लाख करोड़ रू. का हो जाने की संभावना है। कारण वही कि ज्यादा से ज्यादा लोग सरकारी नौकरी और बेहतर शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेना चाहते हैं। क्योंकि यही सुरक्षित भविष्य की गारंटी है। हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि कोचिंग उद्दयोग करीब 10 लाख लोगों को रोजगार भी दे रहा है।


इन सबके बावजूद दिल्ली की घटना शायद अपने आप में पहली ऐसी हिला देने वाली घटना है, जिसमें जिसमें एक किताबघर ही मौत के घर में तब्दील हो गया हो। इस भयंकर हादसे में जान गंवाने वाले तीनो विद्यार्थी श्रेया यादव, तान्या सोनी और नेविन डेल्विन अपने- अपने राज्यों से दिल्ली इस उम्मीद में आए थे कि वो कोचिंग लेकर यूपीएससी की कठिन परीक्षा पास कर आईएएस बनेंगे। लेकिन सिस्टम की लापरवाही ने उनके सपनो पर पहले ही गंदा पानी फेर दिया। आश्चर्य की बात तो यह है कि दिल्ली के राजेन्द्र नगर में जिस प्रतिष्ठित राउज आईएएस कोचिंग सेंटर में यह सब हुआ,उसे देश का पहला कोचिंग सेंटर माना जाता है। इसकी स्थापना 1953 डाॅ. एस राव ने राजनीति विज्ञान की कोचिंग के रूप में कनाट प्लेस में की थी। बाद में यहां यूपीएससी परीक्षा की तैयारियों की कोचिंग भी शुरू हुई। अब इस कोचिंग संस्थान के मालिक अभिषेक गुप्ता हैं। संस्थान का ध्येय वाक्य है ‘शिक्षा कभी बेकार नहीं जाती।‘ इस संस्थान का दावा है कि 2024 में यूपीएससी में सफल छात्रों में से 281 छात्र राउज स्टडी सर्कल के हैं। शायद यही कारण है कि बच्चे इस संस्थान की बेसमेंट में बनी असुरक्षित लायब्रेरी में भी बैठकर पढ़ने में मशगूल थे और जब अचानक नाले का पानी वहां भरने लगा तो बच कर बाहर भी नहीं निकल सके। क्योंकि बिजली नहीं होने से बाहर निकलने का गेट भी जाम हो गया था।


यहां सवाल यह भी है कि बेसमेंट जहां अमूमन पार्किंग, स्टोर आदि होता है, में लायब्रेरी बनाने का क्या औचित्य है? यह इस बात का भी परिचायक है कि हम भारतीयों के लिए पुस्तकालय का कितना महत्व है? किताबें हमारे घरों अथवा इमारतों में कहां जगह पाती हैं? इस हादसे के बाद सोया प्रशासन और बेपरवाह सरकार भी जागी है। देरी से जागने वालों में वो अफसर भी हैं, जो शायद किसी कोचिंग के बाद परीक्षा पास कर नौकरी में आएं हों। नाराज कोचिंग छात्रों के आंदोलन और व्यापक आलोचना के बाद कोचिंग संचालकों, बिल्डिंग मालिक और अन्य जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है। 20 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार भी किया गया है। लेकिन यह सब चिडि़या खेत चुग जाने के बाद भी बातें हैं।


यहां मूल मुद्दा यह है कि क्या सरकारें कोचिंग संस्थानों पर यह दबाव बना पाएंगी कि वो इस काम को महज अंधी कमाई का धंधा न मानकर मूलभूत और गुणवत्तापूर्ण सेवा के रूप में लें। क्योंकि कोचिंग संचालकों का अपना जाल है और पहुंच है। जबकि कोचिंग में पढ़ रहे छात्रों का कोई देशव्यापी संगठन नहीं है, जो उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए लड़ सके। कोई विद्यार्थी कोचिंग के बाद भी प्रतियोगी परीक्षा पास होता है या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन जीने के सेहतमंद माहौल में परीक्षा की तैयारी करने के उसके मौलिक ‍अधिकार की संरक्षा तो होनी ही चाहिए। दिल्ली जैसे महानगरों में गरीब और मध्यम वर्ग के सैंकड़ों तंगहाली में भेड़ बकरी जैसे हालात में परीक्षा की तैयारी करते हैं। वो चुपचाप सहते जाते हैं। ऐसे लोगों का कभी कोई सर्वे हुआ हो, जानकारी में नहीं है। केवल उन लोगों की फोटो जरूर छपती है, जो परीक्षा पास कर गए हैं। लेकिन उन छात्र छात्राअो का क्या जिनके मानवीय गरिमा के साथ अध्ययन करने और जीने के संवैधानिक अधिकार का हनन सुनियोजित तरीके से हुआ है?


लेखक ‘सुबह सवेरे’ के वरिष्ठ संपादक हें।

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