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‘राइट क्लिक’-पार्टी प्रवक्ता और राजनीतिक आत्मा के प्रत्यारोपण की नई संस्कृति…अजय बोकिल

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आलेख
अजय बोकिल

इस देश में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाअों के चलते नेताअो का दल बदलना और युद्ध के दौरान ही घोड़ा बदलना कोई नई बात नहीं है, लेकिन चलते चुनाव में एक पार्टी प्रवक्ता का अचानक घोर विरोधी पार्टी का दामन थामकर उसका स्तुतिगान शुरू कर देना, जरा नया ट्रेंड है। ट्रेंड क्या बल्कि यूं कहें कि नैतिक पतन की पराकाष्ठा है। कुछ घंटों पहले तक आप जिस पार्टी को दुनिया की सबसे घटिया और अनैतिक पार्टी बताते रहे, दलबदलते ही उसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ और नीतिवान पार्टी बताने सकने के लिए जिगर के साथ साथ आत्मा को भी ट्रांसप्लांट करने की हिम्मत चाहिए।

हाल में कांग्रेस के वरिष्ठ प्रवक्ता और अर्थशास्त्री गौरव वल्लभ ने जिस तरह अपनी पार्टी को बीच मझधार धता बताकर विपक्षी भाजपा के डेरे में प्रभु गुण गान शुरू किया, उससे कांग्रेस की लाचारी तो उजागर हुई ही, साथ में यह भी साबित हुआ कि दुनिया में हर पेशे की अपनी नैतिकता और लक्ष्मण रेखाएं होती है, सिवाय पार्टी के अधिकृत प्रवक्ता के। दरअसल पार्टी प्रवक्ता ऐसा पद है, जो किसी राजनीतिक दल द्वारा अपने कार्यकर्ता को उसकी तर्क-वितर्क शक्ति, खंडन- मंडन करने की काबिलियत, भाषा पर अधिकार और बेशरमी की हद तक कुतर्क करने की क्षमता के आधार पर दिया जाता है। प्रवक्ता के निजी विचार जो भी हों, लेकिन उसे अपनी ही पार्टी और उसके नेताअों की हर मूर्खता को भी महिमा मंडित करने और विरोधी पार्टी की जायज बात को भी ‘राजनीति से प्रेूरित’ बताकर खारिज करने की प्रतिभा किसी को पार्टी प्रवक्ता बना सकती है। हकीकत में वो एक कठपुतली होता है, जिसके ‘आ‍र्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ होने का मुगालता खुद उसे और जनता को होने लगता है। वो सुबह जो बात कह रहे होते हैं, शाम त तक उस पर यू टर्न लेने में संकोच नहीं करते। आम तौर पर पार्टी प्रवक्ता आदर्श चुनाव आचार संहिता से बंधे होते हैं, लेकिन उनकी स्वयं की कोई अाचार संहिता अथवा नीति निष्ठा नहीं होती। अमूमन माना जाता है कि पार्टी प्रवक्ता सम्बन्धित पार्टी की विचारधारा, रणनीति, कार्यशैली और अनुशासन के मीडिया पैरोकार होते हैं। माना जाता है कि प्रवक्ता जो कहता है, वो किसी भी मुद्दे पर पार्टी की अधिकृत लाइन होती है, जो दल के शीर्ष नेतृत्व की सोच और रणनीतिक समझ से तय होती है। इस अर्थ में पार्टी प्रवक्ता राजनीतिक ध्वज वाहक होता है, लेकिन तभी तक जब तक कि वह फलां दल में है। पार्टी बदलते ही जबान फेरने में

वह वक्त जाया नहीं करता। इसका एक रोचक उदाहरण प्रवक्ता ‍प्रियंका चतुर्वेदी का है। वो जब तक कांग्रेस की प्रवक्ता थीं, तब तक शिवसेना पर हमलावर थी। लेकिन जैसे उनके गृह राज्य महाराष्ट्र में शिवसेना गठबंधन के साथ सत्ता में आई, वो रातो रात शिवसेना (उद्धव) की खैरख्वाह बन गईं। मध्यप्रदेश में भी पूर्व में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे ज्योेतिरादित्य सिंधिया के समर्थक प्रवक्ता महाराज के पाला बदलते ही कांग्रेसियों के जानी दुश्मन बन गए। वैसे भी इन दिनों भाजपा में आने वालो की संख्या, भाजपा छोड़कर जाने वालों की संख्या की तुलना में बहुत कम है, क्योंकि सत्ता का फेविकोल यहां ज्यादा मजबूत है। इस मायने में प्रवक्ताअों का शब्द कोश सामान्य शब्द कोशों से अलग अर्थ रखता है। प्रवक्ताअों के शब्दकोश में राजनीतिक मौका परस्ती को आस्था परिवर्तन कहा जाता है। मुखौटे बदलने में ये किसी भी राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए आइकन हो सकते हैं। दरअसल सत्ताकांक्षा से उपजी बेचैनी उन्हें दलबदल और नए घर की पहरेदारी पर विवश करती है। राजनीतिक निर्गुणिया से सियासी सगुणिया होने का यह अद्भुत चमत्कार है। यानी जिस पार्टी में वो बरसो भजन करते रहे, वह अचानक उन्हें नास्तिक लगने लगती है।
तो क्या पार्टी प्रवक्ता होने की कोई मर्यादा या मापदंड नहीं हैं? देश के जाने माने प्रबंधन विशेषज्ञ हेमंत गवले ने किसी राजनीतिक पार्टी प्रवक्ता के कुछ मापदंड तय किए हैं। पहला है, पार्टी का मानवीकरण करने की योग्यता खासकर अति संवेनदशील मानवीय मुद्दों पर, दूसरा विरोधी को जिम्मेदार ठहराना, तीसरा, पार्टी के रूख को सही ठहराना, चौथा, हर मुद्दे पर पार्टी का संदेश प्रत्येक मीडिया प्लेटफार्म से लोगों तक पहुंचाना ( यह तकनीकी काम ज्यादा है)। इसी तरह अगर पाटी प्रवक्ता की योग्यता का पैमाने देखे जाए तो उसे स्ट्रीट स्मार्ट’ यानी अपनी पार्टी और सरकार का बचाव करने में सक्षम होना चाहिए, दूसरा हवा को अपने पक्ष में पलटना, मोटी चमड़ी का होना, ज्ञानी और विश्वसनीय होना तथा हाजिर जवाब और मोहक होना। कई पाटी प्रवक्ता इन तमाम मानकों पर खरा भी उतरते हैं। लेकिन ज्यादातर का आचरण इन मानकों से परे होता है। अलबत्ता पार्टी प्रवक्ता होना या बनना भी एक ‘प्रोफेशन’ बन चुका है। किसी भी पार्टी का श्रेष्ठ प्रार्टी प्रवक्ता कौन, इसको लेकर एक मीडिया प्लेटफार्म e4m ने पिछले दिनो विभिन्न राजनीतिक दलों के 50 श्रेष्ठ राष्ट्रीय प्रवक्ताअों की सूची जारी की थी।

वक्तृत्व क्षमता और राजनीतिक निरूपण की योग्यता इस चयन के पैमाने थे। इस सूची में भाजपा के सर्वाधिक 24 प्रवक्ता शामिल थे। इसमें भी सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता भाजपा के डाॅ.सुधांशु त्रिवेदी को बताया गया था। हालांकि भाजपा के प्रवक्ताअों में कई तो आयाितत प्रवक्ता थे। ये वो प्रवक्ता हैं, जो कभी भाजपा के घोर आलोचक रहे हैं। लेकिन दलबदल का कमाल देखिए कि अब यही प्रवक्ता भाजपा के राजपुरोहित अथवा राज अप्सराएं हैं और भाजपा उनके लिए ‘राजमाता’ के समान है। इस सूची में भाजपा के बाद कांग्रेस 10, 3-3 आप और टीएमसी के, 2-2 सपा, उद्धव सेना व बीजेडी के तथा 1-1 प्रवक्ता बीआरएस, एनसीपी, वायएसआर कांग्रेस, एआईएडीएमके, एआईएमआईएम, टीडीपी,डीएमके और एलजेपी के हैं।

कांग्रेस का सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी को बताया गया था। इसका अर्थ यह है कि भाजपा के अलावा अन्य पार्टियों के पास अब अच्छेप राष्ट्रीय प्रवक्ताअोंका भी टोटा है। जो हैं, वो भी अपनी पार्टी का बचाव कितने दिनों तक करेंगे, यह कोई नहीं जानता।
इसमें दो राय नहीं कि अच्छा पार्टी प्रवक्ता वही हो सकता है, जो पार्टी लाइन को ठीक से समझता हो और मुश्किल प्रसंगो में भी उसे डिफेंड करने की काबिलियत रखता हो। मीिडया प्लेटफार्मों पर वह पार्टी का चेहरा होता है और जिसे खुद के बजाए पार्टी रूपी आईने का चेहरा सतत साफ रखना होता है। उसे यह जताना होता है कि वह पार्टी की आत्मा से एकात्म है और जो कह रहा है, वही उसका समुचित पक्ष है। जनता उसे सही माने न माने, यह अलग बात है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि जो पार्टी प्रवक्ता दल की रीति ‍नीति का प्रचारक और संरक्षक होता है, वह रातोरात पाला बदल कर अपनी वैचारिक निष्ठा का प्रत्यारोपण कैसे कर सकता है अथवा कर लेता है? गौरव वल्लभ तो इस अपसंस्कृति के प्रतीक भर हैं। गौरव कल तक कांग्रेस के दमदार प्रवक्ताअों में गिने जाते थे। खासकर आर्थिक नीतियों पर उन्होंने कई बार भाजपा को आड़े हाथों लिया।

इसी तरह गौरव भाटिया, शाजिया इल्मी, शहजाद पूनावाला, अजय आलोक जैसे कई प्रवक्ता हैं जो पहले धर्मनिरपेक्षता की तख्तियां हाथ में लेकर घूम रहे थे और देश का भविष्य इसी में सुरक्षित मान रहे थे, वो अचानक राम भक्त, मोदी सिक्त, राष्ट्रवादी कैसे और क्यों हो गए? जो वो पहले कर रहे थे, वह महज एक राजनीतिक स्वांग था या फिर अब वो जो कर रहे हैं, वह तमाशा है या फिर सोलह आने सच है? साथ में यह भी कि ऐसे ‘विभीषण प्रवक्ताअों’ पर भाजपा या अन्य पार्टियां भी कितना भरोसा करती हैं? प्रवक्ताअों का 360 डिग्री से राजनीतिक ह्रदय परिवर्तन आखिर किन कारणों से होता है और ये प्रवक्ता भी क्या उन्हीं राजरोगों से मुक्त नहीं है, जो सत्ता का सीधा नियंत्रण चाहते हैं? हकीकत में वाक् चातुर्य भरे अधिकांश प्रवक्ता मैदानी राजनीति के ‘अग्निवीर’ ही होते हैं। बहुत बिरले ऐसे प्रवक्ता हैं, जो चुनावी रण में भी विजेता रहे हैं और न सिर्फ सत्ता सिंहासन तक पहुंचे हैं और पहुंचकर लंबे समय तक टिके हैं। जबकि अधिकांश प्रवक्ताअों के राजनीतिक कल्याण का रास्ता राज्यसभा और विधान परिषदों के जरिए ही तय होता है। कभी कभार कोई मंत्री पद भी पा लेता है, लेकिन वैसा होने के बाद भी वह आचरण की मर्यादा में रहे, यह जरूरी नहीं है। बल्कि उसके बौरा जाने का खतरा ज्यादा होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो पार्टी प्रवक्ता वाक् वीर ही होते हैं और वो युद्धवीर बनने का भ्रम पाले रहते हैं। राजनीतिक दलों को पता रहता है कि जबानी लड़ाई लड़ने और मैदानी लड़ाई लड़ने के पैमाने और तकाजे बिल्कुल अलग अलग होते हैं। तुरही बजाने वाला त्रिशूल भी चला ले, जरूरी नहीं है। लेकिन प्रवक्ताअों को मिलने वाले भरपूर मीडिया कवरेज के बावजूद यह कसक उनमें हमेशा रहती है कि वो सत्ता साकेत के दरबान ही हैं। राजा के कसीदे काढ़ते और दुश्मन की खाल उधेड़ते वह यह भ्रम पाल बैठते हैं कि प्रखर प्रवक्ताई की ऐवज में उन्हें सीधी सत्ता अथवा अवाम की नुमाइंदगी का वैसा नेग मिलना चाहिए, जितना कि खुद राजा को मिलती है। इसीलिए ज्यादातर प्रवक्ता हर चुनाव में इस जो़ड़तोड़ में रहते हैं कि पार्टी की रखवाली का मुआवजा उन्हें चुनाव टिकट के रूप में ‍िमले। जबकि ज्यादातर पार्टियों को पता होता है कि (मीडियाकर्मियों की तरह) लकड़ी की तलवार भांजने वाले तोप नहीं चला सकते। गौरव भाटिया के बारे में भी यही कहा जाता है कि वो राजस्थान से लोकसभा का टिकट चाहते थे। पार्टी ने नहीं दिया तो उन्होंने अब तक की तपस्या को निरर्थक मान उस भाजपा की पैरवी की राह पकड़ ली, जिसे वो कल तक देश के लिए सबसे बड़ा खतरा मान रहे थे। दिल के साथ रूह के प्रत्यारोपण की यह कठिन कला बड़े- बड़े जादूगरों को भी नसीब नहीं होती। वकील भी सच और झूठ दोनो पक्षों की पैरवी बड़ी सफाई से करते हैं। लेकिन नैतिकता का झीना पर्दा वहां भी होता है कि वो एक बार वकील जिसकी पैरवी करता है, अंत तक उसीके पाले में रहता है। लेकिन पार्टी प्रवक्ता पर ऐसा कोई नैतिक बंधन भी नहीं है। वह जिस पार्टी की बधाई गाते हैं, पार्टी बदल कर उसी पूर्व राजनीतिक दल पर वार करने में गुरेज नहीं करते।
ऐसे में लाख टके का सवाल यह कि पार्टी प्रवक्ताअों की नैतिकता है क्या? क्या वो महज एक राजनीतिक ठेका मजदूर हैं या फिर पार्टी की रीति नीति के रखवारे? उनकी कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता ही नहीं है तो वो सियासत में आए क्यों हैं? अगर उनमें और सत्ताकांक्षी राजनेताअोंमें कोई नैतिक फरक नहीं हैं तो प्रवक्ताअों को जनता भी गंभीरता से क्यों ले?


-लेखक ‘सुबह सवेरे’ के वरिष्ठ संपादक हें।

 

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