Let’s travel together.
nagar parisad bareli

बिहार: गलती किसी की हो, अपराधी पुल ही होगा…! अजय बोकिल

0 234

आलेख
अजय बोकिल

बने अथवा निर्माणाधीन पुल क्यों गिर गए, इसकी जांच-वांच चलती रहेगी। मजबूर बिहारवासी फिर नावों के सहारे या तैर कर नदियां पार कर रहे हैं और अपनी किस्मत को कोस रहे हैं। दूसरी तरफ गैर बिहारवासियों के मन में खौफ समा गया है बिहार से गुजरना खतरे से खाली नहीं है।

पता नहीं बिहार के ही एक जाने माने कवि आलोक रंजन को अपने गृह राज्य में पुलों के धड़ाधड़ गिरने का पूर्वाभास था या नहीं, परंतु टूटे हुए पुल नामक उनकी कविता की ये कुछ पंक्तियां बहुत मौजूं हो उठी हैं-

स्थानीय लोग टूटे हुए
पुल को भी घेर कर खड़े थे
जैसे पुल एक चोटिल अपराधी हो
और दर्द निजाते ही भाग जाएगा…
न पुल टूटने का कोई प्रभाव है या रहेगा
न ही सूरज के डूबने का…
पुल पुराना था
अपनी इस गत का इंतिज़ार करता
उस के ऊपर ही वह पुल था
जिसने बहुत पहले ही एहसास दिला दिया था कि
मियाँ दिन पूरे हुए…

 

वैसे तो इन दिनो देश में घटिया और जल्दबाजी में किए गए निर्माणों तथा उनके उद्घाटनों की राजनीतिक जल्दबाजी के चलते पुलों, इमारतों, छज्जों के गिरने, ध्वस्त होने और ऐसे अप्रत्याशित हादसों में जान गंवाने की घटनाएं अचानक से बढ़ गई हैं, लेकिन बिहार में जिस तरह एक माह से भी कम समय में विभिन्न नदी-नालों पर बने 13 पुल पुलिया गिरी हैं या गिर रही है, वह यही साबित करता है कि राज्य भ्रष्टाचार के पुल असली पुलों के मुकाबिल बहुत ज्यादा मजबूत हैं। ऐसे पुल, जिनके ध्वस्त होते जाने को लेकर किसी के माथे पर खास शिकन नहीं है। यानी पुल ही तो था, जो गिर गया। अब क्या करें का भाव।

इसको लेकर मीडिया में बहुत हल्ला हुआ तो राज्य की नीतीश सरकार ने 15 इंजीनियरों को सस्पेंड कर दिया। ठेकेदारों पर कार्रवाई की बात भी कही जा रही है। चूंकि बिहार में नीतीश सरकार कपड़ों की मानिंद अपना आवरण बदलती है, इसलिए सभी पार्टियां घटिया पुल निर्माण के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार बता रही हैं। इसमें भी यह सावधानी बरती जा रही है कि उसी पुल के बारे में सरकार को कटघरे में खड़ा किया जाए, जिस वक्त आरोपी पार्टी सत्ता में रही हो।

इस बीच राज्य सरकार ने गिरे हुए पुलों को फिर से बनाने का आदेश दे दिया है। बने अथवा निर्माणाधीन पुल क्यों गिर गए, इसकी जांच-वांच चलती रहेगी। मजबूर बिहारवासी फिर नावों के सहारे या तैर कर नदियां पार कर रहे हैं और अपनी किस्मत को कोस रहे हैं। दूसरी तरफ गैर बिहारवासियों के मन में खौफ समा गया है बिहार से गुजरता खतरे से खाली नहीं है। न जाने कौन सा पुल कब धंस जाए और कोई यात्रा अंतिम यात्रा में बदल जाए।

इस देश में प्राकृतिक आपदा, घटिया निर्माण, गलत डिजाइन आदि के चलते पुलों, भवनों का गिरना कोई नई बात नहीं है। दूसरे राज्यों में भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। क्योंकि निर्माण के हर टेंडर में भ्रष्टाचार एक अलिखित लेकिन अनिवार्य शर्त होती है, जो सार्वजनीन है। फर्क सिर्फ इतना होता है कई जगह भ्रष्टाचार और कमीशनबाजी की लक्ष्मण रेखा के परे एक लोकलाज की अदृश्य रेखा भी होती है, जिसे ध्यान में रखकर इतनी सावधानी बरतने की कोशिश होती है कि सिर मुंडाते ही ओले न पड़ जाएं। ऐसे में बहुत सी इमारते और पुल निर्माण के कुछ बरस बाद टूटकर व्यवस्था पर भरोसा कायम रखते हैं।

टूटने या गिरने की स्थिति में उनके उम्रदराज होने का वाजिब कारण बताया जा सकता है। अलबत्ता बिहार में जो पुल गिरे हैं, वो तो बाल्यावस्था से लेकर जवानी में ही दम तोड़ रहे हैं। ऐसी इक्का-दुक्का घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन पुल ध्वस्तीकरण का यह अटूट सिलसिला राज्य में पिछले माह 18 जून से शुरू हुआ, जहां 7 जुलाई तक 13 पुल दम तोड़ चुके थे। टूटने वाली तेरहवीं एक पुलिया है। इस क्रम में गिरने वाला पहला पुल राज्य के अररिया जिले के सिकटी प्रखंड में था। इसके भी पहले इसी साल मार्च के महीने में सुपौल ज़िले में कोसी नदी पर बन रहे पुल का एक हिस्सा गिरा था। इस हादसे में एक मज़दूर की मौत हो गई थी, जबकि 10 अन्य घायल हुए थे। इसी तरह बिहार में पिछले साल गंगा नदी पर बन रहे पुल का एक हिस्सा गिर गया था। यह पुल क़रीब 1 हजार 717 करोड़ की लागत से भागलपुर ज़िले के सुल्तानगंज और खगड़िया ज़िले के अगुवानी नाम की जगह के बीच बन रहा था। पुल गिरने की इस तस्वीर को बड़ी संख्या में लोगों ने सोशल मीडिया पर साझा किया था और सरकार ने जांच के आदेश भी दिए थे। आगे क्या हुआ किसी को नहीं पता।

यूं भारत में पुलों के बनने और उनके गिरते जाने का अपना इतिहास है, जो देश के सामाजिक और राजनीतिक ताने- बाने के बनने और बिगड़ने के समांतर निर्विकार भाव से चलता रहता है। यह भी हकीकत है कि आज देश में कई पुल ऐसे भी हैं, जो अंगरेजों के जमाने के हैं, लेकिन उम्र ढलने के बाद भी यातायात का बोझा ढो रहे हैं। पुल ध्वस्तीकरण की बात करें तो आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक भारत में 2012 से 2022 के बीच 285 पुल ध्वस्त हुए, जिसमें 2022 गुजरात के मोरबी में मच्छु नदी पर बना पुल टूटने से 141 लोगों की मौत का भीषण हादसा भी शामिल है।

यूं पुल निर्माण में जोड़ने का भाव निहित है। दूरियां कम करके यातायात और सामाजिक आर्थिक संपर्कों को सुगम बनाने का उपक्रम है। पुल अपने आप में रचनात्मकता और सौहार्द का प्रतीक हैं। नार्वे के नोबेल विजेता वैज्ञानिक और मानवतावादी फ्रिजॉफ नानसेन ने कहा था कि मैं अपने पीछे उस पुल को ढहा दूंगा ताकि आगे बढ़ने के अलावा कोई रास्ता न बचे। यानी पुल पीछे लौटने का नहीं, आगे बढ़ने का रास्ता है। लेकिन भारत में पुल देश को पीछे भी ले जाते हैं। हमारे यहां मानो पुल की परिभाषा केवल रेत सीमेंट की ऐसी संरचनाअोंसे है, जिसकी आत्मा को करप्शन ने पहले ही लील लिया होता है।

पुल आखिर गिर क्यों जाते हैं? विशेषज्ञ इसका पहला कारण तो प्राकृतिक आपदा को मानते हैं, जिसके आगे इंसान का कोई बस नहीं। इसे अलग रखें तो गलत डिजाइन, लापरवाही, उम्र से ज्यादा समय तक इस्तेमाल, प्राकृतिक आपदा, घटिया सामग्री का इस्तेमाल, ओवर लोडिंग या फिर मानव निर्मित आपदाएं जैसे कि बेजा रेत खनन या लापरवाही से किया गया नदी का गहरीकरण, नदी की प्रकृति की अनदेखी आदि। वैसे भारत में एक पुल की औसत आयु 34.5 साल मानी गई है। लेकिन हमारे यहां पुलों की शिशु मृत्यु दर भी कम नहीं है।

यहां तर्क दिया जा सकता है कि भारत में िजतनी बड़ी तादाद में पुल-पुलिया बने हैं, उनके अनुपात में गिरने वाले पुल- पुलियाओं की संख्या बहुत कम है। अगर भारतीय पुल प्रबंध प्रणाली (आईबीएमएस) के आंकड़ों को देखें तो भारत में नेशनल हाइवे पर कुल 1 लाख 17 हजार 517 पुल- पुलिया हैं। इनमे 30 फीसदी पुलिया, 15 फीसदी छोटे पुल 8.1 प्रतिशत बड़़े पुल तथा 5 फीसदी ज्यादा लंबे पुल खराब हालत में हैं। जबकि इनमें से असमय गिरने वाले पुलों की संख्या बहुत कम है।

लिहाजा भारत को ‘गिरते पुलों का देश’ कहना ठीक नहीं है। पर इसी के साथ यह सवाल भी नत्थी है कि पुलो के गिरने में बिहार ही ‘देश की राजधानी’ क्यों बना हुआ है? इसके निश्चित कारण शायद किसी जांच रिपोर्ट में सामने आएं, लेकिन एक बात मोटे तौर पर साफ है, वह है राज्य में गुणवत्ता की जगह कम लागत पर जोर। कम लागत में से भी जरूरी कमीशन को और कम कर दें तो निर्माण पर होने वाला वास्तविक खर्च खुद ब खुद समझ में आ जाएगा। स्वयं को गरीब और पिछड़ा राज्य कहलाने और उसी खुमारी में जीते रहने का यह आत्मसंतोषी बहाना है। यानी लोगों की जान और टिकाऊपन से ज्यादा अहम है सस्ता होना।

अगर यही फार्मूला हकीकत है तो ‘सस्ता रोए बार बार’ वाली कहावत यूं ही नहीं बनी है। बिहार में इतने पुलों के गिरने के बाद भी वहां यह कोई बड़ा राजनीतिक- सामाजिक मुद्दा बनेगा, इसकी कोई संभावना नहीं है। क्योंकि जातिवाद और आरक्षण के आगे वहां सब कुछ गौण है। नीतीश कुमार और उनकी पार्टी चूंकि अब फिर भाजपा के साथ है, इसलिए गिरे पुलों के पुननिर्माण के लिए उन्हें केन्द्र से पैसा भी आसानी से मिल जाएगा। उनमें से कुछ पुल फिर गिरेंगे और फिर बनेंगे। यह क्रम चलता रहेगा।

कुल मिलाकर बिहार पुल की स्थापित परिभाषा को अपने हिसाब से बदलता रहेगा। दूसरी तरफ बिहार की जनता टूटते पुलों के बीच अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष करती रहेगी। गलती किसी की भी हो, अपराधी पुल ही होगा। किसी शायर ने ठीक ही कहा है- ‘सुना है तारीफों के पुल के नीचे, मतलब की नदी बहती है।’

लेखक ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हें।

Leave A Reply

Your email address will not be published.

तलवार सहित माइकल मसीह नामक आरोपी गिरफ्तार     |     किराना दुकान की दीवार तोड़कर ढाई लाख का सामान ले उड़े चोर     |     गला रेतकर युवक की हत्या, ग़ैरतगंज सिलवानी मार्ग पर भंवरगढ़ तिराहे की घटना     |     गणपति बप्पा मोरिया के जयकारों से गूंज उठा नगर     |     नूरगंज पुलिस की बड़ी करवाई,10 मोटरसाइकिल सहित 13 जुआरियों को किया गिरफ्तार     |     सुरक्षा और ट्रैफिक व्यवस्था को लेकर एसडीओपी शीला सुराणा ने संभाला मोर्चा     |     सरसी आइलैंड रिजॉर्ट (ब्यौहारी) में सुविधाओं को विस्तारित किया जाए- उप मुख्यमंत्री श्री शुक्ल     |     8 सितम्बर को ‘‘ब्रह्मरत्न’’ सम्मान पर विशेष राजेन्द्र शुक्ल: विंध्य के कायांतरण के पटकथाकार-डॉ. चन्द्रिका प्रसाद चंन्द्र     |     कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर के छात्र कृषि विज्ञान केंद्र पर रहकर सीखेंगे खेती किसानी के गुण     |     अवैध रूप से शराब बिक्री करने वाला आरोपी कुणाल गिरफ्तार     |    

Don`t copy text!
पत्रकार बंधु भारत के किसी भी क्षेत्र से जुड़ने के लिए इस नम्बर पर सम्पर्क करें- 9425036811