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उज्जैन में नाबालिग से रेप: उससे भी ज्यादा आपराधिक है समाज की संवेदनहीनता -अजय बोकिल

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आलेख
अजय बाकील

उज्जैन की नाबालिग पीडि़ता की जो दर्दनाक कहानी सामने आ रही है, वह हिला देने वाली है। रात में निर्मम रेप के बाद सुबह 6 बजे डरी-सहमी 15 साल की लड़की लड़खड़ाते हुए आती है। उसके साथ एक दरिंदा रात में बेरहमी से रेप कर बदहाल अवस्था में छोड़कर फरार हो जाता है।

महाकाल की नगरी उज्जैन में एक नाबालिग से दरिंदगी के साथ रेप और उसके बाद उस लड़की के मदद के लिए दर दर भटकने की कहानी रोंगटे खड़े करने वाली है। इसको लेकर राजनीति भी शुरू हो गई है, क्योंकि यह क्षुब्धकारी घटना चुनावों के पहले हुई है।

इधर, विपक्ष मप्र में महिलाओं की इज्जत दांव पर होने का आरोप लगा रहा है तो सत्तापक्ष दोषी को फांसी चढ़ाने की बात कह रहा है। पुलिस इस मामले में जांच कर रही है, उसने एक संदिग्ध ऑटो चालक को गिरफ्तार भी किया है।

शर्मसार करती है ये घटना
यह घटना क्यों और कैसे हुई, इसका खुलासा भी जल्द होगा, लेकिन सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि आम लोग अब ऐेसे मामलों में किसी भी पीडि़त की मदद के लिए आगे आने की बजाए उससे बचते क्यों हैं? जितना उत्साह उनका ऐसी अमानवीय घटनाओं के वीडियो बनाने में दिखता है, उसका दसवां हिस्सा भी वो पीडि़त को समय पर राहत पहुंचाने अथवा पुलिस को बुलाने के लिए करना क्यों जरूरी नहीं समझते हैं? और यह भी कि अगर समाज से इंसानियत की मर गई तो उस समाज के होने का अर्थ क्या है?

इसका अर्थ यह नहीं कि घटना का वीडियो बनाना कोई गुनाह है। कई बार ऐसे वीडियो को पुलिस को जांच में मददगार भी साबित होते हैं। लेकिन मानवीयता का तकाजा क्या है? वेदनाओं का वीडियो बनाना या फिर मानवीय संवेदनाओं के अनुरूप पीडि़त मनुष्य की हर संभव सहायता करना? यथाशक्य किसी पीड़िता के रेप से बचाना या फिर उसकी मजबूरी का नाजायज फायदा उठाना अथवा यह होते देखकर मौन रह जाना? यह जान बूझकर ओढ़ा गया मौन और उदासीनता रेप से भी बड़ा सामाजिक और नैतिक अपराध है

उज्जैन की नाबालिग पीडि़ता की जो दर्दनाक कहानी सामने आ रही है, वह हिला देने वाली है। रात में निर्मम रेप के बाद सुबह 6 बजे डरी-सहमी 15 साल की लड़की लड़खड़ाते हुए आती है। उसके साथ एक दरिंदा रात में बेरहमी से रेप कर बदहाल अवस्था में छोड़कर फरार हो जाता है।

नाबालिग के तन पर लाज ढंकने लायक कपड़े भी नहीं है। शरीर के निचले हिस्से से खून बह रहा है। वो नाबालिग रोते हुए करीब तीन घंटे पैदल चलकर 8 किलोमीटर का सफर तय करती है। वह शहर की दो कालोनियों के पांच सौ से ज्यादा घरों, दो ढाबों और एक टोल नाके से होकर गुजरती है। मदद के लिए कई घरों के दरवाजे खटखटाती है। कुछ लोग उसे इस शर्मनाक हालत में देखते भी हैं, लेकिन उसकी मदद का विचार भी उनके जेहन में नहीं आता। होगी कोई, सोचकर आगे बढ़ जाते हैं या फिर घर के अधखुले दरवाजे भी पूरे बंद कर लेते हैं। आखिरकार एक आश्रम का रहमदिल कर्मचारी उसे शरण देता है और पुलिस को खबर करता है।

मन झकझोर देने वाली यह क्रूर कथा केवल उज्जैन की नहीं है, तकरीबन हर शहर की है। तीन माह पूर्व देश की राजधानी दिल्ली की एक घनी बस्ती की संकरी गली में एक नाबालिग की उसका प्रेमी सरेआम चाकुओं से गोद कर हत्या कर देता है। लोग आते जाते उस लड़की की हत्या होते देखते यूं निकल जाते हैं मानों को नुक्कड़ नाटक हो रहा हो। किसी के माथे पर शिकन तक नहीं आती।

इसी तरह सड़क पर हादसों में कुछ लोगों की मौत हो जाती है। लेकिन राहगीर तमाशबीन की तरह देखते रहते हैं या फिर अगल बगल खड़ा हुजूम उस ‘अनोखे दृश्य’ का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने में खुद को धन्य समझता है। कोई यह जहमत नहीं उठाता कि घायल को अस्पताल पहुंचा दे या उसकी किसी तरह से जान बचा ले और न ही मृत व्यक्ति के परिजनो और पुलिस तक उसकी खबर पहुंचाने की कोशिश करता है। करे।
बड़ा सवाल यह है कि इस तरह हादसों के शिकार पीडि़तों के प्रति लोग इतनी बेरूखी क्यों दिखाते हैं? क्या इसलिए कि पीडि़तों में कोई उनका परिचित या सगा सम्बन्धी नहीं है।
संवेदनहीन समाज और नजरिया
यह वाकई गहरे अफसोस और समाज के आत्मचिंतन की बात है कि हम सभ्य, सम्पन्न और ज्ञानी होने के बाद भी मनुष्यता का बुनियादी ककहरा भी भूलते जा रहे हैं। समाज की यह संवेदनहीनता पुलिस की संवेदनहीनता से भी ज्यादा खतरनाक है।

आज कानून व्यवस्था कायम रखने का जिम्मा हमने पूरी तरह पुलिस और न्याय व्यवस्था के भरोसे छो़ड़ दिया है। हर कोई शायद यह सोच रहा है कि जो दुर्घटना, बलात्कार, दरिंदगी और अत्याचार किसी दूसरे के साथ हुआ है, वह अपने साथ नहीं होगा। इसलिए मुझे क्या करना है? जब अपने पर बीतेगी तब देखा जाएगा। अभी तो अपनी जिंदगी सुकून से जी लें। जो हुआ, जिसके साथ हुआ और जैसा भी हुआ, वो दूसरे दिन अखबार में पढ़ लेंगे या सोशल मीडिया का कोई न कोई हरकारा क्लिक बढ़वाने के लिए अपने व्हाट्स एप ग्रुप पर उसका वीडियो डाल ही देगा। घर में बैठकर या बिस्तर पर लेटकर किसी की यातना का वीडियो देखने और उसे दूसरों को फारवर्ड करने से मिलने वाला आसुरी आनंद अलग ही है।

आज हममे से अधिकांश इसी आसुरी आनंद के मनोरोगी हो चुके हैं। इन वीडियो दर्शको से कोई नहीं पूछेगा कि वीडियो बनाकर पहले पोस्ट करने का गोल्ड मेडल जीतने के बजाए पीडि़त की समय रहते मदद का विवेक उस व्यक्ति में क्यों नहीं जागता? अगर जागता भी है तो वह कार्यरूप में परिणत क्यों नहीं होता?
बड़ा सवाल यह है कि इस तरह हादसों के शिकार पीडि़तों के प्रति लोग इतनी बेरूखी क्यों दिखाते हैं? क्या इसलिए कि पीडि़तों में कोई उनका परिचित या सगा सम्बन्धी नहीं है। या फिर उसकी संवेदनाएं केवल कुछ खास लोगों के लिए हैं। एक इंसान के तौर पर उसकी संवेदनाएं उदासीनता के लॉकर में बंद रहती हैं।

इस बारे में मनोवैज्ञानिको का कहना है कि समाज का यह आचरण ‘तमाशाई प्रभाव’ (बायस्टैंडर इफेक्ट) है। इस सिद्धांत की स्थापना सामाजिक मनोवैज्ञानिक बिब लातेन और जॉन डार्ले 1964 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में किटी जेनोविस की कुख्यात हत्या के बाद की। जेनोविस की उसके अपार्टमेंट के बाहर चाकू मारकर हत्या कर दी गई थी। वह अपने घर के बाहर लेटी हुई थी जब हत्यारा उसे फिर से चाकू मारने के लिए लौटा। जिन पड़ोसियों ने अपराध देखा, वे उसकी सहायता के लिए नहीं आए।

हत्या ने लाटेन और डार्ले को प्रयोगों की एक श्रृंखला शुरू करने के लिए प्रेरित किया, जहां उन्होंने मापा कि प्रतिभागियों को-जो अकेले थे या दूसरों की उपस्थिति के बारे में पता था – एक आपात स्थिति में हस्तक्षेप करने में कितना समय लगा। अपने अध्ययन से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि भीड़ में होने पर व्यक्ति की ‘जिम्मेदारी का फैलाव’ होता है।

ऐसी स्थिति में मदद करना कोई अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता, इसलिए मदद के लिए कोई आगे नहीं आता। इसके विपरीत जब आप अकेले होते हैं तो मदद करने की जिम्मेदारी केवल आप की होती है। इसलिए यह स्थिति व्यक्ति को पीड़ितों की मदद करने के लिए प्रेरित करती है। वरना हर कोई सोचता है, मेरा क्या लेना देना है?
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इस बेरूखी का दूसरा कारण हमारे समाज में प्रगति के बरक्स सहानुभूति का घटते जाना है। आज हर कोई एक अंधी दौड़ में है, और उसके लिए, किसी की मदद की ज़रूरत से ज़्यादा उसका अपना एजेंडा महत्वपूर्ण है। यह आत्म-लीन स्वार्थ हर जगह प्रदर्शित होता है। जब लोगो में जुड़ाव की कमी होती है, तो सामाजिक लगाव और जिम्मेदारी कम हो जाती है। आप तमाशाई बनकर घटना घटते देखते तो हैं, लेकिन हादसे में किसी की मदद करना जरूरी नहीं समझते। इस मानसिकता के पीछे एक और बड़ा कारण पुलिस उत्पीड़न का डर है।

अमूमन हादसे के दर्शक के रूप में मौजूद व्यक्ति के मन में सवाल कौंधता है कि पीडि़त की मदद करके मैं किसी मुसीबत में तो नहीं पड़ जाऊंगा? हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद केन्द्र ने ऐसे मामलो में अच्छे लोगों को परेशान होने से बचाने के लिए नियम बनाए हैं। लेकिन ज्यादातर को उसका पता नहीं है और यदि है भी तो वो किसी भी पचड़े में फंसने से बचना चाहते हैं, जबकि पीडि़त की मदद करना मानव और राष्ट्र सेवा दोनो है। लेकिन इस सकारात्मक सोच का हमारे यहां अभाव और अज्ञान दोनो है।

लेखक मप्र के वरिष्ठ पत्रकार हें

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