आलेख
अजय बोकिल
इस लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा आश्चर्य और क्षोभ उस फैजाबाद लोकसभा सीट के नतीजों को लेकर जताया जा रहा है, जिसके अंतर्गत अयोध्या का राम मंदिर पड़ता है। जहां इसी साल भव्य राम मंदिर में रामलला की प्रतिष्ठापना हुई थी। इस सीट पर पूरी दुनिया की नजरें थीं। माना जा रहा था कि भाजपा राम मंदिर निर्माण के चलते लगातार तीसरी बार यह सीट शानदार तरीके से जीत लेगी। क्योंकि इसके जरिए परोक्ष रूप से हिंदू आस्था की अग्नि परीक्षा भी होनी है। लेकिन नतीजा उलटा ही आया। भाजपा के लल्लू सिंह इस बार 55 हजार से अधिक वोटों से हार गए। यानी राम मंदिर को लेकर देश के मन में जो कुछ था, वह अयोध्यावासियों के मन में नहीं था। इसके लिए रामभक्त सोशल मीडिया पर अयोध्यावासियों को खूब ट्रोल भी कर रहे हैं। हालांकि अयोध्या में भाजपा कोई पहली बार नहीं हारी है। लेकिन मंदिर बनने के बाद जरूर हारी है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या मंदिर बनने के बाद रामजी की कृपा भी भाजपा से दूर हो गई है?
अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और राम लला की प्रतिष्ठापना भाजपा और आरएसएस का कोर मुद्दा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस जटिल और हिंदुत्व से जुड़े मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से फैसला करवाकर मंदिर निर्माण का रास्ता साफ किया। इसी मंदिर में इस साल 22 जनवरी को मोदीजी ने भगवान की प्राण प्रतिष्ठा की। तब माना गया था कि रामलला की प्रतिष्ठापना का भाजपा को पूरे देश में भरपूर राजनीतिक लाभ मिलेगा। यूं मंदिर निर्माण का काम अभी भी जारी है, लेकिन प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम की रचना इस तरह से की गई थी कि आस्था के इस सैलाब में राजनीति का रंग भी पूरी तरह घुला दिखे। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल न होने को लेकर भाजपा ने विपक्षी दलों को राम विरोधी भी बताया। लेकिन इसी अत्यंत महत्वपूर्ण और हिंदू आस्था के केन्द्र अयोध्या (फैजाबाद सीट) से भाजपा के प्रत्याशी लल्लूसिंह चुनाव हार गए। उन्हें समाजवादी पार्टी ( जिसे भाजपा राम विरोधी कहती आई है) के अवधेश प्रसाद ने 55 हजार वोटों से हरा दिया। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जब से राम जन्म भूमि के ताले खुले, राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ और भाजपा संघ ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया, तब से अब तक हुए कुल 11 लोकसभा चुनावों में भाजपा केवल 6 बार जीती है। बाकी 5 लोकसभा चुनावों में गैर भाजपा प्रत्याशी ही जीते हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि अयोध्या को लेकर बाहरी लोग भले कितने ही भावुक हों, लेकिन स्वयं अयोध्यावासी लोकसभा चुनावों को बहुत ज्यादा हिंदू भावनाअों से जोड़कर नहीं देखते। उनके लिए हर लोकसभा चुनाव एक सामान्य चुनाव की तरह होता है। राम को लेकर उनकी भी गहरी आस्था है, लेकिन वो वोटों में हमेशा तब्दील हो, यह कतई जरूरी नहीं है। पांच सौ साल बाद भगवान राम की उनके घर में वापसी का अयोध्यावासियों के लिए इतना ही अर्थ है कि भगवान पहले टेंट में थे, अब मंदिर में िवराजमान हो गए हैं। अयोध्या ही क्यों, काशी के कायाकल्पकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इस बार हिंदू आस्था के सबसे बड़े केन्द्र वाराणसी सीट से केवल डेढ़ लाख वोटों से ही जीत पाए हैं। यह उनके लिए खतरे की घंटी है।
गौरतलब है कि अयोध्या में राम मंदिर के ताले 1 फरवरी 1986 को स्थानीय अदालत के आदेश पर खुले। कहा जाता है कि शाह बानो गुजारा भत्ता मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के उलटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा कराए गए संविधान संशोधन के संभावित राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए ये ताले खुलवाए गए। तब समूचे देश को पता चला कि भगवान रामलला सदियों से ताले में बंद हैं। जहां कभी राम मंदिर था, वहां बाबरी मस्जिद का ढांचा खड़ा है। भाजपा और संघ ने इस मुद्दे की भावनात्मक और राजनीतिक गहराई को बूझा और बाबरी मस्जिद की जगह रामलला के मंदिर निर्माण को लेकर व्यापक हिंदू जागरण शुरू किया। लालकृष्ण आडवाणी ने इसे लेकर राम रथ यात्रा निकाली। इसके बाद 1989 में लोकसभा चुनाव हुए। तब तक अयोध्या मुद्दा देश के अहम मुद्दों में आ गया था। उस चुनाव में भाजपा के बजाए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मित्रसेन यादव ने फैजाबाद से जीत दर्ज की। उधर अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण को लेकर जारी देशव्यापी आंदोलन का असर अयोध्या में दिखा और 1991 तथा 1996 में भाजपा के विनय कटियार लगातार दो बार अयोध्या से चुनाव जीते। विनय कटियार राम मंदिर आंदोलन के अग्रणी लोगों में थे। लेकिन मंदिर आंदोलन के चलते 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में वो अयोध्या से हार गए। उन्हें मित्रसेन यादव ने, जो तब भाकपा छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो चुके थे, ने हराया। उधर अटल सरकार ने बहुमत खोने के बाद फिर लोकसभा चुनाव कराए
। 1999 के लोकसभा चुनाव में विनय कटियार फिर जीते। इस बीच दलबदलू मित्रसेन यादव ने बसपा ज्वाइन कर ली और 2004 के लोकसभा चुनाव में वो बसपा के टिकट पर अयोध्या से चुनाव जीत गए। अटल सरकार के जमाने में राम मंदिर आंदोलन सुस्त पड़ गया था। 2009 के लोकसभा चुनाव में यह सीट बसपा से कांग्रेस के पास चली गई। यहां से कांग्रेस के निर्मल खत्री चुनाव जीते। 2014 केन्द्र में मोदी सरकार द्वारा पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की गतिविधियों ने कुछ जोर पकड़ा। तय हुआ कि इस मामले में अदालत के फैसले को अंतिम माना जाए। 2014 लोकसभा चुनाव में अयोध्यावासियो ने भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह को भारी समर्थन दिया और वो 2 लाख से ज्यादा वोटों से जीते। 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पूरे देश में अपने दम पर 303 सीटें जीतने का रिकाॅर्ड बनाया। लेकिन इसके विपरीत अयोध्या में भाजपा प्रत्याशी लल्लूसिंह की जीत का अंतर घटकर 65 हजार ही रह गया। तब लल्लूसिंह ने समाजवादी पार्टी के आनंद सेन यादव को हराया था। उधर मोदी 2.0 सरकार ने राम मंदिर मसले को प्राथमिकता के साथ अंजाम तक पहुंचाने का संकल्प लिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी लगातार सुनवाई कर इस जटिल मसले पर अपना ऐतिहासिक फैसला दिया। उधर अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण की जंगी तैयारियां शुरू हो गईं। दुनिया भर के करोड़ों हिंदुअों की नजरें अयोध्या पर लगी थीं। लेकिन राम की नगरी अयोध्या के वासी शायद कुछ और ही सोच रहे थे। राम मंदिर का निर्माण उनके लिए महत्वपूर्ण तो था, लेकिन दैनिक जीवन का संघर्ष और स्थानीय समीकरण और तनाव शायद उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण थे। अयोध्या में रामलला का मंदिर बनने से अयोध्या का विकास तो हुआ, वह पर्यटन का वैश्विक केन्द्र भी बना, लेकिन लगता है कि स्थानीय लोगों के कष्टों में कोई कमी नहीं आई। जो लोग विकास कार्यों से प्रभावित हुए, उनकी समस्याअोंपर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया। भाजपा को उम्मीद थी कि अयोध्या को चमन बनाने का असर लोकसभा चुनाव में दिखेगा। लेकिन वैसा नहीं हुआ।
उधर अखिलेश यादव ने बड़ी होशियारी से इस सीट से किसी यादव को टिकट न देकर इस बार पासी जाति के अवधेश प्रसाद को प्रत्याशी बनाया। पासी यूपी में अोबीसी में आते हैं। किसी यादव को टिकट न देने का फायदा ये हुआ कि गैर यादव अोबीसी, दलित और मुस्लिम वोटों ने अवधेश प्रसाद यादव को जिता दिया। कुल मिलाकर धार्मिक पर्यटन की आर्थिकी और आस्था के सैलाब पर जातिवादी ध्रुवीकरण भारी पड़ा। भाजपा के लल्लूसिंह अयोध्या से चुनाव हार गए। मीडिया कर्मियों ने जब इस हार के बारे में स्थानीय अयोध्यावासियों से बात की तो कई लोगों का जवाब था कि चुनाव नतीजों से वो भी हैरान हैं। लेकिन आस्था से मन तो भरता है, पेट नहीं।
–लेखक ‘सुबह सवेरे’ के वरिष्ठ संपादक हे।