रिपोर्ट धीरज जॉनसन, दमोह
सती कुछ पुरातन समय में प्रचलित एक ऐसी प्रथा थी, जिसमें किसी पुरुष की मृत्त्यु के बाद उसकी पत्नी उसके अंतिम संस्कार के दौरान उसकी चिता में आत्मत्याग कर लेती थी। राजाराम मोहन राय द्वारा गवर्नर लॉर्ड विलियम बेंटिक की सहायता से 1829 में अंग्रेजों द्वारा भारत में इसे गैरकानूनी घोषित किया गया। वैसे तो सती होने के इतिहास के बारे मे पूर्ण सत्यात्मक तथ्य नही मिले हैं। परंतु ऐसा भी उल्लेख है कि सती स्तंभ ऐसे स्तंभ होते है जिन पर नाम चित्र और मृत्यु तिथि लिखी होती है।
दमोह जिले में खोजने पर अब तक 17 ग्रामों में अलग अलग संख्या में करीब 40 भिन्न भिन्न विशेषताएं लिए स्तंभ देखकर प्रतीत होता है कि सती प्रथा का प्रचलन था, सती स्तंभ के ऊपरी और निचले हिस्से में अलग अलग अंकन दिखाई देते है।
इन प्रस्तर के स्तंभों को स्थानीय स्तर पर सती के चीरे, शक्ति माता, कहीं बड़ी माता,छोटी माता, कहीं खैर माता भी कहा जाता है कहीं कहीं वैवाहिक कार्यक्रमों के समय यहां विधिवत पूजा होती है अन्य धार्मिक कार्यक्रम भी संपन्न होते हैं लोग मन्नत मांगने भी आते है मेले की
शुरुआत और जल चढ़ाने पहुंचते है,इसके प्रति आस्था और श्रद्धा के साथ यहां चबूतरे भी बने हुए दिखाई देते हैं। पर कहीं तो इसे स्पर्श भी नहीं किया जाता है और आश्चर्य तो यह कि कहीं कहीं ये झाड़ियों और पत्थरों में छुपे हुए है शायद इसकी जानकारी किसी को नहीं है इसलिए लोग यहां नहीं पहुंचते है। एक खास बात यहां देखी गई कि जो चीरे बस्ती के आस पास है तो वह धार्मिक महत्व का स्थल और वहां चबूतरा भी बना दिखाई देता है अगर चीरे बाहरी हिस्से में है तो वहां लोग कम ही पहुंचते है। कहीं कहीं तो इन स्तंभों का स्थान ही परिवर्तित कर दिया गया,जिस स्थान पर वे पहले थे उन्हें वहां से हटा कर अन्यत्र कर दिया गया।
अधिकतर स्तंभ तीन से आठ फीट की लंबाई के दिखाई देते है जिनके ऊपरी भाग में सूर्य,चंद्र,तारे,दो हाथ का पंजा और दो आकृति इत्यादि दिखाई देती है कहीं कहीं तो स्तंभ के निचले भाग में कुछ लिखा हुआ भी है कुछ को तो पढ़ा जा चुका है परंतु कुछ की लिपि अस्पष्ट प्रतीत होती है। कुछ स्तंभों में अतिरिक्त चित्रांकन भी दिखाई देता है।
सन 1919 के राय बहादुर हीरा लाल द्वारा लिखित दमोह जिले के गजेटियर में भी विभिन्न स्थानों पर सती स्तंभ का जिक्र है। जिसके लेख से उस समय के शासकों का अंदाजा लगाया गया है।
(1) बढ़ैयाखेड़े के संवत 1367 के सतीलेख से अलाउद्दीन और बम्हनी के सतीलेख से स्पष्ट था कि अलाउद्दीन का आधिपत्य 1308 और 1309 के बीच में हुआ।
(2) नरसिंहगढ़ के निकट एक चीरे में लिखा था कि धनसुख की स्त्री संवत 1543 में सती हुई थी।
(3) सती का एक लेख ठर्रका में है उसमें आमणदास देव का राजस्व काल लिखा है। ऐसा कहा जाता है कि संग्रामशाह का नाम आमणदास या अमानदास था दमोह जिले में सिंगौरगढ़ के पास संग्रामपुर नाम का जो गांव बसा है वह इसी संग्राम शाह का स्मारक है।
(4) रनेह के सती के चीरे में संवत 1727 अंकित है और अन्य में संवत 1816 से लेकर 1857 लिखा है।
(5) लखरोनी के सती के चीरे वर्तमान से करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पुराने बताए गए।