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10वीं पास युवक के इनोवेशन से ग्रामीण बन रहे आत्मनिर्भर, नहीं करना पड़ रहा रोजगार के लिए पलायन

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इंदौर। नवाचार वही जो लोगों के जीवन को आसान बनाए। प्रौद्योगिकी और इंजीनियरिंग संस्थान के छात्र तो आए दिन नवाचार करते रहते हैं लेकिन अब इस दौड़ में ग्रामीण क्षेत्रों के युवा भी शामिल हो गए हैं। झाबुआ जिले के एक छोटे से गांव के दसवीं पास युवक ने एक ऐसा नवाचार किया है, जो ग्रामीणों को न सिर्फ रोजगार प्रदान कर रहा है, बल्कि उससे अच्छी कमाई भी हो रही है।

यह नवाचार झाबुआ जिले के पलासड़ी ग्राम के विजेंद्र अमलियार ने किया है। ग्रामीणों की समस्या को देखते हुए उन्होंने हाथों से चलाने वाली घट्टी से एक इलेक्ट्रानिक चक्की तैयार की है। इस चक्की की खासियत यह है कि इसमें प्रोसेस किए गए अनाज के पोषक तत्व समाप्त नहीं होते और इससे प्रोसेस किए गए अनाज भरपूण पोषण देते हैं। यह नवाचार भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) इंदौर के रूरल इनोवेटर्स कांक्लेव में भी प्रस्तुत किया गया।

विजेंद्र बताते हैं झाबुआ जिले में 1320 गांव हैं और प्रत्येक गांव के ज्यादातर लोगों के पास मात्र पांच या छह बीघा जमीन है। इस क्षेत्र की साक्षरता दर भी बहुत कम है। पानी की समस्या के चलते यहां खेती करना भी मुश्किल होता है। ऐसे में ज्यादातर लोग दूसरे राज्यों में जाकर मजदूरी कर रहे हैं। जबकि झाबुआ में तुवर, उड़द, मूंग और चना ज्यादा मात्रा में पैदा होता है।
किसान सभी अनाजों को प्रोसेस किए बिना सीधे मार्केट में बेचते हैं इसलिए इसके ज्यादा दाम नहीं मिल पाते। उनकी यह समस्या को देखते हुए विचार आया कि अगर दालों और गेहूं की सफाई और प्रोसेसिंग के बाद उसकी स्वयं पैकिंग करके बाजार में बेचें तो अच्छी कमाई हो सकेगी।
इसके लिए घर में लगी सीड बाल बनाने की मशीन की पट्टी को घट्टी से जोड़ा तो मशीन की स्पीड धीरे हो गई है। क्योंकि सीड बाल की मशीन में पत्थर छोटे आकार का होता है, जबकि घट्टी का पत्थर बड़ा होता है। मैं समझ गया है कि इसकी स्पीड कंट्रोल की जा सकती है। इसके बाद मैंने देशी घट्टी को इलेक्ट्रिकल घट्टी में तब्दील कर दिया।
मार्केट में चलने वाली आटा चक्की को 1425 आरपीएम पर चलाया जाता है। इससे अनाज तेजी से पिस तो जाता है, लेकिन गरम होने से उसके पोषक तत्व कम या समाप्त हो जाते हैं। हमने मशीन में एक लीवर और गियर बाक्स लगाया है जिससे इसकी स्पीड 70 आरपीएम पर सेट है। इससे मशीन की स्पीड हाथों से चलाई जाने वाली घट्टी के बराबर ही रहती है। इससे अनाज गरम नहीं होते और उसके न्यूट्रीशन भी बरकरार रहते हैं।
इसके अलावा इस मशीन में उसी पत्थर का इस्तेमाल किया गया है, जिससे घट्टी बनाई जाती है। यह पत्थर खदान से निकलता है और काफी मजबूत रहता है। इसके अलावा मशीन को एक घंटे चलाने पर पांच रुपये की बिजली खपत होती है। यह मशीन एक घंटे में 3.5 किलो आटा, 80 से 90 किलो दाल और 50 से 60 किलो दलिया की प्रोसेस करती है।
अब तक इस मशीन की चार यूनिट अलग-अलग गांवों में लगाई जा चुकी है। इस मशीन को तैयार करने में 20 से 25 हजार रुपये का खर्च आता है। हर गांव में दस महिलाओं का समूह बनाया गया है। ये महिलाएं अनाजों की सफाई, पिसाई और पैकिंग करके मार्केट में सेल करती हैं। इससे होने वाली कमाई को वो बिजनेस में निवेश करती हैं और बाकी की राशि अपने निजी कार्यों के लिए प्रयोग करती हैं। इससे कई घरों को रोजगार मिला है तथा उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार हुआ है। महिलाएं आत्मनिर्भर होकर अपने घर का भरण-पोषण भी कर रही हैं।
विजेंद्र शिवगंगा संस्था से जुड़े हैं। इसी संस्था की ग्रासरूट एप्रोप्रिएट टेक्नोलाजी एंड इनोवेशन लैब में उन्होंने इस मशीन को तैयार किया है। उनका उद्देश्य है कि जिले के 1320 गांव के जरूरतमंद लोग इस मशीन का उपयोग करके अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार करें। दूसरे राज्यों में जाने के बजाय घर में ही रोजगार सृजन करें।
इसके लिए वे लैब में लोगों को मशीन को बनाने और उसे चलाने की निश्शुल्क ट्रेनिंग भी दे रहे हैं। विजेंद्र ने दसवीं तक की पढ़ाई गांव के स्कूल से ही की है। पैसों की तंगी के वजह से आगे की पढ़ाई नहीं कर सके। इसी के चलते वे चाहते हैं कि उनके दो बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण करें। उनके पांच भाई हैं और दो बहनें भी हैं।
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