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सियासी दिशा तय करेगा कांग्रेस का बूस्टर और भाजपा का चिंतन -अरुण पटेल

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मध्यप्रदेश में हुए त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं और नगरीय निकाय के चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को महानगरों में बूस्टर डोज दे दिया है क्योंकि 16 में से भाजपा अब केवल 9 नगर निगमों में ही अपने महापौर जिता पाई है जबकि कांग्रेस को 5 नगर निगमों में सफलता मिली है, आम आदमी पार्टी और निर्दलीय के खाते में भी एक-एक महापौर का पद गया है। अर्ध-शहरी, शहरी और महानगरों की शक्ल लेते बड़े शहरों में भाजपा का जीत का परचम लहराया है तो वहीं कांग्रेस को पिछले चुनाव की तुलना में धीरे से जोर का झटका लगा है। केवल चुनाव परिणामों में ही कांग्रेस को झटका नहीं लगा बल्कि राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा ने उसे बड़ा झटका दे दिया है, क्योंकि 17 कांग्रेस विधायकों ने क्रास वोटिंग करते हुए द्रोपदी मुर्मू को अपना समर्थन दिया। कांग्रेस अब इन विधायकों की तलाश कर उन पर कार्रवाई करने का मन बना रही है लेकिन असली सवाल यही है कि क्या विधायकों से नेतृत्व की संवादहीनता की स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि उन्हें भनक तक नहीं लगी और इतनी बड़ी संख्या में क्रास वोटिंग हो गई। नगर निगमों के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस को झटके ही झटके लगे हैं। जहां तक पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों का सवाल है वे दलीय आधार पर नहीं हुए इसलिए कांग्रेस यहां बहुमत का दावा कर रही है तो वहीं भाजपा 90 फीसद स्थानों पर अपनी सफलता का दावा ठोंक रही है। अब दोनों ही पार्टियों का जोर जनपद और जिला परिषद पदाधिकारियों और नगर पालिकाओं आदि के अध्यक्ष पद के होने वाले चुनावों पर केंद्रित हो गया है। भाजपा को आत्मचिंतन की दरकार इसलिए है क्योंकि ग्वालियर, मुरैना, जबलपुर और रीवा जैसे शहरी केंद्रों में कांग्रेस की नगर सरकार बन गयी और यहां से इन अंचलों की राजनीति प्रभावित होती है। इस प्रकार 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव की सियासी दिशा तय करेगा कांग्रेस का बूस्टर और भाजपा का चिंतन ।
मध्यप्रदेश में 16 नगर निगम हैं और अभी तक सभी पर भाजपा का कब्जा था जबकि अब उसे केवल 9 नगर निगमों में ही महापौर पद पर विजय प्राप्त हुई है। पांच नगर निगमों में कांग्रेस जीती जबकि कटनी नगर निगम में भाजपा की विद्रोही उम्मीदवार ने चुनाव जीता तो सिंगरौली नगर निगम में आम आदमी पार्टी का महापौर जीता। उज्जैन भाजपा का गढ़ है लेकिन यहां उसका महापौर प्रत्याशी एक हजार से कम मतों से जीता और इस निर्वाचन को कांग्रेस अदालत में चुनौती भी देने जा रही है, क्योंकि उसका आरोप है कि मतगणना में गड़बड़ी हुई। बुरहानपुर में कांग्रेस की उम्मीदवार असदुद्दीन ओवेसी की पार्टी एआईएमआईएम के उम्मीदवार के कारण महापौर पद कम मतों के अन्तर से हार गयी। इस प्रकार भाजपा को भी आत्ममंथन की जरुरत है क्योंकि इन दोनों नगर निगमों पर भले ही उसने जीत दर्ज कर ली हो लेकिन यहां हार के बावजूद कांग्रेस के हौसले बुलन्द हैं। नगर निगमों में कांग्रेस को अपेक्षित सफलता मिल गयी है और भाजपा उन क्षेत्रों में हार गयी जहां उसके पास नेताओं की लम्बी कतार थी। मुरैना और ग्वालियर में भाजपा में बड़े नेताओं की भरमार है स्वयं प्रदेश अध्यक्ष सांसद विष्णुदत्त शर्मा इसी इलाके के रहने वाले हैं तो वहीं केंद्रीय मंत्री द्वय ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेंद्र सिंह तोमर के साथ ही गृहमंत्री डाॅ. नरोत्तम मिश्रा सहित कई मंत्री इस इलाके से हैं। ग्वालियर में माधवराव सिंधिया और वर्तमान में ज्योतिरादित्य सिंधिया जब तक कांग्रेस में रहे कांग्रेस अपना महापौर नहीं चुनवा पाई लगभग पांच दशक बाद कांग्रेस का महापौर इस बार ग्वालियर में होगा जबकि सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आ चुके हैं और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री हैं। भाजपा को इस बात का भी चिंतन करना चाहिए कि आखिर उसके गढ़ में कांग्रेस ने सेंध कैसे लगा दी। यह बात अलग है कि वह यह मान कर संतोष कर सकती है कि कांग्रेस महापौर शोभा सिकरवार भाजपा की पार्षद रही हैं और उनके पति सतीश सिकरवार पूर्व में भाजपा नेता रहे हैं लेकिन ज्योतिरादित्य के भाजपा में आने के बाद पहले सिकरवार कांग्रेस में गये और उपचुनाव में उन्होंने सिंधिया के खासमखास मुन्नालाल गोयल को पराजित किया और अब उनकी पत्नी ने महापौर का चुनाव जीत लिया। सिकरवार का जाना शायद भाजपा को इतना भारी पड़ा कि ग्वालियर शहर का सबसे मजबूत गढ़ ही उसके हाथ से निकल गया।
जहां तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का सवाल है उनकी अपनी लोकप्रियता में इन नतीजों से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि वे आज भी प्रदेश में सबसे लोकप्रिय राजनेता हैं और जहां-जहां बड़े नेताओं ने जिद कर टिकट बंटवाये वहां-वहां भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। कार्यकर्ता जिन्हें भाजपा देवतुल्य समझती थी उनकी अनदेखी शायद उसे भारी पड़ी और नेताओं की जिद के कारण उसे खामियाजा भुगतना पड़ा। विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम के स्वयं के बेटे पंचायत चुनाव में पराजित हो गये जबकि उनके लिए उनके पिता ने प्रचार भी किया था। कई विधायकों और कुछ मंत्रियों के नाते- रिस्तेदार भी चुनाव में पराजित हुए जिनमें दोनों ही पार्टियों के नेता शामिल हैं। यदि पार्षदों की संख्या देखी जाए तो यह कहा जा सकता है कि निकाय चुनाव में मतदाता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के आभामंडल से प्रभावित हैं , लेकिन भाजपा के कार्यकर्ताओं की नाराजगी ने कांग्रेस को अपनी पीठ थपथपाने का अवसर दे दिया और वह पांच नगर निगमों में जीत के बाद गदगदायमान है तो वहीं बुरहानपुर और उज्जैन ने उसके कार्यकर्ताओं में जोश भर दिया है क्योंकि यहां उसके महापौर उम्मीदवार कम मतों के अंतर से हारे। जिन पांच महापौरों ने कांग्रेस प्रत्याशियों के रुप में जीत दर्ज की है उसमें से केवल छिंदवाड़ा और मुरैना में ही परिषद में उसका बहुमत है बाकी शेष में भाजपा पार्षदों के बहुमत के कारण अध्यक्ष भाजपा का ही बनेगा इसमें संदेह नहीं है। महाकौशल की राजनीति का सबसे बड़ा केन्द्र जबलपुर है और वहां से किसी भी राजनीतिक दल के पक्ष में माहौल बनता है। जबलपुर में कांग्रेस का महापौर जीता है। उल्लेखनीय है कि जबलपुर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा और राष्ट्रीय अध्यक्ष जय प्रकाश नड्डा की ससुराल है। इसी प्रकार विंध्य क्षेत्र की राजनीति रीवा से प्रभावित होती है और वहां भी कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। छिंदवाड़ा व मुरैना को छोड़कर अन्य तीन महापौरों को अपने वायदे पूरे करने के लिए काफी मशक्कत करना होगी क्योंकि पग-पग पर उन्हें भाजपा के विरोध का सामना भी करना पड़ेगा। निकाय चुनावों में भाजपा को विंध्य इलाके में धीरे से जोर का झटका लगा है क्योंकि 2018 के विधानसभा चुनाव में उसे यहां अच्छी-खासी सफलता मिली थी। इस इलाके में तीन नगर निगम हैं जिनमें से रीवा में कांग्रेस और सिंगरौली में आम आदमी पार्टी का महापौर बन गया है वहीं सतना में ही भाजपा प्रत्याशी जीत पाया। रैगांव विधानसभा के उपचुनाव में भी भाजपा के परंपरागत गढ़ में कांग्रेस ने सेंध लगाते हुए जीत दर्ज की थी। सतना नगर निगम में कांग्रेसियों की नाराजी ने भाजपा को जीतने का मौका दे दिया क्योंकि सतना में कांग्रेस का एक बागी बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतर गया और इसका फायदा भाजपा को मिला।
और यह भी
पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और उनके सांसद बेटे नकुलनाथ के संसदीय क्षेत्र छिंदवाड़ा नगर निगम में कांग्रेस को बहुमत मिला और महापौर भी उसका ही जीता। बकौल महापौर विक्रम अहाके छिंदवाड़ा जिले के एक छोटे से आम नागरिक हैं और उन्होंने जिन्दगी भर संघर्ष किया है। अहाके का कहना है कि उन्होंने लकड़ी ढोने का काम किया है, केटरिंग का काम किया, दोने-पत्तल बनाने और यहां तक कि उन्होंने प्लेट उठाने तक का काम किया है। कांग्रेस ने अहाके को उम्मीदवार बनाकर कमलनाथ के इस नजरिये को भी पूरी तरह रेखांकित कर दिया कि आम आदमी और गरीब से गरीब निष्ठावान कार्यकर्ता को नवाजने में वह कोताही नहीं करते हैं। खासकर उस दौर में जबकि नेताओं की गणेश परिक्रमा करने वाले आर्थिक रुप से धनाढ्य नेताओं और कार्यकर्ताओं को ही मौका मिला करता है।


लेखक सुबह सवेरे के प्रबंध संपादक है
-सम्पर्क:9425019804, 7999673990

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