कभी मध्य-पूर्व का पेरिस कहलाने वाला देश लेबनान आज गरीबी, भ्रष्टाचार, आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है. हाल ही में लेबनान इजराइल गाजा जंग के बीच भी सुर्खियों में बना हुआ है. लेबनान का शिया सैन्य संगठन हिजबुल्लाह इजराइल के खिलाफ प्रोक्सी वॉर लड़ रहा है. देश के लोगों को एक स्थिर सरकार की जरूरत है लेकिन बार-बार यहां राष्ट्रपति का चयन लटकता जा रहा है. राष्ट्रपति चुनने को लेकर हुए कई प्रयासों के बाद भी लेबनान में राष्ट्रपति की कुर्सी 16 महीनों से भी ज्यादा वक्त से खाली पड़ी है.
लेबनान की दक्षिणी सीमा पर बढ़ते इजराइली तनाव से देश की स्थिरता को खतरा और बढ़ गया है और देश आर्थिक संकट की गर्त में पहुंच गया है. लेबनानी लोगों को इस वक्त ऐसे नेतृत्व की तालाश है जो देश को इन संकटों से निकाल सके. लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी देश में राष्ट्रपति नहीं चुना जा सका है. राष्ट्रपति का चयन न होने की एक वजह इस देश का कानून है. लेबनान में सत्ता को धर्म के आधार पर बांटा गया है. सुन्नी मुसलमान, शिया मुस्लिम और इसाई धर्म के मानने वाले लोगों में सत्ता के पद बांट दिए गए हैं.
गृह युद्ध के बाद बना सिस्टम बन रहा नासूर
दरअसल, लेबनान में 1943 में एक ऐसा राजनीतिक फॉर्मूला बनाया गया था जिसमें सभी धार्मिक गुटों को जगह दी गई. संसद का स्पीकर पद शिया मुस्लिम गुट को, प्रधानमंत्री का पद सुन्नी मुस्लिम के हिस्से और राष्ट्रपति की कुर्सी इसाई धर्म को दी गई है. यानी अलग-अलग कुर्सियों पर अलग-अलग धर्मों के लोग बैठते हैं.
इस व्यवस्था का मकसद विभिन्न धार्मिक गुटों को साथ लेकर सत्ता संभालने का मौका देना और शांति सुनिश्चित कर किसी गृह युद्ध को टालना था.
वहीं, कोरोना महामारी की मार झेल रहे लेबनान में बेरूत बंदरगाह पर रखे कई टन अमोनियम नाइट्रेट में 2020 में विस्फोट हो गया था. जिसके बाद देश की आर्थिक हालत और गर्त में चली गई. इस विस्फोट के बाद लेबनान की पूरी सरकार ने इस्तीफा दे दिया. इसके बाद से आज तक लेबनान में कोई स्थिर सरकार नहीं बन पाई है. लेबनान के आखरी राष्ट्रपति मिशेल नईम औन ने 30 अक्टूबर 2022 को अपना कार्यकाल पूरा कर लिया था. जिसके बाद से अब तक वहां राष्ट्रपति नहीं चुना गया है.
कहां फंस रहा है पेच?
लेबनान में नई कैबिनेट का गठन सीधे तौर पर नहीं होता है. 128 मेंबर वाली संसद में सांसद गुप्त तरीके से राष्ट्रपति चुनने के लिए मतदान करते हैं. संसद में मुस्लिम और ईसाई संप्रदायों के बीच सीटें बराबर विभाजित हैं लेकिन अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार को जिताना या कोरम हासिल करने के लिए किसी भी एक गुट के पास पर्याप्त सीटें नहीं हैं. इसी कानून की वजह से दूसरे राजनीतिक दलों के वोटों की जरूरत होती है. लेकिन तीनों गुटों में समन्वय न बैठ पाने से करीब 12 बार राष्ट्रपति चुनने की कोशिश नाकाम रही है.