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साहित्य उत्सवों और पुस्तक मेलों के बहाने -राजेश बादल

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इन दिनों देश के अनेक राज्यों से पढ़ने लिखने वालों के लिए अच्छी ख़बरें मिल रही हैं । कहीं साहित्य उत्सव हो रहे हैं तो कहीं पुस्तक मेले चल रहे हैं ।जयपुर का साहित्य उत्सव,भोपाल का साहित्य उत्सव, कोकराझार साहित्य उत्सव,असम पुस्तक मेला और गोरखपुर पुस्तक मेले तो एकदम हाल के ही हैं । दक्षिण भारत के राज्यों में भी ऐसे ही अनेक आयोजन हो रहे हैं । समाज से विलुप्त हो रही पुस्तक संस्कृति पर हम लोग कई बरस से माथापच्ची करते रहे हैं ।लेकिन जब बौद्धिक आयोजनों के समाचार मिलते हैं तो दिल के किसी कौने में ठंडक सीहोती है।


इन पुस्तक मेलों या अदबी जलसों का आयोजन आसान नहीं होता।कोविड काल के बाद तो और भी मुश्किल है।आर्थिक दबावों ने आम जनता और संस्थाओं की कमर तोड़ दी है । अपने दम पर लाखों रुपए खर्च करना नामुमकिन सा हो गया है । बिना प्रायोजकों की मदद के कोई जलसा नहीं हो पाता । जिसको जितने अधिक प्रायोजक मिलेंगे,वह साहित्य उत्सव उतना ही कामयाब होगा । बीते दिनों आजतक या कहूं कि इंडिया टुडे समूह का सालाना साहित्य उत्सव बहुत चर्चा में रहा । ख़ासकर इस बात पर कि इसके प्रायोजकों में एक गुटके वाला भी था । लेखकों और पत्रकारों का एक धड़ा खफ़ा था कि गुटके वाले को किताब पढ़ने का संदेश क्यों देना चाहिए । उसे क्या अधिकार है ? उसका पुस्तक या साहित्य समागम से क्या वास्ता है ?
मुझे भी इस उत्सव में आमंत्रित किया गया था । जाने माने ग़ज़ल उस्ताद जगजीत सिंह के ज़िंदगीनामे पर मेरी किताब कहां तुम चले गए पर चर्चा होनी थी । आप कह सकते हैं कि चूंकि मेरी किताब पर चर्चा होनी थी,मुझे पांच सितारा होटल में आयोजकों ने ठहराया ,वायुयान का टिकट दिया और एक स्थानीय वाहन दिया इसलिए मैं इसकी आलोचना क्यों करूंगा । बात सही है । लेखकों पर कभी इतना खर्च होते और इतनी खातिर तो मैने पिछले पैंतालीस बरस में कभी नहीं देखी । यह शब्द की ताक़त ही तो है । दिल्ली के उस साहित्य उत्सव में भारत के सभी नामी गिरामी प्रकाशकों ने अपनी स्टॉल लगाई थी ।उनमें बड़ी भीड़ रही और किताबें भी खूब बिकीं। अलबत्ता गुटका बिकते मैने कहीं नहीं देखा न ही मुझे किसी ने गुटका खरीदने के लिए बाध्य किया ।हां गुटके के प्रचार पोस्टर अवश्य देखे । उत्सव में लेखक थे ,कलाकार थे,पत्रकार थे,समीक्षक थे और कुछ स्वयंभु सितारा एंकर थे । उनके पीछे पगलाई भीड़ थी,जो उनके भीतर से पत्रकारिता के सरोकारों को गुम होने दे रही थी और उनमें एक नक़ली सितारा बोध पैदा कर रही थी।
मेरा सवाल यह भी है कि जब कोई विधा या पाठक संस्कृति की सांसें उखड़ रही हों तो इसकी पुनर्स्थापना के पुण्य कार्य में सहयोग देने वालों को क्यों कोसा जाना चाहिए ? वैसे तो अख़बार के पन्नों पर भी गुटकों , शराब, सिगरेट , तंत्र मंत्र, धार्मिक पाखंडों के विज्ञापन प्रकाशित होते हैं । मैने अमेरिका में देखा कि अखबारों में सेक्स क्लब के विज्ञापन भी होते हैं । किसी ने आज तक एतराज़ नहीं किया कि प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में स्वस्थ्य सूचनाएं देने वाले समाचारपत्रों को ये विज्ञापन क्यों प्रकाशित करना चाहिए ।


इतना ही नहीं,टीवी के परदे पर हम क्रिकेट से लेकर तमाम खेलों की स्पर्धाएं देखते हैं । खेल कूद के लिए शरीर मज़बूत होना ज़रूरी है,पर परदे के किसी भी कोने में या स्टेडियम में दूध, दही, व्यायाम के उपकरणों, सूखे मेवे,फल और व्यायाम शालाओं के विज्ञापन नही दिखाई देते । न ही इनकी कंपनियां खेल प्रतियोगिताओं को प्रायोजित करती दिखाई देती हैं ।वहां तो इनके आयोजक सोडे के बहाने शराब कंपनियां होती हैं ,वहां भी यही गुटके वाले होते हैं ।उन्हें देखते हुए तो आजतक किसी ने आपत्ति नहीं उठाई कि खेल कूद स्पर्धाओं के प्रायोजक शराब या सोडे की कंपनियां क्यों होती हैं । हम मन लगाकर भारतीय टीम या विदेशी टीमों को चुपचाप खेलते देखते रहते हैं । कोई महिला अभिनेत्री पुरुष जांघिया या बनियान का विज्ञापन क्यों करती है ,कोई मॉडल पुरुष इत्र को सेक्सी क्यों बताती है या कोई गंजा अभिनेता विग लगाकर बालों को काला और मजबूत बनाने वाले विज्ञापन क्यों करता है ? तब समाज के किसी तबके से विरोध नहीं होता ।


साहित्य समाज का दर्पण है ,यह कहावत बचपन से सुनते आए हैं । जब समाज अपने इस दर्पण की चमक बनाए रखने के लिए कोशिश करता है तो हम गुटका प्रायोजक का विरोध करते हैं ।जीवन में यह दोहरे पैमाने क्यों हैं भाई ? मेरा निवेदन है कि साहित्य और किताबों को हमारी धड़कनों में शामिल होने दीजिए । बड़ी मेहरबानी होगी ।
चित्र आजतक के 2022 वाले साहित्य उत्सव के हैं ।

लेखक-देश के ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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