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अदभुत समागम : गांधी और आज़ाद जहां आकर मिल जाते हैं : 2 कहाँ खो गई सत्याग्रह की संस्कृति ?-राजेश बादल

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आलेख

राजेश आलेख

कल मैने आपको चंद्रशेखर आज़ाद तीर्थ का ऐतिहासिक संदर्भ बयान किया था ।इस स्थान पर पहले दिन इस बात पर चर्चा हुई कि क्या गांधी जी और आज़ाद की स्वतंत्रता का लक्ष्य समान नहीं था ? चूंकि अंग्रेज़ तो जल्लाद थे और अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए हिंदुस्तानियों को कीड़े मकोड़ों की तरह मारते थे, तोप के मुंह से बांध कर उड़ाते थे और सैकड़ों लोगों को आए दिन पेड़ों पर लटका कर फांसी देते थे । हम उनके सामने निरीह,लाचार और बेबस थे । आज़ाद सोचते थे कि जिस ऊपर वाले ने इंसान को धरती पर भेजा है ,क्या उसे दूसरे व्यक्ति की निर्ममता से जान लेने का हक़ है ? शायद नहीं ।इसलिए वे गोरों इस

आईना दिखाना चाहते थे कि तुम्हें जान लेने का अधिकार नहीं है ।यदि उन परदेसियों को मौत के ऐसे ही तरीक़े का सामना करना पड़े तभी वे हिंसा का सहारा लेने से बचेंगे । आज़ाद इस अवधारणा पर काम कर रहे थे और गांधी सोचते थे कि सदियों से गुलाम भारत के लोगों को इस तरह से मारने का हक़ गोरों को नहीं है ।लेकिन, उनसे मुकाबिले के लिए भारतीयों के पास क्या था । वे निर्बल और असहाय थे तो वे अंग्रेजों की बर्बरता का उत्तर उनके ही अंदाज़ में नही दे सकते थे । फिर कैसे उनका सामना किया जाए ? तब महात्मा गांधी ने अपनी प्रयोगशाला में अहिंसा और सत्याग्रह के रास्तों का आविष्कार किया । गांधी और क्या कर सकते थे ।पहले उन्होंने भारतीयों में आशा और विश्वास का संचार किया और फिर गोरों को सबक सिखाया।इस तरह लक्ष्य तो दोनों का एक ही था । सत्र संचालन करते हुए मैने इस बिंदु को रेखांकित किया ।अन्य वक्ताओं ने गांधी जी के साहस और नैतिक पक्ष का मूल्यांकन किया।सार यह निकला कि मौजूदा दौर में नौजवान प्रतिरोध की संस्कृति भूल गए हैं।सुविधाओं ने उनके भीतर सड़क पर संघर्ष की इच्छा का दमन कर दिए है।चिन्मय मिश्र जी ने आज मोबाईल संस्कृति पर करारा प्रहार किया।उन्होंने कहा कि यह उपकरण आत्म चिंतन से दूर करता है और गांधी जी के अनेक सिद्धांतों से दूरी बनाने पर बाध्य करता है।चिन्मयजी ने मोबाईल फ़ोन को चलबोला नाम दिया।यह नाम सभी को पसंद आया।इस सत्र का निष्कर्ष और निचोड़ यही था कि नई नस्ल के भीतर नए सिरे से वैचारिक आधार मज़बूत करना ज़रूरी है ।


दूसरे सत्र में सुधीर सक्सेना ने विचार की धारा गांधी के सत्य और विनोबा के सामाजिक सरोकारों से जोड़ दी । उन्होंने कहा कि कुछ विचारवान लोग कहते थे कि ईश्वर सत्य है ,लेकिन गांधी ने स्थापित किया कि सत्य ही ईश्वर है ।अगर हम सत्य पर खड़े रहे तो व्यवस्था की विसंगतियां अपने आप दूर हो जाएंगी ।इस सत्र के दौरान नए विद्वानों में गांधी भवन भवन न्यास के अध्यक्ष संजोय सिंह और देश के वरिष्ठ गांधीवादी विचारक रामचंद्र राही भी जुड़े । गांधी के अनुयायी विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को आज़ादी के बाद समानता की दिशा में सबसे बड़ा अनुष्ठान बताया गया। प्रसंग के तौर पर बता दूँ कि विनोबा के भूदान आंदोलन में बुंदेलखंड का मंगरौठ गाँव पहला था ,जिसकी सारी ज़मीन भूदान में दे दी गई थी। अफ़सोस तो यह रहा कि इस आंदोलन की क़ामयाबी के बाद अनेक प्रदेशों ने ग्राम दान विधेयक के ज़रिए इसे सरकारी व्यवस्था में शामिल कर लिया था। लेकिन बाद में यह विधेयक ही रद्द कर दिया गया। नौजवान युवा युवतियों के सवालों ने इस सत्र को जीवंत बना दिया ।


तीसरे सत्र की बागडोर चिन्मय मिश्र जी के हाथों में थी ।यह गरमागरम सत्र था और मौजूदा हालात में गांधी और विनोबा को याद करने के लिए झिंझोड़ता था ।भारत में धार्मिक आस्थाओं की स्थिति और समानता पर अच्छी बहस हुई ।गांधी के राम कौन थे और क्या हम उस राम के रास्ते पर चल पा रहे हैं । यह एक गंभीर मुद्दे के रूप में उभरा ।कुछ विवेकशील युवाओं ने आज की सियासत और गांधी के रास्ते से भटकने की ओर इशारा किया ।उनके दिल और दिमाग़ में उमड़ घुमड़ रहे प्रश्नों ने यह राहत दी कि समूची नई पीढ़ी एक जैसी नहीं है। वह आज के ज्वलंत मसलों पर भी गहराई से चिंतन करती है। इन दिनों युवा पीढ़ी के मन में उबल रहे सवालों और आक्रोश का उत्तर राष्ट्रपिता के दर्शन से खोजने का भी परामर्श गांधी विचार के सभी वक्ताओं ने दिया ।सत्र में गांधी प्रार्थना हुई और उनके प्रिय भजन गाए गए ।दिन और रात को पंगत में बैठकर भोजन करने से सामुदायिक भावना का सन्देश भी पहुँचा।अनेक नौजवानों ने पहली बार पंगत के भोजन का स्वाद चखा । दूसरे दिन यानी बारह फरवरी को महात्मा गांधी जी की त्रयोदशी वाले दिन श्राद्ध दिवस पर पास में ही बेतवा नदी के कंचना घाट पर कार्यक्रम हुआ। इसी घाट पर बारह फरवरी,1948 को महात्मा गांधी की अस्थियों का विसर्जन किया गया था।लेकिन उसकी जानकारी अगली कड़ी में। ( जारी )

लेखक देश के ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हें।

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