भाजपा की जीत और 2024 का आम चुनाव: तीन राज्यों के चुनावी नतीजों में छिपा लोकसभा चुनाव का नरेटिव-अजय बोकिल
आलेख
अजय बोकिल
देश में लोकसभा चुनाव से पांच महीने पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में हिंदी पट्टी में भाजपा की जबर्दस्त जीत केवल मोदी की लोकप्रियता की कायमी पर मोहर ही नहीं है, इसने आगामी लोकसभा चुनाव का नरेटिव भी सेट कर दिया है। ये है मोदी की गारंटी और मोदी का नया जातिवाद।
दरअसल, ये कांग्रेस की चुनावी गारंटियों और क्षेत्रीय दलों के जातिवाद के मुद्दों का नया जवाब है। इन तीनों हिंदी भाषी राज्यों में से दो में सत्तारूढ़ और एक में सत्ताकांक्षी कांग्रेस की करारी हार में छिपा सबक यह भी है कि अगर उसे राष्ट्रीय पार्टी बने रहना है तो उसे क्षेत्रीय दलों के मुद्दों की पिच पर बैटिंग करना छोड़कर खुद को अखिल भारतीय सोच के साथ ही मतदाता के पास जाना होगा।
दूसरे, चुनाव प्रबंधन की परीक्षा में कांग्रेस को माइक्रो मैनेजमेंट के पेपर में प्रथम श्रेणी के अंक लाने होंगे। इन नतीजों ने यह भी साबित किया कि लोकतंत्र में चुनाव केवल परसेप्शन, सोशल मीडिया एक्टिवनेस और प्रायोजित सर्वे के भरोसे नहीं जीते जाते। जनमानस को भांपने और जनाकांक्षा को संतुष्ट कर सकने के काम और वादों को पूरा करने से जीते जाते हैं।
हर राज्य में जीत की एक कहानी है-
पांच राज्यों में से राजस्थान को हम इस आधार पर अलग रख सकते हैं कि वहां बीते 30 सालों से हर पांच साल बाद सत्ता बदलने का रिवाज है। लेकिन इस रिवाज में भी इस बार नई बात भाजपा को स्पष्ट बहुमत का मिलना है, वरना वहां ज्यादातर समय सरकारें बहुत किनारे के बहुमत के साथ बनती रही है और उसे टिकाने के लिए मुख्यमंत्रियों को गहलोत की तरह ‘जादूगरी’ दिखानी पड़ती रही है। लेकिन राजनीति शास्त्र के हिसाब से मप्र और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणाम वाकई अध्ययन करने लायक हैं.
दरअसल, भाजपा ने बरसों की एंटी इनकम्बेंसी को प्रो- इनकम्बेंसी में बदला तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार, जिसे ज्यादातर लोग अजेय मानकर चल रहे थे, को भाजपा ने बिना किसी चेहरे को प्रोजेक्ट किए और आरंभिक हिचक के बाद चुनाव अभियान को तेज करके सत्ता से दमदार तरीके से बेदखल किया। यहां हमे भाजपा और कांग्रेस की चुनाव रणनीति और प्रबंधन के फर्क को समझना जरूरी है।
कांग्रेस आला कमान ने तीनो राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रपों पर भरोसा किया, जबकि भाजपा ने मोदी का चेहरा आगे कर विधानसभा के साथ-साथ आगामी लोकसभा चुनाव में भी मोदी की लोकप्रियता की सफल प्री टेस्टिंग कर ली। यह भाजपा में क्षत्रप संस्कृति के समापन का समारोही ऐलान भी था।
बेशक मप्र की जीत में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अहम भूमिका रही है। उन्हें राज्य में पांचवीं बार सीएम प्रोजेक्ट भले न किया गया हो, लेकिन उन्होंने इसे भी अपनी ताकत बनाकर अपने और प्रकारांतर से भाजपा के पक्ष में लहर में तब्दील करने में जबर्दस्त कामयाबी हासिल कर ली। पार्टी को उन्हें अनदेखा करना आसान नहीं होगा। दूसरे, मप्र में शिवराज सरकार के खिलाफ जबर्दस्त और परिवर्तनकारी एंटी इनकम्बेंसी है, यह परसेप्शन कैसे बना और किसने बनवाया?
यह व्यक्तिगत पसंद और नापसंद पर आधारित था, आम जनता का उससे खास लेना-देना नहीं था। अलबत्ता भाजपा कार्यकर्ताओं में असंतोष जरूर था। और इसी एंटी इनकम्बेंसी के अर्द्धसत्य आधारित परसेप्शन को ‘ब्रह्मसत्य’ मानकर कांग्रेस ने अपनी चुनावी रणनीति तैयार की, जिसका खोखलापन मप्र में मतदाता ने भाजपा को पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में 8 फीसदी वोट ज्यादा देकर साबित कर दिया। लेकिन इन चुनावों का राजनीतिक नवनीत वो मुद्दे हैं, जिनको लेकर भाजपा और एनडीए गठबंधन अगले साल में अप्रैल मई में होने वाले लोकसभा चुनाव में जाना चाहेगा। पहला तो गारंटी है।
इस देश में रेवड़ी कल्चर की शुरुआत दक्षिणी राज्य तमिलनाडु से हुई थी, जिसका उत्तर भारत में बीजारोपण आम आदमी पार्टी ने किया। इसका उसे खूब राजनीतिक लाभ भी मिला।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शुरू में तो इस रेवड़ी कल्चर से देश को आगाह किया, लेकिन बाद में वो और उनकी पार्टी खुद इसी रंग में रंग गए। ऐसे में रेवड़ियों के बूते सत्ता का महल सजाने वाली पार्टियां, जिनमें कांग्रेस भी शामिल है, यह भूल गई कि रेवड़ियों की प्रतिस्पर्धा में भाजपा उन्हें मीलों पीछे छोड़ सकती है, क्योंकि आज की तारीख में सबसे ज्यादा संसाधन उसी के पास है। मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में वही हुआ।
कांग्रेस ने इस रेवड़ी कल्चर पर अपनी गारंटी का मुलम्मा चढ़ाया तो मोदी ने इसे ही अपनी गारंटी बताकर उसे राजनीतिक सिक्योरिटी बांड में तब्दील कर दिया। अगले लोकसभा चुनाव में यह बांड पूरी ताकत से बेचा जाएगा। इसमें दो राय नहीं कि हिंदू समाज और खासकर उत्तर पश्चिम भारत में मोदी के दीवानों की कमी नहीं है।
यह दीवानगी समूचे पिछड़े वर्ग में तो है ही, सवर्णों में भी जबर्दस्त है। आंशिक रूप से मोदी दलित और आदिवासियों में भी कबूल हो चुके हैं। लोगों की यह मोदी भक्ति तर्कों और प्रश्नों से परे है। इसमें जल्द कोई कमी आएगी, यह मान लेना खुद को भ्रम में रखना है।
मोदी की क्षमता और नजरिया-
एक तरह से यह मान लिया गया है कि मोदी जी करिश्माई इंसान हैं। वो जो कहते हैं वो करते हैं। और वो वही करते हैं, जो बहुतांश हिंदू मन चाहता है। यह हकीकत है कि मोदी की इस गजब विश्वसनीयता पर विरोधियों द्वारा लगाए जाने वाले तमाम प्रश्नचिन्ह जनता ने खारिज कर दिए हैं। यानी कांग्रेस अथवा दूसरी विपक्षी पार्टियों की रेवड़ियों अथवा गारंटियों पर मोदी की गारंटी भारी पड़ी है और आगे भी भारी पड़ेगी। इसका असर उन दक्षिणी राज्यों में भी दिखेगा, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि वहां भाजपा के लिए दरवाजे पहले ही नहीं खुले थे या फिर खुलने के बाद अब बंद हो गए हैं। यानी वहां विधानसभा चुनाव में मोदी का जादू भले न चला हो, लोकसभा में वो कुछ न कुछ असर जरूर दिखाएगा।
एक और मुद्दा है मोदी का नया जातिवाद। देश में ओबीसी जातिगणना को लेकर मोदी सरकार पर बनाए जा रहे राजनीतिक दबाव और हिंदू एकता के बरक्स मंडल राजनीति की चिंगारी को फिर से हवा देने की सुनियोजित कोशिशों के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिंदू सहित सभी समाजों की चार नई जातियां गिनाना शुरू किया है।
ये हैं युवा, महिला, किसान और गरीब। इसे मंडल राजनीति-2 के जवाब के रूप में देखा जा रहा है। समूचे देश में यह दांव कितना कारगर होगा, यह देखने की बात है, लेकिन तीन हिंदी भाषी राज्यों में तो यह कामयाब रहा है। मतदाता ने कांग्रेस के जातिगणना के वादे को खास तवज्जो नहीं दी। खासकर मप्र में ये मुद्दा इसलिए भी बेअसर रहा, क्योंकि यहां बीजेपी बीस साल से पिछड़ों की राजनीति ही कर रही है और अधिकांश पिछड़ी जातियां राष्ट्रीय स्तर पर मोदी को ही अपना आइकन मानती हैं और इसमें कोई फर्क शायद ही पड़े।
कांग्रेस की गलतियां और संगठन-
यहां सवाल यह है कि इन परिस्थितियों में कांग्रेस को आखिर किस तरह की राजनीति करनी चाहिए और जाति गणना का मुद्दा उठाने से उसे क्या लाभ मिलना है? यह सवाल इसलिए भी अहम है, क्योंकि कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर आज भी ओबीसी नेताओं की संख्या नगण्य है। वहां ज्यादातर अगड़े और गिने चुने दलित नेता ही हैं।
राहुल गांधी ने चुनाव के दौरान जैसे जैसे ओबीसी का मुद्दा उठाना शुरू किया, कहते हैं कि वैसे वैसे कमलनाथ के मन में यह शंका घर करती गई कि यदि पार्टी सचमुच चुनाव जीती तो कहीं आला कमान ऐन वक्त पर किसी ओबीसी को सीएम न बना दे। ओबीसी राजनीति के प्रति अनावश्यक झुकाव कांग्रेस के लिए आत्मघाती ही होगा। दूसरा मुद्दा सनातन का रहा।
हालांकि, सनातन धर्म पर हमला कांग्रेसनीत् इंडिया गठबंधन में शामिल डीएमके ने किया था, जो तमिलनाडु की राजनीति के हिसाब से सही भी हो सकता है, लेकिन कांग्रेस ने उससे खुद को अलग नहीं किया। जबकि यह बहुसंख्य हिंदुओं की आस्था पर सीधी चोट थी। बीजेपी ने उत्तर भारत में इसी बिना पर कांग्रेस पर हमले किए कि वह सनातन धर्म विरोधी है।
कमलनाथ ने मप्र में इस खतरे को भांपकर खुद को ज्यादा सनातनी साबित करने की कोशिश की, लेकिन उस पर किसी ने भरोसा नहीं किया और भाजपा की इस पिच पर वो हिट विकेट ही हुए। इसी तरह इजराइल- हमास युद्ध का भारत और चुनाव वाले तीन राज्यों से कोई सम्बन्ध नहीं था। पीएम मोदी ने हमास द्वारा इजराइल पर आतंकी हमले के समय जो पहला ट्वीट किया उसी से समूचे हिंदू समाज में अलग संदेश जा चुका था।
विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने इसका राजनीतिक जवाब देने की नियत से ताबड़तोड़ सीडब्ल्यूसी की बैठक बुलाकर फिलिस्तीनियों के समर्थन में प्रस्ताव पारित किया, जिसमें हमास के हमले की कहीं कोई आलोचना नहीं थी। मुस्लिम वोटों को साधने की कांग्रेस की इन कोशिशों का बहुसंख्यक समाज में विपरीत संदेश गया।
हैरानी की बात यह थी कि कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों को सुलझाने के लिए सीडब्ल्यूसी की बैठक महीनो नहीं होती। लेकिन विदेश नीति से जुड़े फिलिस्तीन के मुद्दे पर ताबड़तोड़ प्रस्ताव पारित किया गया। विदेश नीति से जुड़े मामले में कांग्रेस सोच समझकर प्रतिक्रिया दे सकती थी। चौथा, मुद्दा खुद राहुल गांधी हैं।
ज्यादातर लोगों में यह धारणा है कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के रूप में राहुल ने जो कुछ कमाया था, उसका काफी कुछ उन्होंने अपनी दो प्रायोजित विदेश यात्राओं में गंवा दिया। कोई भी व्यक्ति कितना भी बड़ा क्यों न हो, घर के झगड़े पड़ोस में जाकर बताए और परायों से इसका गिला करे, यह शायद ही कोई पसंद करता है। राहुल भारत में पीएम मोदी पर कितने ही हमले करें, लेकिन विदेश में जाकर जब वो मोदी, भाजपा और आरएसएस का रोना रोते हैं, तो उसका लोगो में अनुकूल संदेश नहीं जाता।
इससे उनकी निर्भीकता कम कम राजनीतिक अपरिपक्वता और बचपना ज्यादा झलकता है। वो ऐसा किसकी सलाह पर करते हैं, नहीं पता, लेकिन ये भी छोटे छोटे लेकिन गंभीर कारण हैं, जिनसे मतदाता कांग्रेस से छिटका है। यही स्थिति रही तो लोकसभा में कांग्रेस वहां भी ज्यादा सीटे नहीं जीत पाएगी, जहां वो सत्ता में है।
–लेखक राजधानी भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार हें।