आलेख
अजय बोकिल
कश्मीर को ‘दुनिया का स्वर्ग’ यूं ही नहीं कहते। घाटी में हालात पहले से बहुत बेहतर होने का सबसे बड़ा प्रमाण यहां आने वाले पर्यटकों की संख्या है। यहां देशी और विदेशी दोनो ही पर्यटक बड़ी संख्या में आ रहे हैं, जिसकी वजह से होटलों के भाव भी बढ़ गए हैं। अधिकृत आंकड़ो के मुताबिक वर्ष 2022 में कश्मीर में साल भर में कुल 1 करोड़ 62 लाख से ज्यादा पर्यटक आए, जिनमें 16 हजार विदेशी थे। पर्यटकों की यह संख्या जम्मू कश्मीर की कुल आबादी 1 करोड़ 36 लाख से भी कहीं ज्यादा है। इसमें वैष्णो देवी और अमरनाथ यात्री भी शामिल हैं। सरकारी आंकड़ों को नजर अंदाज भी करें तो घाटी के विभिन्न पर्यटन स्थलों पर सैलानियों के जमावड़े और वाहनों के रेले से पर्यटन में उछाल को समझा जा सकता है। बिना अमन और भरोसे के यह संभव ही नहीं है। यह स्थिति कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के एक साल पहले यानी 2018 की स्थिति से कई गुना बेहतर है, जब घाटी में घूमने के लिए महज साढ़े 8 लाख ( तब लद्दाख और कारगिल भी जम्मू कश्मीर का हिस्सा थे) यात्री ही आए थे और जिसे पर्यटन के लिहाज से सबसे बुरे साल के रूप में याद किया जाता है। कश्मीर की माली हालत पतली हो गई थी। उसी साल राज्य में महबूबा मुफ्ती की सरकार भाजपा ने गिरा दी थी। और इसके दो साल पहले कुख्यात आतंकी बुरहान वानी को सुरक्षा बलों को मार गिराया था। तब पूरी कश्मीर घाटी सुलग रही थी। जबकि 2017 में अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमला हुआ था, जिसमें 7 श्रद्धालु मारे गए थे।
मेरी पिछली कश्मीर यात्रा 2011 में हुई थी, तब राज्य में उमर अब्दुल्ला की सरकार थी। घाटी में तनाव था, लेकिन हालात बेहतर थे। पत्थरबाजी और आतंकियों से मुठभेड़ की घटनाएं यदा कदा होती रहती थीं। हुर्रियत वाले जब तब बंद करा देते थे। लेकिन पर्यटक आ रहे थे। लेकिन उस साल भी यह आंकड़ा साल भर में दस लाख तक पहुंचा था। सैलानी आ रहे थे, लेकिन हिचक के साथ।
इस बार तस्वीर बहुत बदली दिखी। ज्यादातर होटलों में एन वक्त पर कमरा मिलना असंभव था और नामी होटलों में रूम रेंट 30 से 50 हजार रू. प्रतिदिन चल रहा है। स्थानीय लोगों ने बताया कि अब सर्दियों में पर्यटक और ज्यादा आने लगे हैं ताकि बर्फबारी का आनंद ले सकें। जबकि सितंबर को ‘टूरिेस्ट सीजन’ नहीं माना जाता। टूरिस्ट सीजन अक्टूबर से जून तक माना जाता है। अक्टूबर में बारिश के साथ ही बर्फबारी शुरू हो जाती है। लेकिन सितंबर का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि घाटी में सेब और अखरोट की तुड़ाई शुरू हो चुकी है, जो अगले कुछ महीनो तक चलेगी। पर्यटकों के लिए सेब के बगीचों में लटके लाल सुर्ख सेब और अखरोट के पेड़ों पर लगे हरे अखरोट के फलो को देखना रोमांचकारी होता है। कश्मीर में ये दोनो पेड़ बहुतायत से पाए जाते हैं। हालांकि इस बार सेब की फसल कई जगह खराब हुई है। साथ ही भारत सरकार द्वारा अमेरिकी सेब पर अतिरिक्त आयात कर समाप्त करने का फैसला कश्मीर घाटी में राजनीतिक मुद्दा भी बन गया है। स्थानीय सेब उत्पादकों को लगता है कि केन्द्र सरकार के फैसले उसे उन्हें नुकसान होगा। चिनार के घने छायादार वृक्ष तो कश्मीर की पहचान हैं ही साथ में देवदार, चीड़, पाइन और विलो वृक्ष भी सैलानियों को मोहित करते हैं। विलो की लकड़ी से क्रिकेट के बैट बनते हैं, जो दुनिया भर में निर्यात किए जाते हैं। इसे बनाने की प्रक्रिया भी जटिल है। लकड़ी को काट कर दो साल तक सुखाया जाता है। उसके बाद बैट तराशे जाते हैं। विलो वृक्ष की पत्तियां धूप में चांदी की तरह चमकती हैं और इस वृक्ष का आकार भी बेहद खूबसूरत होता है। अखरोट की लकड़ी पर बारीक नक्काशी होती है। इसके अलावा गुलाब तो कश्मीर में तकरीबन हर जगह पाए जाते हैं।
पर्यटकों के लिए कश्मीर में आकर्षण का मुख्य केन्द्र श्रीनगर के अलावा गुलमर्ग, सोनमर्ग, पहलगाम के साथ चंदनवाड़ी, अनंतनाग का मार्तंड और मट्टन का सूर्यमंदिर भी है। चंदनवाड़ी से अमरनाथ यात्रा शुरू होती है। इसके अलावा वेरीनाग का मुगल गार्डन भी शानदार है। यही से झेलम नदी का उत्स माना जाता है। इसी तरह सनी देअोल की पहली फिल्म बेताब की शूटिंग जिस जगह हुई थी, उसे अब ‘बेताब’ वैली के नाम से जाना जाता है। यहां बड़ी संख्या में पर्यटक दिखे। कश्मीर की हस्तकला बहुत समृद्ध और लाजवाब है। गावों में रहने वाले कश्मीरी की रोजी रोटी इसी हस्तकला पर काफी कुछ निर्भर है। यह हस्तकला पशमीना शाल, कानी साड़ी, महीन कसीदाकारी से लेकर लकड़ी पर बेहतरीन नक्काशी के रूप में है। हस्तकला के कई नए प्रयोग भी यहां देखने को मिलते हैं। हालांकि कश्मीर में बाजार में ज्यादा बार्गेनिंग नहीं होती।
पर्यटकों की एक और पसंद यहां का केसर है। हालांकि अब भारत में ईरान और अफगानिस्तान का केसर भी आने लगा है, लेकिन कश्मीरी केसर की बात ही निराली है। केसर के खेत और फसल भी अपने आप में कविता की तरह हैं। अगर सीजन न हो तो आप समझ ही नहीं सकते कि खेत में केसर बोया गया है। इस वक्त कश्मीर घाटी में बारिश का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था। क्योंकि पानी गिरते ही केसर की पत्तियां उगने लगेंगी। केसर का पौधा घास की तरह का होता है। इसमे लगते हैं खुशबूदार हल्के जामुनी रंग के फूल। इसी से निकाले गए पुंकेसर को आम बोलचाल में ‘केसर’ कहते हैं। कश्मीरी केसर के बारे में कहा जाता है कि असली केसर जल्द पानी में नहीं घुलता। ये इतना हल्का होता है कि 160 फूलों के पुंकेसरों को मिलाकर एक ग्राम केसर निकलता है। इसकी खेती जानकार ही कर पाते हैं। जम्मू कश्मीर सरकार केसर की खेती पर अनुदान देती है। साथ ही इसकी खासियत बरकरार रखने के लिए केसर बीज के निर्यात पर सख्ती से रोक लगा दी गई है। लोगों ने बताया कि कश्मीरी केसर का बीज इन दिनों काफी महंगा मिल रहा है। कश्मीरी केसर उत्पादक इसलिए भी चिंतित हैं, क्योंकि देश के कुछ दूसरे राज्यों में भी इसकी खेती की जाने लगी है।
ड्राय फ्रूट्स के अलावा पर्यटकों की रूचि का एक और आयटम कश्मीरी कहवा है। आजकल इसका पाउडर पैक भी मिलने लगा है। लेकिन फ्रेश कहवा की बात ही अलग है। कहवा शब्द कश्मीरी भाषा ( कश्मीरी अपनी भाषा को ‘काॅशुर’ कहते हैं) में ‘कह’ का मतलब 11 होता है। अर्थात कश्मीरी चाय जो 11 वस्तुअों या मसालों से बनकर तैयार की जाती है। यह काफी गर्म होती है। इसमें शकर की जगह शहद और सूखे मेवे तथा मसाले डाले जाते हैं। कहवा साबुत भी मिलता है।
कश्मीर में कानून व्यवस्था काफी बेहतर होने का ही नतीजा है कि पर्यटक अब बड़ी संख्या में आ रहे हैं। राज्य में फिल्मो की शूटिंग भी बहुत बढ़ गई है। सुरक्षा कर्मी सभी जगह दिखते हैं, लेकिन फिजा में तनाव नहीं दिखता। वैसे भी कश्मीर की अर्थव्यवस्था में पर्यटन का काफी महत्व है। राज्य की कुल जीडीपी में पर्यटन की हिस्सेदारी करीब 7 फीसदी है। लगभग इतनी ही भागीदारी उद्यानिकी की है। हालांकि जम्मू कश्मीर देश में दूसरा राज्य है, जिस पर सबसे ज्यादा कर्ज है। अलबत्ता पर्यटन बढ़ने से कश्मीर सरकार का राजस्व भी बढ़ता है। साथ ही कश्मीरियों के हाथ में पैसा भी आ रहा है। इसे राज्य के शहरो में हो रहे भवन निर्माण और अन्य गतिविधियां इसकी गवाही देते हैं। यहां सड़क और हवाई जहाज के अलावा अब ट्रेन सुविधा भी हो गई है। इससे भी फर्क पड़ा है। वैसे आम कश्मीरी बेहद गरीब है। उसके लिए पर्यटन ही कमाई का प्रमुख सहारा है। पर्यटन के आर्थिक महत्व की वजह से ही आतंकियों ने भी अपनी रणनीति बदली है। वो अब टूरिस्टो को निशाना नहीं बनाते। टूरिज्म घटने से आतंकियों ने स्थानीय लोगों की सहानुभूति काफी हद तक खो दी थी।
-लेखक ‘ सुबह सवेरे’ के वरिष्ठ संपादक हें।